नई दिल्ली : सात वर्ष पहले अगस्त 31, 2018 को आर्यावर्तइण्डियननेशन.कॉम पर भारत के शहरों में लाखों-लाख की तायदात में कूड़ा-कचड़ा उठाने वाले असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों पर एक कहानी किया था। कहानी के दौरान एक कचड़ा बीनने वाला कहा था: “हम बोरियां खोलते हैं और अख़बारों में गंदे सेनेटरी नैपकिन होते हैं, पॉलीथीन में मानव मल, ग्लास, सिरिंज बंधे होते हैं। हमें संक्रमण होता है। सड़ा हुआ भोजन हमें बीमार बना देता है। लेकिन हमारे पास कोई पेंशन नहीं है, कोई मान्यता नहीं, कोई मेडिकल सुविधाएं नहीं हैं। जब एक परिवार में मुख्य कमाऊ सदस्य बहुत बीमार हो जाता है, तो उसे ठीक होने के लिए फौरन गांव भेज दिया जाता है। वे आरोप आरोप लगाए थे कि सरकारी अस्पताल उनका इलाज नहीं करना चाहते हैं और महंगा अस्पताल चुनने का विकल्प उनके पास नहीं है।”
सात साल बाद, 2025 के पर्यावरण दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार की “सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने नई दिल्ली में नमस्ते योजना के तहत कचरा बीनने वालों की प्रोफाइलिंग हेतु एक राष्ट्रव्यापी डिजिटल एप्लीकेशन – वेस्ट पिकर एन्यूमरेशन ऐप – लॉन्च करके पर्यावरणीय न्याय एवं श्रमिकों की गरिमा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराई। नेशनल एक्शन फॉर मैकेनाइज्ड सैनिटेशन इकोसिस्टम (नमस्ते) वर्तमान में सक्रिय एक केंद्रीय क्षेत्र की योजना है, जिसे सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय तथा आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय (एमओएचयूए) द्वारा संयुक्त रूप से क्रियान्वित किया जा रहा है।”
यह अलग बात है कि ‘आज भारत में कचड़ा व्यवसाय का कॉर्पोरेटाइजेशन हो गया है। कूड़ा उठाने के लिए ठेका दिया जाता है जो करोड़ों, अरबों में है और इसके स्वामी या ठेकेदार ‘कूड़ा बिकने वाले समुदाय से नहीं है’ – बड़े-बड़े व्यापारी, उच्च जाति के लोग, सक्षम लोग, सत्ता के गलियारों में अपनी उपस्थिति दर्ज किये लोग हैं। एयर यह एक गहन शोध का विषय है।
अगर देश में सामाजिक क्षेत्र के संस्थान इस विषय पर गहन शोध कराएं (वैसे कई दस्तावेज प्रकाशित भी हैं) तो भारत में कूड़ा बीनने वालों का एक विशाल समुदाय है । एक अनुमान के मुताबिक उनकी संख्या 15 लाख से 40 लाख के बीच है। ये लोग कूड़ा इकट्ठा करते हैं। फिर से इस्तेमाल में लाए जा सकने वाले सामानों की छंटनी करते हैं और उसे बेच कर जीवन यापन करते हैं। इससे वे भारत में सालाना उत्पन्न 620 लाख टन कूड़े को साफ करने में हमारी मदद करते हैं हालांकि कूड़ा बीनना पूरी तरह से एक अव्यवस्थित क्षेत्र है।
लेकिन विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर कचरा बीनने वालों को शामिल करने के साथ, नमस्ते का लक्ष्य अब 2.5 लाख व्यक्तियों की गणना करना है और उन्हें औपचारिक पहचान, सामाजिक सुरक्षा, कौशल विकास एवं सामूहिक सशक्तिकरण प्रदान करना है। यह ऐतिहासिक कदम औपचारिक रूप से कचरा बीनने वालों को भारत की चक्रीय अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग के रूप में मान्यता देता है और इसका लक्ष्य इन श्रमिकों को कामकाज की सुरक्षित परिस्थितियां, अधिकारों तक बेहतर पहुंच और दीर्घकालिक आजीविका सुरक्षा प्रदान करना है।
