
महावीर स्थान, पटना जंक्शन : भारत के प्रथम गणतंत्र से देश के 75 वें गणतंत्र तक अविभाजित और विभाजित बिहार को दो दर्जन मुख्यमंत्री मिला। श्रीकृष्ण सिन्हा से लेकर नीतीश कुमार के बीच ब्राह्मण, क्षत्रिय, राजपूत, दलित, कायस्थ, मुसलमान, ग्वाला और कुर्मी जाति के नेता प्रदेश का राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व किये। इन विगत 75 वर्षों में बिहार मे आधे कालखंड में लालू प्रसाद यादव-राबड़ी देवी और नीतीश कुमार कुछ 35 वर्षों तक (कुछ समय अन्य) मुख्यमंत्री के कार्यालय में विराजमान रहे, शेष 35 वर्षों में कांग्रेस पार्टी के नेताओं के साथ-साथ अन्य राजनीतिक पार्टियों के नेताओं ने मुख्यमंत्री पद संभाले। लेकिन श्रीकृष्ण सिन्हा से लेकर डॉ. जगन्नाथ मिश्र (1990) तक 35 वर्षों में विभिन्न मुख्यमंत्री के कालखंड में बिहार का आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, स्वास्थ्य और अन्य मौलिक क्षेत्रों की सेवाओं में जितना पतन हुआ, 1990 में लालू यादव का बिहार के राजनीतिक पटल पर अभ्युदय के बाद, उनकी पत्नी और अंततः नीतीश कुमार के कालखंड में बिहार रसातल की ओर चला गया, जा रहा है। आज भले प्रदेश के नेताओं को, लोगों को, मतदाताओं को दिखाई नहीं दे सत्ता और सिंहासन के लोभ के कारण, आने वाली पीढ़ियां कभी माफ़ नहीं करेगी – न नेताओं को और ना ही मतदाताओं को।
बिहार का पहला मुख्यमंत्री बने श्री कृष्ण सिन्हा (26 जनवरी, 1950 से 31 जनवरी, 1961) तक। इसके बाद आये दिप नारायण सिंह (1 फरवरी 1961 से 18 फरवरी 1961) तक। बिनोदानंद झा 18 फरवरी 1961 से 2 अक्टूबर 1963 तक मुख्यमंत्री कार्यालय में रहे। कृष्ण बल्लभ सहाय 2 अक्टूबर 1963 से 5 मार्च 1967, महामाया प्रसाद सिन्हा 5 मार्च 1967 से 28 जनवरी 1968, सतीश प्रसाद सिंह 28 जनवरी 1968 से 1 फरवरी 1968, बी.पी. मंडल 1 फरवरी 1968 से 22 मार्च 1968, भोला पासवान शास्त्री 22 मार्च 1968 से 29 जून 1968 / 22 जून 1969 से 4 जुलाई 1969 / 2 जून 1971 से 9 जनवरी 1972, सरदार हरिहर सिंह 29 जून 1968 से 26 फरवरी 1969, दारोगा प्रसाद राय 16 फरवरी 1970 से 22 दिसंबर 1970, कर्पूरी ठाकुर 22 दिसंबर 1970 से 2 जून 1971 / 24 जून 1977 से 21 अप्रैल 1979, केदार पांडे 19 मार्च 1972 से 2 जुलाई 1973, अब्दुल गफूर 2 जुलाई 1973 से 11 अप्रैल 1975, जगन्नाथ मिश्र 11 अप्रैल 1975 से 30 अप्रैल 1977 / 8 जून 1980 से 14 अगस्त 1983 / 6 दिसंबर 1989 से 10 मार्च 1990, राम सुन्दर दास 21 अप्रैल 1979 से 17 फरवरी 1980, चंद्रशेखर सिंह 14 अगस्त 1983 से 12 मार्च 1985, बिंदेश्वरी दुबे 12 मार्च 1985 से 13 फरवरी 1988, भागवत झा आज़ाद 14 फरवरी 1988 से 10 मार्च 1989 और सत्येंद्र नारायण सिन्हा 11 मार्च 1989 से 6 दिसंबर 1989 तक।
डा. जगन्नाथ मिश्र के बाद नब्बे के दशक में जब जनता दल के तत्कालीन नेता लालू यादव प्रदेश का राजनीतिक कमान हाथ में लिए, तत्कालीन मतदाताओं के साथ-साथ युवा पीढ़ियों के मन में एक विश्वास जगा। लोगों का मानना था कि जयप्रकाश नारायण का सपना, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कविता – सिंहासन खाली करो कि जनता आ रही है – का भावार्थ साकार होगा। प्रदेश का छात्र नेता, जो जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के दौरान प्रशासनिक अत्याचार को अपने सर पर, पीठ पर, कमर पर लाठियों के माध्यम से सहा था, अपने प्रदेश में एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करेगा जो उस कालखंड के ही नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक दृष्टान्त के रूप में उद्धत किया जायेगा।
लेकिन, प्रदेश की तत्कालीन आवादी 870,452,165 में 28,227,746 पुरुष और 24,366,539 महिला मतदाताओं का मनोबल और विश्वास चकनाचूर हो गया। जिन लोगों ने लालू यादव को चुनकर सड़क से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाये थे, गलत सिद्ध हुए, जब लालू यादव अपने दूसरे कालखंड के प्रारंभिक वर्षों में बिहार ही नहीं, भारत ही नहीं, पूरे विश्व में ”चाराचोर” के नाम से कुख्यात हुए। उस समय लालू यादव जो मुख्यमंत्री कार्यालय से निकले, कभी वापस नहीं आ सके। वैसे मुख़्यमंत्री कार्यालय से बाहर निकलने के बाद भी उन्होंने नेपथ्य से अपनी पत्नी श्रीमती राबड़ी देवी के माध्यम से सिंहासन पर विराजमान रहे।
लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री की पत्नी या मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान होने के वावजूद राबड़ी देवी प्रदेश की मतदाताओं के विश्वास और अपेक्षाओं पर खड़ी नहीं उतरीं। इसका मुख्य कारण था ‘अशिक्षा’, जिसे पति-पत्नी द्वय अपने जीवन में कभी महत्व नहीं दिए। अगर देते तो शायद अपनी अगली पीढ़ी के दोनों पुत्रों को शिक्षा की दुनिया में अव्वल बनाते। यही कारण है कि बिहार में शिक्षा का जो पतन कर्पूरी ठाकुर (आज भारत रत्न की उपाधि से अलंकृत हैं) के कालखंड से प्रारम्भ हुआ, लालू यादव – राबड़ी देवी – नीतीश कुमार के कालखंड आते आते नेश्तोनाबूद हो गया, ध्वस्त हो गया। दृष्टान्त प्रदेश की साक्षरता दर है।
वैसे भारतीय राजनीति में ‘रामायण’ का चाहे जितना भी दृष्टान्त दिया जाय, वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था में ‘विभीषणों’ का भरमार है और ‘भरत’ का घोर किल्लत है। यह किल्लत देश में तो है ही, बिहार में तो यत्र-तत्र-सर्वत्र है। अवसर की तलाश में गिद्ध जैसे लोग बैठे हैं। सत्ता में बने रहने और सत्ता से बाहर रहने पर शक्ति में जो कमी होती है, लालू यादव इस बात को मन ही मन स्वीकार लिए थे। लेकिन भारत का न्यायालय, देश की जाँच एजेंसियों की निगाह चौबीसों घंटा लालू यादव पर टिकी थी। जैसे ही चारा घोटाला काण्ड अख़बारों के पन्नों पर, न्यायालयों के फाइलों में आया, नितीश कुमार अवसर का लाभ उठाने हेतु सज्ज होने लगे। राजनीतिक शतरंज की गोटियां बिछने लगी। कल तक लालू यादव को बड़े भाई कहने वाले नीतीश कुमार सत्ता की गलियारे में लालू यादव की मुख्यमंत्री पत्नी को परास्त करने के लिए आगे आ गए।
नीतीश कुमार के बारे में उनके राजनीतिक गुरु जॉर्ज फर्नांडिस की सोच को जया जेटली ने भी उद्धृत किया है एक किताब में : “वे (जॉर्ज फर्नांडिस) हमेशा कहते थे कि नीतीश कुमार एक ऐसे व्यक्ति हैं जिनके दिमाग को वे कभी नहीं समझ सकते। सबसे बढ़कर एक लोकतांत्रिक व्यक्ति होने के नाते, जब नीतीश कुमार राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक आयोजित करने की तारीख पर सहमत होने से इनकार कर देते थे या ऐसी बैठकों के दौरान बनी आम सहमति को पलट देते थे, तो वे रात में अकेले उनसे मिलने आते थे और अपने विचार रखते थे, जिस पर वे अमल करने पर ज़ोर देते थे। अक्सर, इस वजह से पार्टी ने अच्छे लोगों को भाजपा में खो दिया; ये वे लोग थे जो अक्सर मेरे साथ चाय पीते थे और नीतीश कुमार के बारे में अपनी पीड़ाएँ साझा करते थे। मैंने जॉर्ज फर्नांडिस को ऐसी बातें बताना अपना कर्तव्य समझा, लेकिन मैं यह भी जानता था कि इससे अनजाने में उनकी चिंताएँ बढ़ जाएँगी। वे हमेशा बड़े लक्ष्य की खातिर तर्कहीन बातों को तर्कसंगत बनाने के लिए उनके आगे झुक जाते थे।”
खैर। राजनीतिक दृष्टि से यदि देखा जाए तो विगत 35 वर्षों से बिहार के सत्ता के सिंहासन पर दो व्यक्तियों का आधिपत्य रहा है – लालू यादव और कंपनी तथा नीतीश कुमार। 35 वर्षों का आधिपत्य होना और प्रदेश का उत्तरोत्तर पिछड़ा होते जाना – इस बात का प्रमाण है कि दोनों को प्रदेश के विकास से दूर-दूर तक कोई मतलब नहीं है। अलबत्ता, 1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू यादव और उनके परिवार जिस तरह सत्ता के ऊपर कब्ज़ा किये, वह आने वाले समय में इतिहास के पन्नों में काले अक्षर से लिखा जायेगा। आज भी उनके परिवार में दोनों पुत्र विधान सभा और दो संसद में (पत्नी-राज्य सभा और पुत्री लोक सभा) में बैठी है। अगर समुदाय की ही बात करें तो जिस गरीब-गुरबा, पिछड़ा, यादव आदि जातियों के नाम पर वे राजनीति में बरकरार रहे, उनके परिवार से बाहर कोई उस योग्य नहीं है?

