बिहार का सत्यानाश (5) विशेष कहानी : कल ‘एक सांस’ में घोटालों की सूची गिनाये थे प्रधानमंत्री मोदी जी, दूसरी सांस में नीतीश कुमार चरण में लेट गए – हे प्रभु !! हे दीनानाथ !!! ये क्या हो गया !!!

डॉ. जगन्नाथ मिश्र (अब दिवंगत) 1990 में लालू यादव को बिहार सुपुर्द कर मुख्यमंत्री कार्यालय से बाहर निकले। यह कहा जाता है कि मिश्र से घोटाले के सभी गुण सीखे लालू यादव। शेष तो आप सभी जानते ही हैं कि पिछले 35 वर्षों में बिहार का क्या हश्र हुआ - सभी अपने-अपने हिस्से के 'विकास' को 'अपने-अपने घर ले गए

हार्डिंग पार्क (पटना) : बिहार के लोगों और मतदाताओं की बात छोड़िये, पटना के बासिन्दे और वे, जो आगामी चुनाव में अपने प्रदेश के भाग्य विधाताओं को चुनने के लिए हाथ की तर्जनी ऊँगली पर अमिट स्याही लगाएंगे, शायद अस्सी से अधिक फीसदी को ज्ञात नहीं होगा कि किस हाथ की तर्जनी पर अमिट स्याही लगाया जाता है और पटना का हार्डिंग पार्क या हार्डिंग रोड किसके नाम पर अंकित है? अगर इस कहानी को पढ़ते समय मन में तनिक भी संदेह हो रहा है तो सड़क पर निकलें, लोगों से पूछकर आजमा लें। 

इससे भी अधिक बिडम्बना की बात तब होगी जब दिल्ली में बिहार से पलायित लोगों से, मतदाताओं से, महिला-पुरुष दोनों से यह पूछेंगे कि दिल्ली सल्तनत के शाहजहानाबाद इलाके में जहां चहल कदमी करते हैं, सेल्फी लेते हैं, उनके उम्र से लम्बी चांदनी चौक सड़क पर वह कौन सा स्थान है, जो पटना के हार्डिंग पार्क और हार्डिंग रोड को एकबद्ध करता हैं। यक़ीन मानिए, सैकड़े नब्बे से अधिक फीसदी लोग दांत निपोड़ देंगे। इसमें तथाकथित राजनेताओं के साथ-साथ विद्यायकों और मंत्रियों को भी रख सकते हैं। खैर। 

चलिए स्वतंत्र भारत में, या फिर राजनीतिक-आर्थिक आज़ादी और भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए जयप्रकाश नारायण द्वारा पचास वर्ष पहले किए गए आंदोलन और उसके बाद, उस आंदोलन से निकले (अपवाद छोड़कर) भ्रष्ट, अकर्मण्य, विचारहीन, सामाजिक सरोकार से परे नेताओं और मुख्यमंत्रियों से संबंधित बिहार का सत्यानाश कहानी श्रृंखला के क्रम में यह बता दूँ कि पटना का हार्डिंग पार्क या हार्डिंग रोड भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड चार्ल्स हार्डिंग के नाम से अंकित है। चार्ल्स हार्डिंग बिहार को बंगाल से अलग कर एक पृथक राज्य का वजूद देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा किये थे। बिहार का सृजन 22 मार्च 1912 को हुआ था। 

आज 112 वर्ष बाद भी पटना की धरती पर चार्ल्स हार्डिंग ज़िंदा हैं, दिल्ली के चांदनी चौक सड़क के दाहिने तरफ बंगाल-बिहार विभाजन से सम्बन्धी चार्ल्स हर्डिंग के ऊपर फेंके गए बम्ब को इतिहास के पन्नों में दर्ज रहा गया है, लेकिन, अपवाद छोड़कर, श्रीकृष्ण सिंह और नितीश कुमार के बीच बिहार में ‘तथाकथित निर्माताओं’ के नाम पर हज़ारों शिलापट्ट सड़क के किनारे लिखे पड़े हैं (राजनीतिक लाभ उठाने के लिए), हकीकत में कोई एक भी नहीं हुए जो मतदाताओं के मुखमण्डल पर मुस्कान ला पाते। शब्द बहुत कटु है, लेकिन आने वाली नश्ल, मतदाता अगर आज की पीढ़ी से बेहतर हुए, विचारवां हुए, सामाजिक सरोकार से जुड़े हुए, तो शायद किसी को माफ़ नहीं करेगा। 