इस योजना का उद्देश्य है – कचरा बीनने वालों को पेशेवर फोटो पहचान पत्र जारी करना, आयुष्मान भारत (पीएम-जेएवाई) के तहत स्वास्थ्य बीमा प्रदान करना, पीपीई किट, कौशल विकास और पूंजीगत सब्सिडी सुलभ कराना और 750 सूखा कचरा संग्रह केन्द्रों (डीडब्ल्यूसीसी) का प्रबंधन करने हेतु कचरा बीनने वालों के समूहों को मजबूत करना।
कचरा बीनने वालों को औपचारिक शहरी प्रणालियों में मान्यता देकर और उन्हें शामिल करके, भारत सरकार एक अधिक समावेशी, न्यायसंगत एवं पर्यावरण के अनुकूल स्वच्छता संबंधी इकोसिस्टम के निर्माण की दिशा में एक कदम उठा रही है। इस कार्यक्रम के दौरान, कचरा बीनने वालों की गणना संबंधी ऐप के औपचारिक शुभारंभ के साथ-साथ दो प्रमुख ‘ज्ञान’ उत्पाद भी जारी किए हैं। यह सभी बातें कॉर्पोरेटाइजेशन का हिस्सा मान सकते हैं। खैर।
उधर पर्यावरण दिवस पर ही बुलंदशहर में ‘नमामि गंगे मिशन’ के योजना के तहत केंद्रीय जल शक्ति मंत्री सी.आर. पाटिल ने इस बात पर जोर दिया कि गंगा जैसी नदियों को हमारी संस्कृति में ‘मां’ के रूप में पूजा जाता है, इसलिए उनका संरक्षण एक समर्पण और जिम्मेदारी का कार्य है। उन्होंने प्लास्टिक प्रदूषण को सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक बताया और प्रदूषण को उसके स्रोत पर ही रोकने, प्लास्टिक के उपयोग को खत्म करने और जन जागरूकता बढ़ाने की तत्काल आवश्यकता पर बल दिया।
उन्होंने नदी की सफाई और संरक्षण में गंगा प्रहरियों की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित किया और प्रदूषण फैलाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई पर जोर दिया। नदी के इकोसिस्टम में सुधार के प्रमाण के रूप में जलीय जीवन की उपस्थिति की ओर इशारा करते हुए उन्होंने प्राकृतिक कृषि पद्धतियों पर जोर दिया, जिससे रासायनिक उर्वरकों का उपयोग कम हो और मिट्टी और पानी दोनों की गुणवत्ता सुरक्षित रहे। उन्होंने गंगा की सहायक नदियों के संरक्षण के लिए सरकार की प्रतिबद्धता की भी पुष्टि की और इस बात पर जोर दिया कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक स्थायी भविष्य सुनिश्चित करने के लिए ये प्रयास महत्वपूर्ण हैं। राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन के महानिदेशक राजीव कुमार मित्तल ने इस बात पर जोर दिया कि गंगा और उसकी सहायक नदियों का संरक्षण एक साझा जिम्मेदारी है, जो हमारी सांस्कृतिक विरासत की रक्षा करती है और भावी पीढ़ियों के लिए स्वच्छ जल सुनिश्चित करती है।
