पटना / नई दिल्ली : बिहार की पत्रकारिता के इतिहास में शायद यह पहली घटना थी जब प्रदेश के मुख्यमंत्री अपने घर इंडियन एक्सप्रेस जैसे अख़बार के मालिक, संपादक, अधिकारी और पत्रकारों को बुलाकर उनके ही अखबार को लोकार्पित किये। बाबू श्रीकृष्ण सिन्हा के कालखंड से आज तक कभी भी ऐसी घटना नहीं हुई थी। अलबत्ता, उन दिनों अख़बारों के सम्पादकों की, मालिकों की ऊंचाई इतनी अधिक थी की मुख्यमंत्रियों को पैदल चलकर उनके कार्यालयों तक पहुंचना होता था। यह घटना किसी भी पत्रकार को सोचने पर विवश कर दिया है कि इससे इंडियन एक्सप्रेस अख़बार की ‘गरिमा’ कम हुई, अथवा राजनीतिक बाजार में नीतीश कुमार अपना मोल बढ़ाये, या एक्सप्रेस जैसे अख़बार के मालिकों को, संपादकों को, संवाददाताओं का कद छोटा किया। आज अगर ‘रामनाथ गोयनका’ जीवित होते तो शायद यह दुर्घटना नहीं घटी होती।
घर वापसी अच्छी बात है। इंडियन एक्सप्रेस के पटना संस्करण के लोकार्पण के अवसर पर जब संस्थान के अध्यक्ष विवेक गोयनका की ‘घर वापसी’ वाली बात अख़बारों के पन्नों के साथ-साथ इंटरनेट पर प्रकाशित हुआ, रामनाथ गोयनका के जन्मस्थान दरभंगा के लोग हंसने लगे। दरभंगा के टाउन हॉल से पश्चिम कायस्थों और मारवाड़ियों की वस्तियों से लेकर दक्षिण के उर्दू बाजार इलाके के लोग भी हंस रहे थे। रामनाथ गोयनका का जन्म 3 अप्रैल 1904 को इसी इलाके में हुआ था। लोगों का कहना हैं कि ‘अपने जीवन काल में गोयनका जी दरभंगा से जाने वाले किसी भी व्यक्ति को मुंबई में बहुत सम्मान करते थे, यह सच है; लेकिन यह भी उतना ही सच है कि विगत कई दशकों में गोयनका परिवार का कोई भी व्यक्ति दरभंगा की मिट्टी पर पैर नहीं रखे हैं। फिर कैसा घर वापसी?”
इस ‘ऐतिहासिक घटना’ के बाद पूर्व दिशा की ओर मुखकर मन ही मन गुनगुनाने लगा-‘उगहु हे सूरज देव भइल अरघिया के बेर’- एक्सप्रेस का घर जाकर राजनेता के हाथों अख़बार का संस्करण लोकार्पित करना एक्सप्रेस की पत्रकारिता के लिए शुभ संकेत नहीं है, यह कुछ अलग संवाद दे रहा है। आज रामनाथ गोयेनका की आत्मा भी मन ही मन सोचती होगी कि क्या ऐसे दिन देखने के लिए ही इस अखबार को स्थापित किया था। जो राजनेता कुर्सी पर चिपके रहने के लिए कब किसके साथ चल देगा, प्रदेश के मतदाता क्या, पार्टी के विधायक भी नहीं जानते, वैसी स्थिति में इंडियन एक्सप्रेस को पटना लाने के पीछे, इसे लोकार्पित करने के पहले एक-अन्ने मार्ग क्या-क्या शर्त रखा होगा, यह गहन शोध का विषय है।
मुख्यमंत्री महोदय को इंडियन एक्सप्रेस अखबार हाथ में लिए, एक्सप्रेस के संपादक उन्नी राजन, संतोष कुमार और अन्य गणमान्य लोगों को पंक्ति बद्ध तस्वीर खिंचवाते देख, ट्विटर और सामाजिक क्षेत्र के अन्य प्लेटफार्मों पर चिपका देख अचानक वरिष्ठ पत्रकार अक्षय मुकुल भी याद आ गए जो नौ वर्ष पहले 2 नवंबर 2016 को, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रामनाथ गोयनका पत्रकारिता उत्कृष्टता पुरस्कार की अध्यक्षता कर रहे थे, कार्यक्रम का बहिष्कार किए थे। अक्षय मुकुल इंडियन एक्सप्रेस के संस्थापक के सम्मान में स्थापित पुरस्कार से अलंकृत किए गए थे । लेकिन एक पत्रकार के रूप में उन्हें इस बात की तकलीफ़ थी कि जिस व्यक्ति के नाम पर यानी रामनाथ गोयनका के नाम पर स्थापित पुरस्कार जिस व्यक्ति के हाथों दिया जा रहा था, उनके साथ मंच पर खड़े होकर पुरस्कार प्राप्त करना, उनके साथ तस्वीर खिंचवाना पत्रकारिता के लिए शुभ नहीं है। उनकी अनुपस्थिति में उनकी पुस्तक, गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ हिंदू इंडिया के प्रकाशक हार्पर कॉलिन्स इंडिया के प्रकाशक और मुख्य संपादक कृष्ण चोपड़ा ने उनकी ओर से पुरस्कार ग्रहण किया था।

इंडियन एक्सप्रेस के पटना संस्करण का अपने घर पर लोकार्पण करते नीतीश कुमार ने कहा कि अच्छी पत्रकारिता नागरिकों को सशक्त बनाती है और सुशासन के लिए आवश्यक है। पटना संस्करण इंडियन एक्सप्रेस का 11वां संस्करण है। यहाँ के अलावे यह नई दिल्ली, मुंबई, नागपुर, अहमदाबाद, वडोदरा, जयपुर, लखनऊ, कोलकाता, चंडीगढ़, पुणे से प्रकाशित होता है। नीतीश कुमार कहते हैं: “मैं इंडियन एक्सप्रेस के पटना संस्करण के शुभारंभ पर बहुत खुश हूं। यह अच्छी बात है कि अखबार पटना आया है। मैं अपने कॉलेज के दिनों से ही अखबार का शौकीन पाठक रहा हूं। अच्छी पत्रकारिता नागरिकों को सशक्त बनाती है और सुशासन के लिए आवश्यक है।”