आइये चले हैं चांदनी चौक पर। दिल्ली के लाल किला के सामने बिहार ही नहीं, भारत के लोगों की उम्र से लंबी फतेहपुरी मस्जिद की ओर जाने वाली चांदनी चौक सड़क जब गली क़ासिम जान पहुँचती है, यानी ग़ालिब की हवेलिम के नुक्कड़ पर, तो दाहिने हाथ स्थित एक शिलापट्ट पर लिखा शब्द भी इस बात का गवाह है कि दिल्ली षड्यंत्र मुकदमा (दिल्ली कांस्पिरेसी केस) उसी स्थान पर हुआ था जब वायसराय लार्ड चार्ल्स हार्डिंग के काफिले पर उन्हें मारने के लिए बम्ब का प्रयोग हुआ था। यह अलग बात है कि उस स्थान पर दिल्ली के भिखाड़ी, बिहार और उत्तर प्रदेश से रोज़ी- रोज़गार के लिए पलायित मज़दूर अपने हुनर को बेचने के लिए पंतिबद्ध रहते हैं, साथ ही एकत्रित रहते है कबूतरों को दाना खिलाने वाले। लेकिन लिखे शब्दों को नहीं पढ़ते, चारा घोटाला के बाद भी सचेत नहीं हुए थे, मन आज हैं।  

उस दिन तारीख़ था 23 दिसंबर और 1912 साल। इसका वजह था तत्कालीन वायसराय लार्ड कर्जन द्वारा बंगाल का विभाजन किया गया था जिसकी घोषणा 19/20 जुलाई, 1905 को हुई थी और 16 अक्टूबर, 1905 से प्रभावी हुआ था।इतिहास में इसे बंगभंग के नाम से भी जाना जाता है। यह अंग्रेजों की ‘फूट डालो – शासन करो’ वाली नीति का ही एक अंग था। आज 120 साल बाद भी बिहार की राजनीतिक गलियारे में यह सिद्धांत जारी है – अपनों के बीच । 

बंगाल विभाजन को आधार मानकर भले दिल्ली के चांदनी चौक पर उनकी हत्या करने की साजिश की गयी, लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं  किया जा सकता है की चार्ल्स हार्डिंग के कालखंड में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार और भारतीय राष्ट्रवादियों के बीच संबंधों में काफी सुधार हुआ था । यह आंशिक रूप से 1909 भारतीय परिषद अधिनियम, जिसे हम सभी मार्ले-मिंटो सुधार के नाम से भी जानते हैं, दक्षिण अफ्रीका में भारतीय विरोधी आव्रजन अधिनियम की आलोचना और मोहनदास करमचंद गांधी द्वारा भारत में शुरू किए गए निष्क्रिय-प्रतिरोध आंदोलन के प्रति उनकी सहानुभूति भी था। खैर, आज अगर गाँधी की तस्वीर भारतीय मुद्राओं पर अंकित न हो तो शायद गांधी को भी पूछने वाला कोई नहीं होगा। सब यही कहते फिरेंगे – हम तो आज़ाद भारत में जन्म लिए। 

साल 1911 में ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली लाई गई। इस अवसर पर दिल्ली में कई दिनों तक भव्य आयोजन किया गया था। बंगाल के क्रांतिकारियों में गुस्सा इतना अधिक था कि उन्होंने वायसराय लार्ड हार्डिंग को मारने की योजना बनाई। राजधानी लाने के उपलक्ष्य में दिल्ली दरबार का आयोजन हुआ। किंग जॉर्ज पाँच आये। वायसराय लॉर्ड हार्डिंग की सवारी निकाली गई। जुलूस में घोड़े और हाथी पर सवार सशस्त्र सैनिक भी शामिल हुए। लार्ड हार्डिंग हाथी पर चल रहे थे। उनके ठीक आगे उनकी पत्नी, लेडी हार्डिंग बैठी थी। हाथी पर महावत के अलावा हार्डिंग का एक अंगरक्षक भी बैठा था। 

तारीख था 23 दिसंबर 1912 हार्डिंग का क़ाफ़िला चाँदनी चौक पहुंचा। इस दृश्य देखने के लिए काफ़ी लोग, महिला, पुरुष एकत्रित थे। महिलाओं के बीच बंगाल के क्रांतिकारी बसन्त कुमार विश्वास भी महिला के वेश में शामिल थे। मौक़ा मिलते ही उन्होंने वायसराय पर बम फेंक दिया। वाइसराय बेहोश होकर हाथी से नीचे गिर गए। बम के छर्रे से हार्डिंग की पीठ, पैर और सिर में काफी चोटें आयीं, लेकिन वे बच गए, महावत मारा गया था। जुलूस तितर-बितर हो गया। इसका फायदा उठाकर विश्वास और उनके साथी क्रांतिकारी वहां से भाग निकले।

बम फटने के बाद पुलिस ने क्रांतिकारियों की धर-पकड़ के लिए घेराबन्दी बढ़ा दी। चांदनी चौक के इलाके के संदेहास्पद घरों की तलाशी भी ली गई। फिर भी साथियों समेत बिस्वास पुलिस से बचकर बंगाल पहुंच गए। 26 फरवरी 1914 को अपने गाँव परगाछा में जब वे अपने पिता के आखिरी संस्कार में शामिल होने के लिए आए, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में  कलकत्ता के राजा बाजार इलाके में एक घर की तलाशी के दौरान पुलिस को इस षड्यंत्र में शामिल दूसरे क्रांतिकारियों से जुड़ी कुछ जानकारी मिली। इसके आधार पर मास्टर अमीर चंद, अवध बिहारी और भाई बालमुकुंद को बाद में गिरफ्तार किया गया। दिल्ली षड्यंत्र केस में तब 13 लोगों को पकड़ा गया था। 