/नमामि गंगे/ कार्यक्रम ने नदी संरक्षण में ऐतिहासिक परिवर्तन किया है, जिसके तहत जल संसाधनों और इकोसिस्टम को पुनर्जीवित करने के लिए देश भर में लगभग 500 परियोजनाओं में 40,000 करोड़ रुपये से अधिक का निवेश किया गया है। उन्होंने प्रदूषण के हॉटस्पॉट का पता लगाने के लिए ड्रोन सर्वेक्षण और जलीय जैव विविधता की रक्षा में प्राकृतिक नदी प्रवाह को बनाए रखने के लिए ई-फ्लो नोटिफिकेशन जैसी आधुनिक तकनीकों की महत्वपूर्ण भूमिका पर ध्यान दिलाया। मित्तल ने जोर देकर कहा कि नमामि गंगे एक जन आंदोलन के रूप में विकसित हो चुका है, जिसमें रिवर सिटीज अलायंस जैसे मंचों के माध्यम से 145 से अधिक शहरों की सक्रिय भागीदारी है।
बहरहाल, शहरों में, चाहे लोग संकीर्ण गलियों में रहते हों या रियल इस्टेट के मालिकों द्वारा बनाये गए गगनचुम्बी अट्टालिकाओं में – प्याज के छिलके से लेकर, दो दिन पहले बनी दुर्गन्धित दाल से लेकर, महिलाओं द्वारा माहवारी में इस्तेमाल किये गए नैपकिन पैड, जिसे काले पन्नी में बांधकर, डस्ट बिन में छोड़कर दफ्तर चले जाते हैं और फिर मुहल्ले के कुत्ते उसे नोचकर सभी कूड़े को फैला देता हैं – फिर कूड़ा बिनने वाला पुरुष या महिला अपने हाथों से उठाकर ले जाते है और उसके बदले कूड़ा बिकने वालों को प्रत्येक माह 50 रुपये से 100 रुपये तक देते हैं; जिससे उसका जीवन, उसके परिवार का जीवन यापन होता है – स्वच्छ भारत अभियान के तहत सबसे करारी लात उसके पेट पर पड़ी है।
स्वच्छ भारत अभियान के तहत आपके घरों से, उन भवनों, अट्टालिकाओं के सामने से अब ट्रैक्टर से कूड़ा उठाया जाता है। ट्रैक्टर पर पूर्व रिकार्डेड अपील बार-बार, लगातार सुनाया जाता है – “प्रधान मंत्री से स्वच्छ भारत अभियान में आप अपना भरपूर सहयोग करें। आपके दरवाजे पर कूड़ा लेने आया है। कूड़ा उसी में फेंकें।”लेकिन कभी आपने सोचा है कि आपके दरवाजे या गगनचुम्बी अट्टालिकाओं के द्वार से जो कूड़ा ट्रैक्टर में उठाया जा रहा है वह कितने मूल्य का ठेका है?
आपने कभी सोचा की इस ठेके का स्वामी कौन है? आपने कभी सोचा की दसकों से जो कूड़ा बिकने वाला आपके दरवाजे से कूड़ा उठाकर ले जाता था और आपके दिए पैसे से उसका परिवार दो वक्त की रोटी खाता था, उस पैसे से उसके बच्चे स्कूल पढ़ने जाते थे, आपके दिए पैसे से पर्व-त्योहारों में उसके चेहरे पर रौनक आता था, आपको कितनी दुआएं देता था – आज ऐसा नहीं है।आज कूड़ा का कॉर्पोरेटाइजेशन हो गया है। कूड़ा उठाने के लिए ठेका दिया जाता है जो करोड़ों में है और अरबों में है और इसके स्वामी या ठेकेदार ‘कूड़ा बिकने वाले समुदाय से नहीं है’ – बड़े-बड़े व्यापारी, उच्च जाति के लोग, सक्षम लोग, सत्ता के गलियारों में अपनी उपस्थिति दर्ज किये लोग हैं।
भारत में कूड़ा बीनने वालों का एक विशाल समुदाय है । एक अनुमान के मुताबिक उनकी संख्या 15 लाख से 40 लाख के बीच है। ये लोग कूड़ा इकट्ठा करते हैं। फिर से इस्तेमाल में लाए जा सकने वाले सामानों की छंटनी करते हैं और उसे बेच कर जीवन यापन करते हैं। इससे वे भारत में सालाना उत्पन्न 620 लाख टन कूड़े को साफ करने में हमारी मदद करते हैं हालांकि कूड़ा बिनना पूरी तरह से एक अव्यवस्थित क्षेत्र है। यहां इस बात को मापना कठिन है कि इस तरीके से कितना कचरा एकत्र किया गया है। लेकिन उसके मोटे तौर पर कुछ संकेतक हैं – भारत में उत्पन्न कचरे का केवल 75-80 फीसदी नगरपालिका निकायों द्वारा एकत्र किया जाता है और 90 फीसदी से अधिक भारत के पास उचित अपशिष्ट निपटान प्रणाली नहीं है।