आश्चर्य की बात तो यह है कि बंगाल की आवाज यानी आनंद बाज़ार पत्रिका समूह द्वारा प्रकाशित दी टेलीग्राफ अखबार का पटना संस्करण नीतीश कुमार के ऐतिहासिक कालखंड में ही दिसंबर 14 2018 को पटना को नमस्कार कर अनंत यात्रा पर निकला गया। इस अखबार में काम करने वाले कामगारों का, पत्रकारों का, गैर-पत्रकारों का क्या हुआ, उसके परिवार, परिजनों का क्या हाल हुआ, उम्मीद नहीं है कि नीतीश कुमार कभी पूछे भी होंगे। इससे वर्षों पहले आर्यावर्त, इंडियन नेशन, सर्चलाइट, प्रदीप और अनेकानेक दैनिक पटना में अंतिम सांस लिया और प्रदेश के मुख्यमंत्री कार्यालय से लेकर सभी राजनेता, अभिनेता मूकदर्शक बने रहे। खैर।
पटना से इंडियन एक्सप्रेस के प्रकाशन को बिना किसी राजनीतिक भेदभाव के क्या भाजपा, क्या राष्ट्रीय जनता दल सभी स्वागत किया। प्रदेश के उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी का कहना था ‘यह बहुत गर्व और सम्मान की बात है कि इंडियन एक्सप्रेस पटना में आया है। यह अख़बार अपनी निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए जाना जाता है। हम जमीनी स्तर से लेकर शासन तक की अच्छी और व्यापक रिपोर्ट की उम्मीद कर रहे हैं।” इसी तरह, राजद के राज्यसभा सांसद मनोज कुमार झा कि “ऐसे युग में जहां सनसनीखेजता समझदारी पर विजय पा लेती है और कई मीडिया प्लेटफॉर्म अपना संतुलन खो चुके हैं, इंडियन एक्सप्रेस शोर पर समाचार का झंडा बुलंद करता है… उच्च गुणवत्ता वाले, अच्छी तरह से तर्क किए गए संपादकीय और ऑप-एड पर कोई समझौता नहीं करता है जो हमें राजनीति, नीति, समाज और अंतर्राष्ट्रीय मामलों पर सूक्ष्म दृष्टिकोण की सराहना करने में मदद करता है।” अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के बिहार प्रभारी कृष्णा अल्लावरु अनुसार, “द इंडियन एक्सप्रेस के पटना/बिहार संस्करण के लॉन्च की खबर सुनकर बहुत खुशी हुई। मुझे उम्मीद है कि यह संस्करण यहां पत्रकारिता के लिए मानक स्थापित करेगा।”
संस्थान का कहना है कि पटना संस्करण का लॉन्च 1975 में आपातकाल लागू होने के 50 साल पूरे होने के महीने में हुआ है। लोकार्पण की घोषणा करते हुए, मुख्य संपादक राज कमल झा ने कहा: “अपनी खोजी और व्याख्यात्मक पत्रकारिता के माध्यम से, मूल फील्ड रिपोर्टिंग पर जोर देते हुए, हम बदलते बिहार की कहानी के साथ न्याय करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करेंगे।” जबकि, इंडियन एक्सप्रेस के अध्यक्ष विवेक गोयनका ने कहा: “बिहार हमेशा रामनाथ जी के दिल में एक बहुत ही खास जगह रखता था। पटना संस्करण हमारे समृद्ध इतिहास को एक राज्य और उसके लोगों के रोमांचक भविष्य की कहानी बताने के लिए इस्तेमाल करेगा।” मुख्यमंत्री को धन्यवाद देते हुए उन्नी राजन शंकर ने कहा: “पटना में इंडियन एक्सप्रेस बिहार की आवाज़ को पूरे देश तक ले जाएगा। प्रौद्योगिकी और समाज में इस तरह के विध्वंसकारी बदलाव के समय में यह और भी प्रासंगिक हो जाता है।” इस अवसर पर इंडियन एक्सप्रेस के उपाध्यक्ष (मार्केटिंग, उत्तर) प्रदीप शर्मा और पटना स्थित वरिष्ठ सहायक संपादक संतोष सिंह मौजूद थे।

चलिए अक्षय मुकुल की पत्रकारिता पर चलते हैं। 2 नवंबर 2016 को, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रामनाथ गोयनका पत्रकारिता उत्कृष्टता पुरस्कार की अध्यक्षता कर रहे थे – जिसे इंडियन एक्सप्रेस ने अपने संस्थापक के सम्मान में स्थापित किया था – कम से कम एक प्राप्तकर्ता अपनी अनुपस्थिति के कारण चर्चा में था। टाइम्स ऑफ इंडिया के वरिष्ठ पत्रकार अक्षय मुकुल ने समारोह का बहिष्कार किया। मुकुल के स्थान पर उनकी पुस्तक, गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ हिंदू इंडिया के प्रकाशक हार्पर कॉलिन्स इंडिया के प्रकाशक और मुख्य संपादक कृष्ण चोपड़ा ने उनकी ओर से पुरस्कार ग्रहण किया।
मुकुल, जो करीब 20 वर्षों तक एक संवाददाता के रूप में काम कर चुके थे, को उनकी पुस्तक के लिए पुस्तकों (गैर-काल्पनिक) की श्रेणी में रामनाथ गोयनका पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, जो हिंदुत्व के वैचारिक आधार पर प्रकाश डालती है – विडंबना यह है कि यह प्रधानमंत्री की राजनीति का मुख्य आधार है। अगस्त 2015 में अपनी रिलीज़ के बाद से, गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ हिंदू इंडिया ने शानदार समीक्षा प्राप्त की है और टाटा लिटरेचर लाइव जैसे साहित्यिक पुरस्कार जीते हैं! बुक ऑफ द ईयर अवार्ड और अंग्रेजी में सर्वश्रेष्ठ गैर-काल्पनिक कृति के लिए अट्टा गलाटा-बैंगलोर लिटरेचर फेस्टिवल बुक प्राइज। मुकुल को आरएनजी पुरस्कारों से कोई शिकायत नहीं थी। यह पुरस्कार जीतना एक “सम्मान” था। उनकी समस्या प्रधानमंत्री से पुरस्कार प्राप्त करने में थी। मुकुल ने कहा, “मैं इस विचार के साथ नहीं रह सकता कि मोदी और मैं एक ही फ्रेम में हों, कैमरे की ओर देखकर मुस्कुरा रहे हों और वे मुझे पुरस्कार दे रहे हों।” और बहुत सारी बातें उन दिनों अख़बारों के पन्नों पर सुर्खियां बनी थी।