कटरा नील : इस स्थान से दस कदम आगे चांदनी चौक में घटना हुए थी

दिल्ली षडयंत्र केस की ब्रिटिश सरकार ने जल्दबाजी में सुनवाई की और क्रांतिकारियों को सजा सुना दी गई। इसके तहत 8 मई 1915 को मास्टर अमीर चंद, भाई बालमुकुंद, मास्टर अवध बिहारी को दिल्ली में फांसी दे दी गई। आज भी पुराना फांसी घर दिल्ली सल्तनत के बीचो बीच है, लेकिन दिल्ली के तक़रीबन 95 फीसदी लोग बाग़ उस स्थान के बारे में नहीं जानते हैं, देखे हैं। क्रांतिकारी बसंत कुमार विश्वास को 11 मई 1915 को अंबाला की सेंट्रल जेल में फांसी पर लटका दिया गया। इसी केस में 31 मार्च 1916 को हवलदार जलेश्वर सिंह को, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सदस्य मंसा सिंह को 6 अप्रैल 1931 के साथ ही, शफीक अहमद को 20 मई 1940 को मौत की सजा दी गई। दिल्ली षडयंत्र केस में 1944 में छत्तर सिंह, नजर सिंह, अजायब सिंह, सतेंद्र नाथ मजूमदार, जहूर अहमद और दरोगा मल को भी फांसी दी गई। इसी मामले में अभियुक्त बनाए गए केसरी चंद्र शर्मा को दिल्ली में 3 मई 1945 को फांसी दी गई थी।

ये भी पढ़े   बिहार में 'कर्पूरी डिवीजन' Vs नीतीश कुमार एंड कंपनी का भूमिगत तरीके से महिला शिक्षा विरोधी पहल (​विशेष कहानी:भाग-4)

आइये, फिर वापस चलते हैं पटना जहां का हार्डिंग पार्क, जिसे आज शहीद वीर कुंवर सिंह आजादी पार्क के नाम से जाना जाता है। यह पार्क 1916 में बनाया गया था। पार्क को वायसराय चार्ल्स हार्डिंग का नाम मिला क्योंकि उन्होंने बिहार को एक अलग प्रांत के रूप में बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कहते हैं 28 सितंबर 1913 को, पटना में एक पार्क की डिजाइन और स्थापना के लिए राज्य अधिकारियों द्वारा हार्डिंग मेमोरियल समिति का गठन किया गया था। 8 सितंबर 1915 को पटना कलेक्टर और हार्डिंग मेमोरियल समिति के बीच अनुदान का एक विलेख हस्ताक्षरित किया गया था। पार्क को आधिकारिक तौर पर 31 जनवरी 1916 को बिहार और उड़ीसा के तत्कालीन लेफ्टिनेंट-गवर्नर एडवर्ड अल्बर्ट गेट द्वारा जनता के लिए खोला गया था। यह पार्क 1921 में पटना यात्रा के दौरान तत्कालीन प्रिंस ऑफ वेल्स – एडवर्ड VIII के लिए गार्डन पार्टी का स्थान भी था। पार्टी का आयोजन बिहार लैंडहोल्डर्स एसोसिएशन द्वारा दरभंगा के महाराजा के नेतृत्व में किया गया था।

यहाँ हम वायसराय चार्ल्स हार्डिंग की बात इसलिए करना चाहा कि आज बिहार के निर्माण के 113 वर्ष और वायसराय चार्ल्स हार्डिंग की मृत्यु के 81 वर्ष (जन्म: 20 जून, 1858 मृत्यु: 2 अगस्त, 1944) बाद आज भी वायसराय चार्ल्स हार्डिंग जीवित हैं – हार्डिंग रोड और हार्डिंग पार्क के रूप में पटना में। लेकिन प्रथम विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री कार्यालय में बैठे श्रीकृष्ण सिंह से लेकर वर्तमान में तथाकथित ‘सुशासन कुमार’ के अन्य साथ-साथ लालू प्रसाद यादव, उनकी पत्नी राबड़ी देवी और जीतन राम मांझी अपने प्रदेश के नागरिकों और मतदाताओं के ह्रदय में कितना स्थान रखते हैं – यह तो वे स्वयं भी जानते हैं और मतदाता तो जानते ही नहीं। 

विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के छतरी के नीचे जिन्दावाद-जिन्दावाद के नारे लगाने वाले उनके अनुयायी प्रत्यक्ष रूप से भले इस बात को स्वीकार करें अथवा नहीं, लेकिन अपने हृदय पर हाथ रखकर, अपने-अपने परिवार, बाल-बच्चों के तरफ आँखों को मिलाकर जब सोचेंगे तब शायद इस बात से रूबरू हो जायेंगे कि किसी भी नेताओं ने, आम मतदाताओं के लिए कुछ भी नहीं किया। अलबत्ता, इन विगत वर्षों में सभी नेता अपने-अपने श्री के वजनों के साथ-साथ चल-अचल संपत्तियों को अर्जित कर धन्नासेठ हो गए, लेकिन मतदाता आज भी निराला रूपी भिक्षुक जैसा पेट-पीठ एक किये प्रदेश में राजनीतिक बाजार में खड़ा है।   