इस प्रकार काफी कचरा अनौपचारिक रूप से कूड़ा बिनने वालों द्वारा इकट्ठा किया जाता है। कचरा प्रबंधन योजनाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले इन कूड़ा बीनने वाले लोगों के पास न तो कोई रोजगार सुरक्षा है, न ही इस पेशे से जुड़ी कोई गरिमा और न ही काम के दौरान खतरों से निपटने का कोई सामान। उनके स्वास्थ्य पर हमेशा जोखिम बना रहता है। उन पर संक्रमण, सांस की बीमारियों और तपेदिक जैसी बीमारी होने का खतरा तो रहता ही है, साथ ही उन्हें गरीबी, अपमान और उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता है। कचरा बिनने वाले के बच्चे भी अक्सर उसी व्यवसाय में जाते हैं और शायद ही कभी स्कूल जा पाते हैं। सरकार का व्यवहार भी उनके साथ अलग नहीं है। कूड़ा बिनने वालों के लिए समावेशी अधिकार, स्वास्थ्य लाभ, सेफ्टी गियर और सामाजिक सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है। आम तौर पर यदि नाप किसी कूड़ा बिकने वाले से बात करेंगे तो वह मूलतः दो राज्यों का होता है – एक पश्चिम बंगाल सुदूर इलाके से या फिर ओड़िसा और बांग्ला देश के।
अपनी कड़ी मेहनत से दो वक्त की रोटी कमा पाते हैं। लेकिन अब इस पर भी समस्या होने वाली है। 2015 में प्रकाश जावडेकर जब पर्यावरण मंत्री थे तब नई दिल्ली में कचरा प्रबंधन के एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था की यह अव्यवस्थित और अनौपचारिक क्षेत्र ने देश को बचाया है इसलिए उनके प्रयासों को पहचानने की जरुरत है इसलिए उन्हें नेशनल अवार्ड से नवाजेंगे। साथ ही, तीन कूड़ा बिनने वालों और कचरा प्रबंधन में शामिल तीन संगठनों को 150,000 रुपए का नकद पुरस्कार देंगे। परन्तु उन्हें न तो सम्मान मिला और न ही पुरस्कार। अलबत्ता स्वच्छ भारत अभियान के तहत घर-घर से कूड़ा-अचरा उठाने का ठेका समाज के संभ्रांतों को दिया गया और कूड़ा उठाने वालों को अपनी किस्मत पर रोने के लिए छोड़ दिया गया। पुलिस उत्पीड़न एक आम शिकायत है।
एक कचरा बीनने वाला कहता है, “हम बोरियां खोलते हैं और अखबारों में गंदे सेनेटरी नैपकिन होते हैं, पॉलिथीन में मानव मल, ग्लास, सिरिंज बंधे होते हैं। हमें संक्रमण होता है। सड़ा हुआ भोजन हमें बीमार बना देता है। लेकिन हमारे पास कोई पेंशन नहीं है, कोई मान्यता नहीं, कोई मेडिकल सुविधाएं नहीं हैं।” जब एक परिवार में मुख्य कमाऊ सदस्य बहुत बीमार हो जाता है, तो उसे ठीक होने के लिए फौरन गांव भेज दिया जाता है। वे आरोप लगाते हैं कि सरकारी अस्पताल उनका इलाज नहीं करना चाहते हैं और महंगा अस्पताल चुनने का विकल्प उनके पास नहीं है।आने वाले कुछ दशकों में भारत वर्तमान की तुलना में तीन गुन ज्यादा कचरा उत्पन्न करेगा। वर्ष 2030 तक 165 मिलियन टन और वर्ष 2050 तक 450 मिलियन टन। लेकिन वर्तमान में केवल एकत्रित 22-28 फीसदी कचरा संसाधित किया जाता है।