वैसे इस बात से कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि इंडियन एक्सप्रेस का मुद्रण आज भी काले अक्षरों में ही होता है। लेकिन पटना सबसे बड़ा सवाल यह है कि बिहार में अख़बार खुलने, प्रकाशन होने और राजनेताओं द्वारा इस्तेमाल होने के बाद जिस तरह डाक बंगला चौराहे पर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है, उसके विरुद्ध आज किसी भी अखबार के संस्थान के स्वामियों में यान पत्रकारों में, यहाँ तक की सम्पादकों में ताकत नहीं है। खासकर नब्बे के दशक के बाद से। कल जब बिहार में इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबार का पटना संस्करण लांच करते प्रदेश के मुख्यमंत्री को देखा तो हैरान रह गया। उससे भी अधिक यह देखकर लगा कि एक्सप्रेस के संपादक से लेकर अधिकारी और संवाददाता तक पैदल चलकर मुख्यमंत्री आवास पहुंचे। जब यह कहा गया कि पटना संस्करण को 1975 में आपातकाल लागू होने के 50 साल पूरे होने के महीने में हो रहा है, अचानक आर्यावर्त-इंडियन नेशन अखबार के दफ्तर का पोर्टिको याद आ गया।
जय प्रकाश नारायण का सम्पूर्ण क्रांति बिहार ही नहीं, देश के लोगों के मगज पर चढ़ रहा था। देश के मतदाता देश की राजनितिक व्यवस्था में बदलाव चाहते थे। स्वाभाविक है। सत्तारूढ़ के अलावे विपक्ष के नेताओं को भी सत्ता का रसास्वादन करने का संवैधानिक अधिकार है। देश का क्या होगा, यह न तो उन दिनों लोगों को, राजनेताओं को चिंता थी, न आज है। पंचायत से संसद तक चाहे क्रिया-कलाप ठीक-ठाक संचालित होता भी रहे, कुर्सियों को देखकर कुकुरमुत्तों की तरह पनपते नेताओं को खुजली होने लगती है, वे चक्रव्यूह रचने लगते हैं, ताकि सतारूढ़ दल धराम से नीचे गिरे और वे मुस्कुराते शपथ लेकर कुर्सी से चिपक जायँ। यह मानव का लक्षण है। जय प्रकाश नारायण के आंदोलन के समय बिहार में यह बात तनिक अधिक देखने को मिला।
वैसे तो चौथी विधान सभा से ही, लेकिन पांचवी विधान सभा काल आते-आते सरकारी महकमे में “आया-राम-गया-राम” वाली बात पटना के सर्कुलर रोड, सरपेंटाइन रोड, बेली रोड, फ़्रेज़र रोड पर अधिक प्रचलित हो गया था। मंत्री से लेकर संत्री तक, अधिकारी से लेकर चपरासी तक, जिलाधिकारी से लेकर मुंशी तक सभी हनुमान चालीसा पढ़ते सोते थे और सुवह विष्णुसहस्रनाम पढ़ते जागते थे, ताकि विपत्ति का पहाड़ न टूट पड़े उनपर ।

राजनेताओं की तो बात ही नहीं करें। उनकी गर्दन हमेशा बक्सर के पुल पर लटका होता था। कब नीचे गंगा में प्रवाहित हो जायेंगे, कब पदच्युत हो जायेंगे, कब कौन लंगड़ी मार देगा, कब कौन छिटकिनी लगाकर मुंह के बल गिरा देगा, कोई नहीं जानता था। विहार विधान सभा और विधान परिषद् में आज भी दर्जनों “सम्मानित विधायकगण” हैं, जिनकी स्थिति फ़्रेज़र रोड के कोने पर स्थित (उस समय) उडप्पी से आर्यावर्त-इण्डियन नेशन के कार्यालय से दस कदम आड़े पिंटू होटल तक आते-आते भय से रक्तचाप बढ़ जाता था। वे गवाह होंगे, सांस ले रहे हैं । कई बार ऐसी स्थिति का सामना वे सभी किये थे जब ‘प्रेस रिलीज’ निर्गत करते समय जिस पदभार का मुहर प्रेस रिलीज पर लगाए थे, समाचार बनने के समय तक पदभार से मुक्त हो जाया करते थे। बिहार विधान परिषद् में आज भी ऐसे अनेकानेक माननीय सदस्य हैं जो उन दिनों उस समय के उभरते नेताओं के पीछे-पीछे चलते थे। वे हँसते थे तो इस ठहाका लगा देते थे।
लेकिन आज वे राजनीति में मठाधीश बने बैठे हैं। उन दिनों पटना से प्रकाशित आर्यावर्त-इंडियन नेशन समाचार पत्रों में अपना नाम प्रकाशित करने के लिए, अपना विज्ञप्ति छपाने के लिए, जो सुबह से शाम तक “दण्ड बैठकी” करते थे, आज उसी संस्थान के सैकड़ों-हज़ारों कर्मचारियों, उनके परिवारों को “प्राणायाम” कराते नहीं थकते। कई तो प्राणायाम करते ईश्वर को प्राप्त हो गए, कुछ कतारबद्ध हैं। लेकिन उन्हें क्या? राजनीतिक गलियारे में, मंत्री-संत्री की कुर्सियों पर चिपकने के बाद जनता के बारे में कौन सोचता है? या उन लोगों के बारे में कौन सोचता है, जो शुरूआती दिनों में ‘ऊँगली’ पकड़कर नाम, प्रतिष्ठा, शोहरत दिलाया था। खैर।
उन दिनों बिहार के मुख्यमंत्री थे अब्दुल गफ्फूर। कहने के लिए तो छठा विधान सभा कालखंड था, लेकिन गफ्फूर साहेब 13 वें मुख्यमंत्री के रूप में कुर्सी पर बैठे थे। एक मुख्यमंत्री का कार्यकाल, जो पांच साल का (विधान सभा अवधि के बराबर) होनी चाहिए थी, औसतन ढाई-साल और उससे कम की अवधि में कुर्सी को नमस्कार कर “भूतपूर्व” हो जाया करते थे। गफूर साहब 2 जुलाई 1973 से 11 अप्रैल 1975 तक बिहार राज्य के तेरहवें मुख्यमंत्री के रूप में सेवा किये । वे राजीव गांधी के समय में कैबिनेट मंत्री के रूप में भी शोभायमान हुए थे। ईश्वर आपकी आत्मा को शांति दें गफ्फूर साहेब।