पद्मश्री से अलंकृत वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर

अपने ही नहीं आज के ज़माने के भी बिहार के बहुचर्चित पत्रकार जिन्होंने पिछले पांच दशक से प्रदेश की राजनीति को, विधानसभा चुनावों को, प्रदेश के खेत-खलिहानों में काम करने वाले किसानों को, कारखानों में कार करने वाले कामगारों को, दफ्तरों में बैठने वाले सरकारी हुकुमनामों को, कुकुरमुत्तों की तरह जन्म लेने वाले प्रदेश के नेताओं को, समाज के दबंगों को, राजनेता बनते हत्या-अपहरण-फिरौती में लिप्त अपराधियों को, शिक्षा मंदिर से राजनीति करने वाले शिक्षकों को अपनी आँखों से देखा, सैकड़ों-हज़ारों कहानियों को शब्दबद्ध किया – सुरेंद्र किशोर कहते हैं: “अगर आप स्वतंत्रता के बाद के समय को देखें तो महात्मा गांधी और जय प्रकाश नारायण दोनों गैर-राजनीती के लोग थे।”

किशोर कहते हैं: “आज़ादी के बाद 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या हो गयी लेकिन आज़ाद भारत में जब सरकार बनी, वे बहुत दूर रखे आपने आपको। लेकिन अपने अनुयायिओं को, जो गाँधी को बहुत चाहते थे, अपने सिद्धांतों के बारे में जिससे स्वतंत्र भारत का सर्वांगीण विकास हो सके, शिक्षण-प्रशिक्षण देने में नानिक भी पीछे नहीं रहे। उनके सिद्धांतों को मानने वाले, अमल करने वाले लोगों की किल्लत न देश में रही और ना ही बिहार में। बिहार में ऐसे कई नेता हुए जिन्हें गांधी बेहद प्रेम करते थे, स्नेक करते थे, सम्मान करते थे। यह नहीं कहूंगा की गांधी की विचारधारा का प्रभाव उनके अनुयायियों पर नहीं पड़ा। आज़ादी के बाद जो सत्तर के गलियारे में बैठे उसमें सभी भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं हुए। दर्जनों दृष्टान्त हैं जो भ्रष्ट नहीं हुए उनकी. शिक्षा और ओपन आदर्श के कारण। लेकिन बहुत भ्रष्टाचार की धाराओं में इतना बह गए की किनारे लग्न उनके लिए मुश्किल ही नहीं, दूभर सा हो गया।”

सन 1974 का आंदोलन

पटना में रहने वाले बुजुर्ग लोग, जो शिक्षा, राजनीति और सामाजिक सरोकार से जुड़े रहे थे का माना है कि आज़ादी के बाद प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाले पंडित जवाहरलाल नेहरू और उनके परिवार के साथ जयप्रकश नारायण का सम्बन्ध बहुत मधुर था। मधुर इतना ही था कि जयप्रकाश नेहरू की बेटी को प्रधानमंत्री बनने के बाद भी ‘इंदु’ से सम्बोधित करते थे। लेकिन समयांतराल कुछ ऐसा हो गया जो सत्तर के दशक के शुरूआती वर्षों से ही इंदिरा गाँधी के साथ सम्बन्ध में कड़ुआहट आ गयी और जय प्रकाश नारायण यह प्रतिज्ञा ले लिए कि इंदिरा गाँधी को सत्ता की कुर्सी से उखड फेकेंगे। स्वाधीनता से पूर्व. अगर आंदोलन की अगुवाई गांधी कर रहे थे, तो सत्तर के दशक में आंदोलन का नेतृत्व जय प्रकाश नारायण। सत्तर के दशक में गुजरात के छात्रों का तत्कालीन सरकार के खिलाफ आक्रोश चरम पर पहुँच गया था। जनता में भी आक्रोश जग गया था। महंगाई और भ्रष्टाचार उत्कर्ष पर चढ़ रहा था। गुजरात के छात्रों का असर देश के अन्य प्रांतों में भी फैला और बिहार इससे अछूता नहीं रहा। जनवरी 1974 में इस आंदोलन को पुलिस की लाठियों ने और अधिक प्रबल बना दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि इंदिरा गांधी की सरकार वहां राष्ट्रपति शासन लगा दी। 

लेकिन यह आंदोलन अब तक देशव्यापी हो गया था। पटना की तो बात ही अलग थी। कालेज, स्कुल, विश्वविद्यालय सभी जगह टाला बंद हो गया था। शैयक्षणिक सत्र पीछे का रुख लेकर चलने लगा था। आंदोलन कभी अहिंसक तो कभी हिंसक रूप ले रहा था। प्रदेश में हज़ारों दुकानें आग को सूपूर्ग हिओ रही थी। तोड़फोड़ की घटना आम थी। कई मर्तबा तेल की पटरियों को भी उखड जिनका गया था। ै स्थानों पर गोलियां चली थी। सैकड़ों लोग मृत्यु को प्राप्त किये थे। जय प्रकाश नारायण के आंदोलन के बीच इलाहाबाद हाईकोर्ट  ने इंदिरा गांधी को चुनावी कानूनों को तोड़ने का दोषी करार देकर  उनके चुनाव को रद्द कर डाला था। उच्च न्यायलय के आदेश के साथ ही जय प्रकाश नारायण ने इंदिरा गाँधी से प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफे की मांग की। आंदोलन को दबाने के लिए देश में 25 जून 1975 को आपातकाल घोषित हो गया। सैकड़ों नेता, हज़ारों कार्यकर्त्ता पूर्ति देश में गिरफ्तार कर जेल में बंद किये गए। 25 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक देश आपातकाल के अधीन था। 