यह समस्या शहरों में विशेष रूप से बड़ी है। भारतीय शहरों में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन कचरा उत्पन्न दर 200 से 870 ग्राम के बीच है। यह दर बढ़ ही रही है। वर्ष 2001 और 2011 के बीच बढ़ती शहरी आबादी और प्रति व्यक्ति कचरा उत्पन्न में वृद्धि के परिणामस्वरूप भारतीय शहरों में कूड़े में 50 फीसदी की वृद्धि हुई है। सरकार इसे उपभोग के बदलते तरीकों और रहन सहन की आदतों में बदलाव से जोड़कर देख रही है।यह माना जाता है कि कूड़ा उत्पन्न करने वाले कूड़े को कूड़ेदान में डालेंगे। उसके बाद, नगरपालिका की यह जिम्मेदारी है कि वह उसे वहां से इकट्ठा करे और लैंडफिल में उसे उपचारित करे। हालांकि स्रोत से कचरा लेने के लिए नगरपालिका की जिम्मेदारी नहीं है। इसलिए इस अनौपचारिक क्षेत्र ने दूरी को भर दिया है।
वैसे, नई दिल्ली स्थित एक पर्यावरणीय गैर सरकारी संगठन ‘टॉक्सिक लिंक’ ने कचरा बीनने वालों को चार श्रेणी में बांटा है। एक तो वे हैं, जो बोरियों में खुले नाले और रेलवे डिब्बे से कचरा इकट्ठा करते हैं। दूसरे कबाडी वाले हैं, जो साइकिल से घरों पर जा कर बेकार सामान इकट्ठा करते हैं और फिर ग्लास, कागज और प्लास्टिक से बोतल अलग करते हैं। तीसरे वे हैं , जो तिपहिया वाहनों से आते हैं प्रत्येक दिन लगभग 50 किलो कचरा इकट्ठा करते हैं और उन्हें बेचने के लिए लंबी दूरी की यात्रा करते हैं। और अंत में वे जो स्क्रैप डीलर के रूप में काम करते हैं।
‘इंटरनेशनल आर्काइव ऑफ आक्यपेशनल एंड इन्वाइरन्मेन्टल हेल्थ’ से पता चलता है कि यह व्यवसाय इन कूड़ा बिनने वालों की जिंदगी में जहर घोल रहा है।जब भारत में कचरे का निपटान होता है, तो यह उन लोगों के लिए बहुत कठिन हो जाता है जो बाद में इसे संभालेंगे। उदाहरण के लिए गंदे डायपर और सेनेटरी नैपकिन दोनों को मेडिकल नजरिये से बेकार माना जाना चाहिए। जैव-चिकित्सा अपशिष्ट (प्रबंधन और हैंडलिंग) नियम- 1998 के अनुसार मल, रक्त, शरीर तरल पदार्थ के साथ किसी भी कचरे को अलग से उपचारित करना चाहिए। लेकिन आम तौर पर इन्हें एक ही कूड़ेदान में डाल दिया जाता है।
2015 में प्रकाश जावडेकर जब पर्यावरण मंत्री थे तब नई दिल्ली में कचरा प्रबंधन के एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था की यह अव्यवस्थित और अनौपचारिक क्षेत्र ने देश को बचाया है इसलिए उनके प्रयासों को पहचानने की जरुरत है इसलिए उन्हें नेशनल अवार्ड से नवाजेंगे। साथ ही, तीन कूड़ा बिनने वालों और कचरा प्रबंधन में शामिल तीन संगठनों को 150,000 रुपए का नकद पुरस्कार देंगे। मन्त्रीजी पर्यावरण से मानव संसाधन मंत्रालय में आ गए परन्तु उन्हें न तो सम्मान मिला और न ही पुरस्कार। अलबत्ता स्वच्छ भारत अभियान के तहत घर-घर से कूड़ा-अचरा उठाने का ठेका समाज के संभ्रांतों को दिया गया और कूड़ा उठाने वालों को अपनी किस्मत पर रोने के लिए छोड़ दिया गया। पुलिस उत्पीड़न एक आम शिकायत है।