वैसे, 1967 और 1971 के बीच, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तूती बोलती थी, चाहे पार्टी हो या सरकार। सबों को अपने नियंत्रण में ले ली थी श्रीमती गाँधी। आज की तरह ही, उन दिनों भी केंद्रीय सरकार का अर्थ केंद्रीय मंत्रिमंडल कोई नहीं था, बल्कि प्रधानमंत्री के सचिवालय ही हो गया था। सम्पूर्ण सरकार वहीँ केंद्रित थी। जो उनके भरोसे मंद थे, उनका तेवर कुछ और था, जो विश्वासभाजन नहीं थे, उनकी तो तो बात ही नहीं करें। सत्तर के दशक के प्रारंभिक महीनों, वर्षों में जो हुआ वह देश जानता है, जहां तक राजनीति का सवाल है। परन्तु जो नहीं जानता है वह यह की उन दिनों आर्यावर्त-इण्डियन नेशन-मिथिला मिहिर पत्र समूह का सम्पादकगण न केवल अपनी कलम में ताकत रखते थे, बल्कि उस समय के मंत्रियों, चाहे मुख्यमंत्री ही क्यों न हो, पुलिसकर्मियों चाहे पुलिस महानिदेशक ही क्यों न हो, उन्हें उनकी औकात दिखने की क्षमता रखते थे। कुछ ऐसी ही ऐतिहासिक घटना हुई थी उस दिन।

1975 की तपती गर्मी के दौरान अचानक भारतीय राजनीति में भी बेचैनी दिखी। यह सब हुआ इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फैसले से जिसमें इंदिरा गांधी को चुनाव में धांधली करने का दोषी पाया गया और उन पर छह वर्षों तक कोई भी पद संभालने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। लेकिन इंदिरा गांधी ने इस फैसले को मानने से इनकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की घोषणा की और 26 जून को आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी । उस दिन आकाशवाणी पर प्रसारित अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा, “जब से मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील क़दम उठाए हैं, तभी से मेरे ख़िलाफ़ गहरी साजिश रची जा रही थी।” 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक का 21 महीने की अवधि में देश में आपातकाल घोषित था।जय प्रकाश नारायण के आंदोलन के तहत पटना के दो प्रमुख अख़बारों के दफ्तरों को सुपुर्दे ख़ाक करने की तैयारी हो चुकी थी। नेता से लेकर, व्यापारी तक, पुलिस से लेकर अपराधी तक, आंदोलन में कतारबद्ध लोगबाग यह निर्णय ले लिए थे कि अमुक दिन पहले सर्चलाइट-प्रदीप और फिर आर्यावर्त-इण्डियन नेशन – मिथिला मिहिर का दफ्तर फूंका जायेगा।
सर्चलाइट-प्रदीप जलकर स्वाहा हो गया परन्तु, जब आर्यावर्त-इण्डियन नेशन की बात आई तो इण्डियन नेशन के तत्कालीन संपादक दीनानाथ झा सामने खड़े हो गए। उस दिन वैसे तो संस्थान के लगभग सभी कर्मचारी गोलबंद हो गए थे, लेकिन संध्याकाळ होते-होते संस्थान के मुख्य द्वार के बजाय पिछले दीवारों को, जो जमाल रोड से मिलती थी, लांघ कर अपने-अपने घरों की ओर बच-बचाकर कूच कर रहे थे। धीरे-धीरे सम्पूर्ण परिसर वीरान हो गया। मुख्य द्वार पर 50-60 किलो शारीरिक वजन वाले दरवान ही रह गए थे। यह स्थान प्रवेश द्वार के ठीक सामने पोर्टिको का था। दिना बाबू वहीं बैठ गए। अब तक ‘जॉब-विभाग’ में कार्य करने वाले बागेश्वरी प्रसाद ही बच गए थे, जो दीना बाबू के बगल में खड़े थे। बागेश्वरी प्रसाद का शारीरिक वजन भले 65 किलो के आसपास रहा होगा उस शाम, लेकिन उन्होंने हज़ारों-हज़ार किलो के मानसिक वजन वाले लोग जैसा कार्य किया था। दीना बाबू उन्हें भी जाने को कहे। वे दीना बाबू का बाहर सम्मान करते थे।
इसी बीच लाइनों विभाग में कार्य करने वाला जयप्रकाश, जो शरीर से कोई छः फिट लम्बा था, कुछ पल दीना बाबू और बागेश्वरी प्रसाद के पास खड़े रहे, लेकिन तक्षण संस्थान के पिछले दीवार की ओर भागे, जिधर से सभी कर्मचारी अपने-अपने घरों की ओर उन्मुख थे। जयप्रकाश जोर से आवाज लगाया : “रुक जाओ…रुक जाओ कहीं दीना बाबू अपना दाह नहीं कर लें। वे कह रहे हैं अगर संस्थान बचेगा तभी हम सभी कर्मचारियों का जीवन है, अन्यथा कोई अस्तित्व नहीं है। सभी कर्मचारियों के कदम वापस हो गए। परिसर में अखबार बेचने वालों की साईकिल लगी थी, संख्या सैकड़ों में थी। सभी साईकिल सामने के भवन के छत पर क्षणभर में चले गए। ईंट, पत्थर आदि भी एकत्रित हो गए। चतुर्दिक आंदोलनकारी भी भर गए थे फ़्रेज़र रोड पर। लेकिन ऊपर से साइकिलों, पत्थरों और ईंटों के प्रहार से वे संस्थान के अंदर प्रवेश नहीं ले सके। इस बीच, दिना बाबू तत्कालीन पुलिस महानिदेशक वाई.एन. झा से संस्थान की सम्पूर्ण सुरक्षा के लिए सुरक्षा बल मुहैया करने को कहा। पुलिस महानिदेशक, बिहार में प्रचलित उस कहावत को चरितार्थ कर दिए जब एक व्यक्ति के पेशाब की जरूरत हुई और वह व्यक्ति कहने लगा की वह पिछले छः माह से पेशाब किया ही नहीं और अगले एक वर्ष तक लघुशंका करेगा भी नहीं। अब तक पोर्टिको में कर्मचारियों का बैठक बन गया था। टेलीफोन भी लग गए थे।