ये भी पढ़े   'पढ़ेगी बेटी-बढ़ेगी बेटी' नारा बिहार के सरकारी नियमों के अधीन 'दम तोड़ रहा है; मंत्री कहते हैं: 'हम मंत्री हैं, फ़ाइल के पीछे मैं नहीं, आप दौरें, मैं नहीं दौड़ता' (भाग-2)
लोकनायक जयप्रकाश नारायण का आंदोलन

सुरेंद्र किशोर, जॉन उन दिनों पटना से प्रकाशित एक अखबार में संवाददाता थे आर्यावर्तइंडियनशान(डॉट)कॉम को कहते हैं: “गांधी की तरह जय प्रकाश नारायण को अपने अनुयायिओं को शिक्षण, प्रशिक्षण देने का अवसर नहीं मिला।  आज़ादी के बाद देश में प्रधान मंत्री की कुर्सी पर बैठने वाले, या बिहार में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने वालों में औसतन सभी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विभिन्न कारनामों में ऐसे लिप्त हुए, जो आम आदमी के हिट में नहीं था। सभी अपने-ओपन डमरू और अपना अपना राग बजाये। आपातकाल की समाप्ति के बाद आपातकाल के बाद बिहार में 1977 में विधानसभा का चुनाव हुआ था। उन दिनों चुनाव में दो नारा बहुत जुंजा था भारत के राजनितिक बाजार में इंदिरा गाँधी के खिलाफ। एक नारा था “संजय की मम्मी – बड़ी निकम्मी” और दूसरा था “नसबंदी के हैं तीन दलाल – इंदिरा संजय बंसी लाल ”

कोई चार साल के जद्दोजहद के बाद 1977 में चुनाव हुआ था जो बिहार ही नहीं, पुरे देश की राजनीतिक पटल पर महत्वपूर्ण था। इस चुनाव में बिहार विधानसभा में तत्कालीन जनता पार्टी 311 सीटों पर चुनाव लड़ा और 214 सीटों पर जीत हासिल की। आंदोलन के बाद चुनाव और चुनाव का यह परिणाम सांख्यिकी ‘अप्रत्याशित’ था। कांग्रेस को 286 में से 57 सीटें ही मिली थी। वहीं, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया ने 73 में से 21 सीटें हासिल की। बिहार में जनता पार्टी की सरकार बनी। वैसे पहले लगभग दो महीने राष्ट्रपति शासन लागू रहा उसके बाद मुख्यमंत्री के कार्यालय में विराजमान हुए कर्पूरी ठाकुर और फिर उसके बाद उसी विधानसभा कालखंड में दूसरे मुख्यमंत्री बने रामसुंदर दास। 

हाल में ही पद्मश्री से अलंकृत हुए सुरेंद्र किशोर कहते हैं: “जयप्रकाश नारायण के आंदोलन काल और उसके बाद बहुत अधिक मात्रा में लुच्चे-लफंगे प्रवेश लिए राजनीति में जिन्हे न तो शिक्षण की जरुरत थी और ना ही किसी प्रकार की प्रशिक्षण की। जे.पी. कभी स्वयं सत्ता का हिस्सा नहीं बने। वैसे सैद्धांतिक रूप से वे नहीं चाहते थे कि जो उनकी क्रांति में साथ थे बदलाव के लिए, वे सत्ता में हिस्सेदार हों। लेकिन बाद में कई लोग विधायक बन गए जैसे अशोक कुअंर सिंह, रामजतन सिंह, विक्रम कुमार, मिथिलेश सिंह आदि। आंदोलन के ज़माने में नितीश कुमार बिहार कालेज ऑफ़ इंजीनियरिंग (आज का पटना आईआईटी) छात्रसंघ में थे। वशिष्ठ नारायण सिंह, राम बहादुर राय अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संगठन मंत्री थे। जब जय प्रकाश नारायण स्टेयरिंग कमिटी का निर्माण किया, ये तीनों उसमें आये।”

जयप्रकाश नारायण और पीछे तत्कालीन ‘छात्र’ नेता

जब सुरेंद्र किशोर से पूछा कि जिस उद्देश्य से जी.पी. अपने जीवन का अंतिम बसंत बिहार ही नहीं, देश को भ्रष्टाचार के मामले में आमूल रूप से परिवर्तित करना चाहते थे, आपातकाल के बाद हुए 1977 के चुनाव के बाद जो गैर-कांग्रेसी सरकार बनी, या आज भी जो लोग पिछले 35 वर्षों से जो प्रदेश के सिंहासन पर बैठे रहे, जे.पी. के अरमानों को कितना पूरा कर पाए? सुरेंद्र किशोर कुछ क्षण रुक कर कहते हैं: “1977 चुनाव के बाद पहले कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने फिर आये रामसुंदर दास। यह सातवीं विधानसभा का कालखंड था। आठवीं और नवमी विधानसभाओं में जनता पार्टी की सरकार नहीं थी। लेकिन उन दोनों कालखंडों में कांग्रेस के छह राजनेता – डॉ. जगन्नाथ मिश्र, चंद्रशेखर सिंह, बिंदेश्वरी दुबे, भागवत झा ‘आज़ाद’, सत्येंद्र नारायण सिंह और डॉ. जगन्नाथ मिश्र – मुख्यमंत्री कार्यालय में विराजमान हुए। 10 मार्च, 1990 आते-आते कांग्रेस भी मुख्यमंत्री कार्यालय से बाहर निकल गयी दसवीं विधानसभा में लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री के रूप में विराजमान हुए।”

घोटाला का बादशाह

एक प्रश्न का उत्तर देते सुरेंद्र किशोर, जो पत्रकारिता से कुछ एक दशक तक राजनीति में रहकर कर्पूरी ठाकुर के निजी सचिव रहे, कहते हैं कि “1977 चुनाव के बाद बिहार ही नहीं, पूरे देश में राजनीतिक पार्टियों के लोगों का गुटबंदी होने लगा। कांग्रेस के लोगों ने गुटबंदी को और मदद की। परिणाम यह हुआ कि अप्रत्यक्ष रूप से अपने-अपने हिस्से के प्रदेशों में गुटबाजी होने। कई खेमें बने। राज्य बाटने लगे कहाँ की सरकार गिराना हैं, कहाँ की बचानी है परंपरा की शुरुआत हो गयी।  यह गुटबंदी तत्कालीन उत्तर प्रदेश की सरकार को, बिहार की सरकार को, हरियाणा की सरकार को गिराया। 1979 आते-आते मोरारजी देसाई की सरकार को केंद्र में भी गिरा दिया।”
 
नब्बे के प्रारंभिक  महीने में बिहार लालू यादव के हाथों आ गया। 1990 विधानसभा चुनाव चुनाव में सन् 1988 के कई दलों के विलय से बने जनता दल ने पहली बार बिहार चुनाव लड़ा था। जनता पार्टी 276 सीटों पर चुनाव लड़कर 122 सीटें जीतें और सबसे बड़ी पार्टी बनकर आयी। हालांकि बहुमत का आंकड़ा 162 सीटें थी। वही, कांग्रेस को 323 सीटों में से 71 सीटें और भाजपा को 237 सीटों में से 39 सीटों हासिल प्राप्त हुई थी। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया ने 109 सीटों पर चुनाव लड़कर 23 सीटें जीती थी, जबकि झारखण्ड मुक्ति मोर्चा 82 में से 19 सीटें जीत पाई थी। बिहार में लालू यादव के नेतृत्व में जनता दल की सरकार बनी थी। इस चुनाव का एक बात तो महत्वपूर्व अवश्य था कि एक ही विधानसभा कालखंड में कई मुख्यमंत्रियों का आना-जाना समाप्त हुआ। परन्तु लालू यादव के आगमन के बाद बिहार का क्या हश्र हुआ, यह सभी प्रत्यक्षदर्शी हैं। 

केंद्र और प्रदेश में जनता दल की सरकार बनने ही दोनों – केंद्र में मोरारजी देसाई और बिहार में कर्पूरी ठाकुर – पार्टी के आंतरिक राजनीति का शिकार बने

1995 का विधानसभा चुनाव के कालखंड में बिहार में ना ही राष्ट्रीय जनता दल थी और ना ही जनता दल(यूनाइटेड) का अस्तित्व था। यह अलग बात है कि इस चुनाव के एक वर्ष पूर्व नीतीश कुअंर जॉर्ज फर्नांडिस के सहयोग से १९९४ में  समता पार्टी बनाकर लालू यादव से अलग हो गए थे। 1995 के विधानसभा चुनाव में लालू यादव के नेतृत्व में जनता दल ने 264 सीटों पर बिहार चुनाव लड़ा और वो 167 सीटें जीतने में सफल हुई। भाजपा ने 315 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए लेकिन सिर्फ़ 41 सीटें ही जीत पाई, जबकि कांग्रेस 320 सीटों पर चुनाव लड़कर 29 सीटें ही जीत पाई। झारखण्ड मुक्ति मोर्चा को 63 में से 10 सीटें मिली थी और नीतीश कुमार जके समता पार्टी को 310 में से सात सीटें मिली थी। इस चुनाव के बाद लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। यह सभी जानते हैं। 