दूसरे दिन प्रदेश के मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर अपने चेला-चपाटियों के साथ आर्यावर्त-इण्डियन नेशन कार्यालय में धमके। प्रांगण के अंदर प्रवेश के साथ ही कार्यालय परिसर के समस्त कर्मचारी गोलबंद हो गए। मुख्यमंत्री अपने काफिले के साथ पोर्टिको तक पहुंचे। दीना बाबू वहीँ थे। अब्दुल गफूर को देखते ही दीनानाथ झा का रक्तचाप बढ़ गया। वे जब गुस्स में होते थे तो उनका सम्पूर्ण शरीर कांपने लगता था। दृश्य बहुत संवेदनशील था। दीनानाथ जी बाहर गेट के तरफ अपनी ऊँगली से इशारा करते अब्दुल गफूर को बाहर निकलने को कहा। स्थिति बद से बत्तर हो रही थी। एक पत्रकार और मुख्यमंत्री आमने सामने था। तभी फोन की घंटी टनटनायी – “हेल्लो !!! रेस्पेक्टेड दीना बाबू, मैडम विश तो टॉक तो यु…. प्लीज सर।”
फोन के दूसरे छोड़ पर दिल्ली से श्रीमती इंदिरा गाँधी थीं। अब्दुल गफूर उलटे पैर वापस अपने कार्यालय में आ गए। फ़्रेज़र रोड पर बड़े-बड़े बसों में लदे तक़रीबन 50 बन्दुक, राइफलों से लैश केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के लोग कार्यालय परिसर में प्रवेश लिए और बिहार के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक तत्काल प्रभाव से हस्तानांतरित हो गए। इसके बाद विद्याचरण शुक्ल – अब्दुल गफूर के साथ फिर एक बार रूबरू बकझक हुआ। और दोनों नेता पुनः मुंह के बल गिरे। पत्रकारिता में सम्मान था। पत्रकार भी सम्मानित थे।
सत्तर के दशक या उससे पूर्व की पत्रकारिता की तुलना नब्बे के दशक के बाद से लगातार, आज तक, हम नहीं कर सकते हैं। उन दिनों की पत्रकारिता, या पत्रकारों के प्रति, पत्रकारिता के प्रति तत्कालीन राजनेताओं का जो सम्मान था, पत्रकारों की कलम में जो ताकत थी, उनकी जो सोच थी, समाज के प्रति उनकी जो प्रतिबद्धता थी; आज की तुलना नहीं कर सकते हैं। आज सब कुछ बदल गया है। मालिकों की सोच बदल गयी है। कर्मचारियों की सोच बदल गयी है। लेकिन बाबूजी कहते थे: “अंतिम दम तक लड़ना सीखो, क्या पता अंतिम चाल में ही कामयाबी मिल जाय।” आज आर्यावर्त – इंडियन नेशन – मिथिला मिहिर अखबार बंद हो गया, नामोनिशान मिटा दिया पटना के फ़्रेज़र रोड पर। कुछ कर्मचारी भी दोषी थे, कुछ प्रबंधन भी, मालिक तो थे ही।
क्या एक्सप्रेस चुनाव प्रचार-प्रसार के लिए आया है पटना
2025 में होने वाली विधानसभा का चुनाव अपनी शुरूआती तारीख से 18 वीं संख्या की होगी। बिहार का पहला मुख्यमंत्री बने श्री कृष्ण सिन्हा (26 जनवरी, 1950 से 31 जनवरी, 1961) तक। इसके बाद आये दिप नारायण सिंह (1 फरवरी 1961 से 18 फरवरी 1961) तक। बिनोदानंद झा 18 फरवरी 1961 से 2 अक्टूबर 1963 तक मुख्यमंत्री कार्यालय में रहे। कृष्ण बल्लभ सहाय 2 अक्टूबर 1963 से 5 मार्च 1967, महामाया प्रसाद सिन्हा 5 मार्च 1967 से 28 जनवरी 1968, सतीश प्रसाद सिंह 28 जनवरी 1968 से 1 फरवरी 1968, बी.पी. मंडल 1 फरवरी 1968 से 22 मार्च 1968, भोला पासवान शास्त्री 22 मार्च 1968 से 29 जून 1968 / 22 जून 1969 से 4 जुलाई 1969 / 2 जून 1971 से 9 जनवरी 1972, सरदार हरिहर सिंह 29 जून 1968 से 26 फरवरी 1969, दारोगा प्रसाद राय 16 फरवरी 1970 से 22 दिसंबर 1970, कर्पूरी ठाकुर 22 दिसंबर 1970 से 2 जून 1971 / 24 जून 1977 से 21 अप्रैल 1979, केदार पांडे 19 मार्च 1972 से 2 जुलाई 1973, अब्दुल गफूर 2 जुलाई 1973 से 11 अप्रैल 1975, जगन्नाथ मिश्र 11 अप्रैल 1975 से 30 अप्रैल 1977 / 8 जून 1980 से 14 अगस्त 1983 / 6 दिसंबर 1989 से 10 मार्च 1990, राम सुन्दर दास 21 अप्रैल 1979 से 17 फरवरी 1980, चंद्रशेखर सिंह 14 अगस्त 1983 से 12 मार्च 1985, बिंदेश्वरी दुबे 12 मार्च 1985 से 13 फरवरी 1988, भागवत झा आज़ाद 14 फरवरी 1988 से 10 मार्च 1989 और सत्येंद्र नारायण सिन्हा 11 मार्च 1989 से 6 दिसंबर 1989 तक।
प्रदेश का चुनावी इतिहास इस बात का गवाही है कि कांग्रेस पार्टी को उखाड़ फेंकने के लिए बनी जनता पार्टी 1977 के चुनाव में जहाँ 214 स्थान प्राप्त की थी, वहीँ 1980 के चुनाव में 42 सीटों के साथ चौधरी चरण सिंह वाली सेकुलर जनता पार्टी सबसे बड़ी दूसरी पार्टी थे। उस चुनाव में सीपीआई को 23, भारतीय जनता पार्टी को 21, इंडियन कांग्रेस (यु) को 14, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा को 11, जनता पार्टी (जेपी) को 13, जनता पार्टी (राजनारायण) को एक तथा 23 निर्दलीय विधायक जीतकर विधान सभा पहुंचे थे। 1985 के चुनाव में भी कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर आयी थी जहाँ उसने 323 संख्या वाली विधान सभा में 196 सीटें प्रतप्त की थी जो बहुमत से अधिक थी। नौवां विधान सभा का कालखंड में डॉ. जगन्नाथ मिश्र 94 दिनों (6 दिसंबर, 1989 से 10 मार्च, 1990) के मुख्यमंत्री थे। प्रदेश के लोग इस बात से इंकार नहीं करेंगे 10 मार्च 1990 से प्रदेश रसातल की ओर उन्मुख हो गया।
सं 1951 में बिहार में बिहार में विधानसभा चुनाव की शुरुआत हुई थी। अन्य चुनावों की बात और परिणाम अगर छोड़ भी दें तो आज़ादी के बाद बिहार में पहली बार 1977 में कांग्रेस पार्टी बड़ी तरह परास्त हुई। उस कालखंड में विधानसभा के 324 सीटों में कांग्रेस पार्टी महज 57 सीटों पर सिमट गई। लेकिन जो भी पार्टी सरकार में आयी, वह पांच वर्ष पूरा नहीं कर पायी। परिणाम स्वरुप तीन वर्ष बाद 1980 में मध्यवर्ती चुनाव में कांग्रेस पार्टी 169 सीटों पर कब्ज़ा कर पूर्ण बहुमत के साथ सर्कार भी बनायीं। वैसे 1980 से पहले प्रदेश में दो बार मध्यवर्ती चुनाव हुआ था। पहला चुनाव संपन्न हुआ था 1969 में और दूसरा 1972 में। सन 1969 में कांगेस को 118 स्थान मिले थे जबकि सं 1972 के मध्यवर्ती चुनाव में कांग्रेस पार्टी को 318 सीटों में से 167 स्थान मिले थे।
बिहार में अख़बारों का इतिहास
इसी बहाने आनंद वर्धन लिखित बिहार में अख़बारों के जन्म और मृत्यु को भी देखते चलते हैं। 19वीं सदी के उत्तरार्ध से, बिहार ने भारतीय प्रेस के स्थिर विकास में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। बिहार के प्रेरित और उद्यमी पुरुषों द्वारा स्थापित और स्वामित्व वाले तथा प्रांत से संचालित समाचार प्रकाशन, ब्रिटिश शासन के तहत बिहार की यात्रा का हिस्सा थे। स्वतंत्रता के कुछ दशक बाद भी यह ऐसा ही रहा। विद्वानों और शोधकर्ताओं ने बिहार के प्रेस के लंबे इतिहास में कुछ पहलुओं को तलाशने की कोशिश की है। बिहार सरकार और केंद्र सरकार के तत्वावधान में किए गए दो आधिकारिक अध्ययन बिहार में समाचार प्रकाशनों के विकास पर जानकारी के उपयोगी स्रोत हैं: एन कुमार की जर्नलिज्म इन बिहार (बिहार राज्य गजेटियर, बिहार सरकार, 1971 के पूरक के रूप में) और जे नटराजन की हिस्ट्री ऑफ इंडियन जर्नलिज्म (प्रेस आयोग, प्रकाशन विभाग, 1954 की रिपोर्ट का दूसरा भाग)। हाल के वर्षों में, इतिहासकार सुमिता सिंह ( भारतीय इतिहास कांग्रेस की कार्यवाही , खंड 73, 2012) और मीडिया आलोचक सेवंती निनान ( हेडलाइंस फ्रॉम द हार्टलैंड , 2007) ने भी बिहार में समाचार प्रकाशन के शुरुआती चरणों पर उपयोगी सामग्री खोजी है। विभिन्न स्रोतों से बिहार में प्रेस के विकास में मील के पत्थर की रूपरेखा उभरती है।
आधुनिक इतिहास में, बिहार में पहला ज्ञात समाचार प्रकाशन 1856 तक का माना जा सकता है। उससे पहले, जैसा कि बिहार रिसर्च सोसाइटी के जर्नल में उल्लेख किया गया है , 1850 में शाह कबीरुद्दीन अहमद द्वारा एक प्रिंटिंग प्रेस स्थापित की गई थी। हालाँकि, इसका उपयोग समाचार पत्र प्रकाशित करने के लिए नहीं किया गया था।
यह पहला अख़बार ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए प्रकाशित किया गया था। उस समय पटना के कमिश्नर विलियम टेलर ने 3 सितंबर, 1856 को उर्दू अख़बार अख़बार-ए-बिहार का प्रकाशन शुरू करने की पहल की। बिहार को अपना पहला अख़बार देखने में 16 साल लग गए, जिसे क्षेत्र के शिक्षित लोगों के बीच अच्छी खासी पाठक संख्या मिली। 1872 में, बालकृष्ण भट्ट और केशवराम भट्ट द्वारा स्थापित एक हिंदी अख़बार बिहार बंधु ने कलकत्ता से प्रकाशन शुरू किया, लेकिन 1874 में इसे पटना ले जाया गया। मुंशी हसन अली इसके पहले संपादक थे। पटना में एक उचित बिहार-आधारित अख़बार बनने के बाद, बिहार बंधु ने कानूनी अदालतों में हिंदी की शुरूआत के लिए एक सफल अभियान शुरू किया। अगले दशकों में अलग-अलग संपादकों के तहत, अख़बार ने 20वीं सदी के दूसरे दशक तक अपनी यात्रा जारी रखी। जिस साल बिहार में पहला हिंदी अख़बार शुरू हुआ, उसी साल पहला अंग्रेज़ी अख़बार भी शुरू हुआ। बिहार हेराल्ड की स्थापना 1872 में हुई थी। इसका संपादन गुरु प्रसाद सेन ने किया और 1900 में अपनी मृत्यु तक वे इस पद पर बने रहे। हालाँकि, यह अख़बार बिहार में रहने वाले बंगालियों के हितों पर केंद्रित था और इसलिए इसकी कवरेज बहुत व्यापक नहीं थी।