कहते हैं समय किसी को नहीं छोड़ा है, लालू यादव भी अछूते नहीं रहे। सन 1997 में चारा घोटाले में फंसने के कारण लालू यादव को बिहार के मुख्यमंत्री के पद से हटना पड़ा।  उसी वर्ष उन्होंने जनता दल की आलोचना के मद्दे नजर राष्ट्रीय जनता दाल का गठन किये और अपनी पत्नी राबड़ी देवी को प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिए। इसके बाद मार्च 2000 में विधानसभा चुनाव हुए. ये वो समय जब बिहार से अलग करके झारखंड राज्य नहीं बनाया गया था. साल 2000 के नवंबर में झारखंड का गठन हुआ था. तब बिहार में 324 सीटें हुआ करती थीं और जीतने के लिए 162 सीटों की ज़रूरत होती थी. इन चुनावों में राजद ने 293 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसे 124 सीटें मिली थीं. वहीं, भाजपा को 168 में से 67 सीटें हासिल हुई थीं. इसके अलावा समता पार्टी को 120 में से 34 और कांग्रेस को 324 में से 23 सीटें हासिल हुई थीं. 2000 के चुनाव में राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बनी थीं. 

ये भी पढ़े   140-करोड़ का प्रश्न ✍ श्रीमती सरला ग्रेवाल के बाद सुश्री विनी महाजन भारत सरकार की दूसरी कैबिनेट सचिव हो सकती हैं?

साल 2005 में ऐसा पहली बार हुआ था जब बिहार में एक ही साल के अंदर दो बार विधानसभा चुनाव हुए। फरवरी 2005 में राबड़ी देवी के नेतृत्व में राजद ने 215 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिसमें से उसे 75 सीटें मिल पाई। वहीं, जदयू ने 138 सीटों पर चुनाव लड़ 55 सीटें जीतीं और भाजपा 103 में से 37 सीटें मिली। कांग्रेस इन चुनावों में 84 में से 10 सीटें ही मिली थी / इन चुनावों में 122 सीटों का स्पष्ट बहुमत ना मिल पाने के कारण कोई भी सरकार नहीं बन पाई और कुछ महीनों के राष्ट्रपति शासन के बाद अक्टूबर-नवंबर में फिर से विधानसभा चुनाव हुए। इस चुनाव में जनता दल (यूनाइटेड) 88 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उआई। जनता दल 139 सीटों पर चुनाव लड़ा जबकि भाजपा ने 102 में से 55 सीटें हासिल की। वहीँ, राष्ट्रीय जनता दल ने 175 सीटों पर चुनाव लड़कर 54 सीटें जीती, लोजपा को 203 में से 10 सीटें मिली और कांग्रेस 51 में से नौ सीटें ही जीत पाई। यहाँ भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर नीतीश कुमार मुख्यमंत्री कार्यालय में राखी कुर्सी पर बैठे। 

आप भी बहुत बड़े घोटालेवाज हैं नीतीश जी !!! हें हें हें

आपको याद भी होगा कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिल्ली के सिंहासन पर बैठे गोपालगंज की सभा में 84 सेकेंड तक महागठबंधन के नेताओं के समय की घोटालों की सूची लगातार 80 सेकेंड में उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार के समय के 25 और लालू यादव के समय के 7 घोटाले गिनाए। फिर 4 सेकेंड में बोले- मैं महागठबंधन के महाशय के चारा घोटाले काे तो गिन ही नहीं रहा हूं। उसके बाद वे प्रदेश में व्याप्त भ्रष्टाचार और जंगलराज पर बोले। इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री ने अपने प्रचार के दौरान यह भी कहा था “नीतीश बाबू चुनाव में हार-जीत तो होती रहती है। ऐसे में गुस्सा क्यों हो रहे हो? मोदी को गाली देते-देते थक गए तो अब बिहारियों को गाली देने लगे। बिहारियों के स्वाभिमान पर चोट मत पहुंचाओ महंगा पड़ेगा।” चारा घोटाला के अतिरिक्त नरेंद्र मोदी लालू यादव के कालखंड में अलकतरा घोटाला, इंजीनियरिंग कॉलेज घोटाला, व्याख्याता नियुक्ति घोटाला, सिपाही नियुक्ति घोटाला, नलकूप घोटाला, कंबल खरीद घोटाला, रेलवे घोटाला का नाम उल्लेखित किये। 

जबकि नितीश कुमार के कालखंड में हुए घोटालों को गिनाते, मसलन दवा खरीद घोटाला, ट्रांसफाॅर्मर खरीद घोटाला, एस्टीमेट घोटाला, फर्टिलाइजर सब्सिडी घोटाला, मस्टर रोल घोटाला, राशन-किरासन घोटाला, शराब घोटाला, इंदिरा आवास घोटाला, मनरेगा घोटाला, शौचालय घोटाला, कोसी केनाल निर्माण घोटाला, मिड डे मील घोटाला, आंगनबाड़ी घोटाला, कुलपति घोटाला, पथ निर्माण घोटाला, पुल निर्माण घोटाला, शिक्षा अभियान घोटाला, टेक्स्टबुक छपाई घोटाला, परिवहन घोटाला, वायरलेस बैटरी खरीद घोटाला, बियाडा जमीन घोटाला, बुद्ध स्मृति पार्क घोटाला और चावल घोटाला, प्रधानमंत्री सांस भी नहीं लिए। लेकिन दुर्भाग्य है कि इन विगत वर्षों में कौन किसकी आलोचना क्यों किये यह तो वे भी जानते हैं और नितीश कुमार – लालू यादव एंड कंपनी तो जानते ही हैं।  