अगले दो दशकों के दौरान, बिहार में तीन नए अंग्रेजी अख़बारों ने अलग-अलग वर्षों में अपनी यात्रा शुरू की: इंडियन क्रॉनिकल (1881), बिहार टाइम्स (1894), और बिहार गार्जियन (1899)। इनमें से, बिहार टाइम्स ने बंगाल प्रांत से बिहार को अलग करने के एक दृढ़ समर्थक के रूप में अपनी पहचान बनाई। बिहार टाइम्स की स्थापना 1894 में सचिदानंद सिन्हा ने की थी, जब वे अपनी यूनिवर्सिटी की पढ़ाई पूरी करने के बाद इंग्लैंड से लौटे थे। उनके साथ उनके समकालीन महेश नारायण, विशेश्वर सिंह, सालिग्राम सिंह, महावीर सहाय और नंद किशोर लाल भी थे। महेश नारायण इसके पहले संपादक थे और 1907 में अपनी मृत्यु तक उन्होंने इसका संपादन किया। सचिदानंद सिन्हा उस समय बिहार से एक महत्वपूर्ण बौद्धिक आवाज़ थे, और उन्होंने अखबार का समर्थन किया। राष्ट्रीय आंदोलन में एक बेहद सम्मानित व्यक्ति, उन्होंने भारत की संविधान सभा के पहले अध्यक्ष की अस्थायी जिम्मेदारी संभाली, इससे पहले कि एक और प्रतिष्ठित बिहारी, डॉ राजेंद्र प्रसाद, संविधान सभा के पूर्णकालिक अध्यक्ष के रूप में उनकी जगह लेते। बिहार टाइम्स ने बंगाल प्रांत से बिहार को अलग करने के लिए एक संपादकीय अभियान चलाया, और इस मांग की पत्रकारीय अभिव्यक्ति में इसकी भूमिका का उल्लेख इतिहासकार सुमिता सिंह ने अलग बिहार के निर्माण में प्रेस की भूमिका (2012) में किया है। 19वीं सदी के आखिरी सालों और 20वीं सदी की शुरुआत में बिहार में जातिगत संबद्धता के आधार पर एक अलग तरह का प्रकाशन भी देखा जा सकता था। हालाँकि, वे मूल रूप से सामुदायिक समाचार पत्र थे, समाचार पत्र नहीं, और इसमें पटना से कायस्थ गजट (1889) , गया से कायस्थ मैसेंजर, क्षत्रिय समाचार, भूमिहार ब्राह्मण पत्रिका, तेली समाचार और रौनियार वैश्य शामिल थे ।
1906 में बिहार टाइम्स ने अपना नाम बदलकर बिहारी रख लिया । उसी साल बिहार गार्जियन ने अपना नाम बदलकर बिहारी रख लिया । दिलचस्प बात यह है कि इन दोनों अख़बारों ने अदालत के आदेश के बाद अपने नए नामों की अलग-अलग स्पेलिंग तय कर ली। नया नाम बिहारी ज़्यादा दिन तक नहीं चल सका और कुछ ही सालों में बंद हो गया। बिहारी का प्रकाशन सच्चिदानंद सिन्हा के साथ-साथ सैयद हसन इमाम के संपादकीय के तहत हुआ। 1913 में जब यह दैनिक बना तो इसके संपादक महेश्वर प्रसाद थे। लेकिन यह इस रूप में सिर्फ़ चार साल ही चला और 1917 में बंद हो गया।

हालांकि, एक साल बाद ही सचिदानंद सिन्हा ने पटना से एक और समाचार प्रकाशन शुरू करके इस कमी को पूरा किया, अंग्रेजी समाचार द्विसाप्ताहिक, सर्चलाइट । 1920 में यह त्रैमासिक और फिर 1930 में दैनिक बन गया। सर्चलाइट की शुरुआत के प्रयासों में कई लोगों ने सहयोग किया , जिसका आधार एक प्रगतिशील राष्ट्रवादी संपादकीय दृष्टिकोण था, जिसमें डॉ राजेंद्र प्रसाद भी शामिल थे, जो अखबार के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। सैयद हैदर हुसैन और महेश्वर प्रसाद सर्चलाइट के पहले दो संपादक थे, लेकिन बाद के वर्षों में सीआर सौम्याजुलु और एस रंगा अय्यर जैसे संपादकों के उत्तराधिकार ने अखबार का संपादन किया। इसके शुरुआती कुछ दशकों में मुरली मनोहर प्रसाद इसके सबसे लंबे समय तक संपादक रहे। बाद में, के रामाराव, एम शर्मा, डीके शारदा, टीजेएस जॉर्ज, एससी सरकार, एसके राव और आरके मक्कड़ पटना में इसके संपादकीय कार्यालय के प्रमुख रहे।
1930 में, बिहार को प्रांत में एक नया अंग्रेजी समाचार पत्र मिला, इंडियन नेशन । इसकी स्थापना दरभंगा के महाराजा ने की थी, जो आंशिक रूप से बिहार के मिथिला क्षेत्र पर अख़बार के अधिक ध्यान को समझाता है। यह इसके कर्मचारियों की संरचना में भी स्पष्ट था, क्योंकि कर्मचारियों का एक बड़ा हिस्सा मिथिला क्षेत्र से था। 1941 में, इंडियन नेशन को दैनिक आर्यवर्त के रूप में एक सहयोगी हिंदी प्रकाशन भी मिला । आज़ादी के बाद लगभग चार दशकों तक इन दैनिकों ने बड़े राष्ट्रीय अख़बारों की व्यापक पहुँच और संसाधनों के मुक़ाबले अपनी स्थिति बनाए रखी। ख़ास तौर पर, सर्चलाइट की रिपोर्ट्स की चर्चा उच्च पदों पर बैठे भ्रष्टाचार के खिलाफ़ होती थी, कभी-कभी तो हद से भी आगे निकल जाती थी। 1960 के दशक में, बिहार की केबी सहाय के नेतृत्व वाली सरकार में भ्रष्टाचार और सरकार की ज्यादतियों के खिलाफ़ रिपोर्ट्स के कारण इसके संपादक टीजेएस जॉर्ज को जेल जाना पड़ा। यहां तक कि इसका हिंदी प्रकाशन, प्रदीप , 1970 के दशक के आरंभ में भ्रष्टाचार विरोधी जेपी आंदोलन के दौरान समाचार का सबसे अधिक मांग वाला स्रोत था।
हालाँकि, 1980 के दशक के उत्तरार्ध में परिदृश्य बदल गया। इस समय, बिड़ला समूह ने सर्चलाइट और प्रदीप का अधिग्रहण कर लिया था । हालाँकि, इसने पटना में उनके संपादकीय कामकाज और सामग्री निर्माण में कोई छेड़छाड़ नहीं की। फिर 1986 में, बिड़ला समूह ने फैसला किया कि अब उनके राष्ट्रीय अखबारों – हिंदुस्तान टाइम्स और हिंदुस्तान – के लिए बिहार मीडिया बाजार में प्रवेश करने का समय आ गया है। अपने राष्ट्रीय अखबारों के लिए रास्ता बनाने के लिए, सर्चलाइट और प्रदीप को पूरी तरह से बंद कर दिया गया। अंग्रेजी समाचार पत्र क्षेत्र में अग्रणी टाइम्स ऑफ इंडिया ने भी शीघ्र ही इसका अनुसरण किया और 1980 के दशक के अंत में पटना संस्करण शुरू किया। इसी समय, इंडियन नेशन और आर्यवर्त को अपने सीमित फोकस, घटती पाठक संख्या और यूनियन हड़तालों के कारण समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। प्रिंट उत्पादन के तकनीकी उन्नयन में निवेश करने में उनकी विफलता ने उनकी परेशानियों को और बढ़ा दिया। विज्ञापन राजस्व में ठहराव या गिरावट ऐसे कारकों का संचयी प्रभाव था। इंडियन नेशन किसी तरह 90 के दशक में चलता रहा, लेकिन बीच-बीच में छपने के बाद दशक के अंत में बंद हो गया। आर्यावर्त भी बंद हो गया।
1990 के दशक के प्रारंभ में, विद्वान अरविंद एन दास ने अपनी पुस्तक, द रिपब्लिक ऑफ बिहार (पेंगुइन, 1992) में इन परिवर्तनों का उल्लेख किया था। उन्होंने लिखा: “शहर में लंबे समय से एक समृद्ध प्रेस का बोलबाला रहा है। अब हालांकि सर्चलाइट और प्रदीप जैसे प्रमुख स्थानीय समाचारपत्रों को विशाल हिंदुस्तान टाइम्स और हिंदुस्तान के रूप में राष्ट्रीय मीडिया प्रतिष्ठान में शामिल कर लिया गया है , लेकिन इंडियन नेशन , आर्यावर्त और बिहार हेराल्ड जैसे अन्य समाचारपत्रों की मृत्यु हो गई है , लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे नए और बड़े प्रकाशन राज्य में सामने आए हैं।” हालांकि, यह भी सवाल है कि 1980 के दशक के बाद से राष्ट्रीय मीडिया को बिहार की ओर क्या आकर्षित करने लगा। दास और मीडिया आलोचक सेवंती निनान की किताबों ने इसका जवाब देने की कोशिश की है। दास ने कहा, “यह आश्चर्य की बात नहीं है कि बिहार, जो कि प्रति व्यक्ति आय में बहुत कम है, में समाचार पत्रों का संयुक्त प्रसार मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों से कहीं अधिक है।”
पंद्रह साल बाद, निनान ने बिहार के अख़बार बाज़ार में बड़े मीडिया खिलाड़ियों के निवेश के बारे में अपने तर्क में उसी संभावना को पहचाना। हेडलाइंस फ्रॉम द हार्टलैंड में , निनान ने लिखा: “भारत के सबसे पिछड़े राज्य के रूप में अपनी छवि के बावजूद, बिहार एक अख़बार के लिए एक अच्छा निवेश था। यहाँ की आबादी राजनीतिक रूप से जागरूक थी, भले ही साक्षरता कम थी। और प्रेषण और कृषि संपदा के कारण, राज्य में बहुत सारा पैसा था जिसका दोहन किया जा सकता था।” यहाँ, यह देखना भी दिलचस्प है कि दास ने किस तरह एक दुष्चक्र की ओर इशारा किया जिसने 1980 और 1990 के दशक में बिहार के प्रमुख अखबारों को आर्थिक रूप से कमज़ोर कर दिया था। स्थिर विज्ञापन राजस्व के कारण उनके पास प्रिंट उत्पादन तकनीक में निवेश करने के लिए बहुत कम पैसे बचे थे, और उनके संचालन की पुरानी तकनीक ने उन्हें संभावित विज्ञापनदाताओं के लिए आकर्षक नहीं बनाया। दास ने यह भी तर्क दिया कि पाठकों की कम क्रय शक्ति विज्ञापनदाताओं के उदासीन दृष्टिकोण का कारण है। दास ने तर्क दिया, “जबकि प्रसार में वृद्धि हुई है, विज्ञापन आनुपातिक रूप से नहीं बढ़े हैं…नतीजतन, मुद्रण तकनीक या प्रकाशन गुणवत्ता में बहुत कम सुधार हुआ है। इसलिए, उदाहरण के लिए, रंगीन मुद्रण की कोई सुविधा नहीं है – उच्च श्रेणी के विज्ञापन के लिए एक आवश्यक आवश्यकता जो प्रकाशन के लिए आवश्यक सब्सिडी प्रदान करती है।”
पाटलिपुत्र टाइम्स जैसे अख़बार को नए सिरे से शुरू करने के छिटपुट प्रयास भी लंबे समय तक नहीं चल पाए। अभी भी कई हिंदी दैनिक और अविनाश चंद्र मिश्रा की राजनीतिक समाचार पत्रिका, समकालीन तापमान (1997 में स्थापित) जैसी पत्रिकाएँ हैं, जो क्षेत्रीय समाचार क्षेत्र में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही हैं। पटना में स्थित कुछ उर्दू समाचार प्रकाशनों को राज्य में अभी भी सीमित पाठक मिल रहे हैं। हालाँकि, पटना स्थित हिंदी और उर्दू प्रकाशन अब उस पहुंच और प्रभाव के आसपास भी नहीं हैं जो बिहार स्थित समाचार प्रकाशनों के पास हुआ करता था। राज्य से मीडिया उद्यम प्रयास स्पष्ट रूप से स्थानीय टेलीविजन समाचार चैनलों या डिजिटल स्पेस में स्थानांतरित हो गए हैं। डिजिटल उपस्थिति को राज्य की राजधानी में स्थित विशेष रूप से ऑनलाइन समाचार प्लेटफार्मों के प्रसार में देखा जा सकता है।
1990 के दशक के मध्य में जब बिहार में चारा घोटाला उजागर हुआ था, तब राष्ट्रीय समाचार पत्रों के पटना संस्करण ने इस पर पूरी दिलचस्पी से काम नहीं किया था। रांची स्थित क्षेत्रीय दैनिक प्रभात खबर ने इसके विभिन्न चरणों, जिसमें केंद्रीय जांच ब्यूरो की जांच भी शामिल थी, पर काम किया। उस समय यह एक बहुत ही लोकप्रिय अखबार था। कोई भी व्यक्ति आश्चर्य में पड़ सकता है कि क्या बिहार का कोई प्रमुख दैनिक अखबार इस घिनौनी कहानी को बता सकता था। पटना का कोई भी प्रमुख अखबार इस कहानी को बताने के लिए बच नहीं पाया।