भगवान राम बारह वर्ष तक अपनी माता की अज्ञान पालन करने के लिए वनवास चले गए ताकि न माँ की और ना ही उनके परिवार की मर्यादा पर कोई आंच आये, तभी पुरषोत्तम कहलाये। लेकिन आज से 12 वर्ष पहले बिहार में एक घटना घटी थी जो गर्भाशय शल्य-चिकित्सा घोटाला के नाम से विख्यात हुआ था। यह घोटाला राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत हुआ था जिसमें बड़े पैमाने पर महिलाओं व युवतियों का अवैध तरीके से गर्भाशय निकाल कर बीमा की राशि हड़प ली गयी थी। इसमें एक महिला का गर्भाशय निकालने के लिए 30 हजार रुपये बीमा की राशि  निर्धारित थी। 

मांझी नैया ढूंढे किनारा

केंद्र सरकार ने साल 2011 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना लागू की थी। इसके तहत बीपीएल श्रेणी में आने वाले परिवारों का 30 हजार रुपये तक का इलाज मुफ्त में होना था। इस योजना के क्रियान्वयन के लिए बिहार के 350 अस्पतालों का चयन किया गया था। बिहार 45 अस्पतालों और 13 डॉक्टरों ने मिलकर 46 हजार से अधिक महिला और पुरुषों के गर्भाशय निकाल लिये थे। आरोप था कि सबसे ज्यादा जमुई के 83 पुरुषों के गर्भाशय निकाले गये थे। 703 ऐसी महिलाओं के गर्भाशय निकाल लिये गये थे, जिन्हें सर्जरी की कोई जरूरत नहीं थी। इन सर्जरी के जरिए मोटी राशि का गबन किया गया था।

मानवाधिकार आयोग में साल 2012 में सबसे पहले यह मामला सामने आया था। साल 2017 में पटना हाई कोर्ट में एक लोकहित याचिका दायर की गई। याचिका में कहा गया कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना का गलत फायदा लेने के लिए बिहार के कई अस्पतालों और डॉक्टरों की ओर से बड़ी संख्या में महिलाओं के गर्भाशय उनकी सहमति के बगैर सर्जरी करके निकाल लिए गए थे। हाई कोर्ट को बताया गया कि हद तो तब हो गई जब बीमा राशि के लिए कथित रूप से दर्जनों पुरुषों के भी गर्भाशय की सर्जरी कर दी गई। आरोप लगे कि इस घोटाले में कथित तौर पर 20-40 साल की गरीब अविवाहित महिलाओं से लेकर 40 साल से अधिक आयु की महिलाओं का गर्भाशय सर्जरी करके निकाला गया। याचिकाकर्ता के वकील दीनू कुमार ने हाई कोर्ट से कहा कि 44619 महिलाओं में 27511 का गर्भाशय उनकी परमिशन के बिना निकाले गए। 

आइये मत, मतदाता और राजनेता की सोच को देखते फिर चुनाव पर आते हैं। साल 2010 में 243 सीटों पर हुए इन चुनावों में नीतीश कुमार की जदयू सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। इन चुनावों में एनडीए गठबंधन में जदयू और भाजपा ने मिलकर चुनाव लड़ा था और उनके सामने राजद और लोक जनशक्ति पार्टी का गठबंधन था। इन चुनावों में जनता दल यूनाइटेड ने 141 में से 115 सीटें और बीजेपी ने 102 में से 91 सीटें जीती। वहीं, राजद ने 168 सीटों पर चुनाव लड़कर 22 सीटें ला पायी। लोजपा 75 सीटों में से तीन सीटें लेकर आई थी। कांग्रेस ने पूरी 243 सीटों पर चुनाव लड़ा था लेकिन उसे सिर्फ़ चार सीटें ही मिली। इसके बाद से कांग्रेस ने महागठबंधन में ही चुनाव लड़ा। इन चुनाव में बिहार की बड़ी पार्टी माने जाने वाली राजद का प्रदर्शन बहुत खराब रहा था जो फरवरी 2005 के चुनावों की 75 सीटों के मुक़ाबले सिमटकर 22 सीटों पर आ गई थी। 2010 में एनडीए की सरकार बनी और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने।  

लालू यादव का पटना वेटनरी कॉलेज का घर

2015 का चुनाव कुल 243 सीटों पर हुआ था जिसमें जीतने के लिए 122 सीटों की ज़रूरत थी। इन चुनावों में लालू यादव की राजद और नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जेडी (यू) ने 101-101 सीटों पर चुनाव लड़ा था। कांग्रेस ने 41 और भाजपा ने 157 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। चुनाव के नतीजे आने पर राजद 80 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। इसके बाद जदयू को 71 सीटें और भाजपा को 53 सीटें मिली थी। इन चुनावों में कांग्रेस को 27 सीटें मिली। इन चुनाव में महागठबंधन की सरकार बनी और नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाया गया। हालांकि, 2017 में जेडी(यू) महागठबंधन से अलग हो गई और नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई। 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here