बीबीसी में मुद्दत तक सेवा दिए बिहार के वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं : 35 साल का समय कम नहीं होता है जहां दो व्यक्ति सत्ता के सिंहासन पर बैठे रहे और प्रदेश रसताल की ओर जाता रहा। इससे बड़ा दुर्भाग्य नहीं हो सकता है प्रदेश के लिए। जिस आधार पर लोगों ने दोनों को सत्ता के गलियारे में जगह दिया, लोगों को विश्वास दिलाया, एक भी विश्वास और भरोसा पर खड़ा नहीं उतरे, न लालू यादव और ना ही नीतीश कुमार । लोगों के, मतदाताओं के सपनों को चकनाचूर कर दिया इन दोनों नेताओं ने।
मणिकांत ठाकुर आगे कहते हैं: “नीतीश को ही लें, पटना से लेकर दिल्ली और राष्ट्रीय अखबारों, पत्रिकाओं में नीतीश कुमार को सुशासन बाबू के नाम से अलंकृत किया पत्रकारों ने। लेकिन तार्किक आधार पर कोई भी लेखक और पत्रकार इस बात को सिद्ध नहीं कर सके कि वे नीतीश कुमार को ‘सुशासन बाबू’ क्यों कह रहे हैं, लिख रहे हैं। यह प्रायोजित है। हकीकत यह है कि नितीश कुमार का सम्पूर्ण कालखंड ‘कुशासन का प्रतीक’ रहा है। आप पीछे के समय में चलिए जब लालू के कालखंड को जंगल राज के रूप में कुख्यात किया गया था लोगों ने, लेखकों ने, पत्रकारों ने । इस बात में क़तई दो राय नहीं है कि लालू के साढ़े सात वर्ष के कालखंड में, जो बाद में राबड़ी देवी के नाम से भी वर्षों तक चला और लालू यादव नेपथ्य से राज किए, प्रदेश में अपराध का जो गणित, भूगोल और राजनीति था, नीतीश के कालखंड में कम हुआ। साधु यादव और सुभाष यादव का जो रंगदारी वाला प्रकोप था, अपराध था, उड़ंडता – कम हुआ, लेकिन वह प्रथा आज भी जारी है कुछ अलग परिभाषा और स्वरूप में ।

लालू के कालखंड में हत्या, अपहरण, फिरौती के लिए अपहरण आम था। उस काल खंड के जो भुक्तभोगी हैं, आज भी कलाप रहे हैं। लेकिन नीतीश कुमार के राज में, जिन्हें सभी ‘सुशासन बाबू’ के नाम से अलंकृत किये हैं, रिश्वतखोरी की प्रथा अनियंत्रित है, अपने उत्कर्ष पर है और यह कतई नहीं माना जायेगा कि इसमें सत्ता के गलियारे में बैठे लोग, सत्ता से संरक्षित अधिकारियों, नेताओं का हाथ नहीं है।” और सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि जिला स्तर से लेकर प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर तक, बिहार के बारे में, बिहार की राजनीति के बारे में, आर्थिक स्थिति, सामाजिक स्थिति, सांस्कृतिक स्थिति, शैक्षिक स्थिति, स्वास्थ्य की स्थिति के बारे में लिखने वाले कभी इन बातों को उजागर नहीं किये, कर रहे हैं। नीतीश के राज में जो बुनियादी ज़रूरत है – शिक्षा, स्वास्थ्य सभी चरमरायी हुई है।
आज नहीं, आने वाले दिनों में शायद फिर कोई जोगिन्दर सिंह जैसा लोग होगा जो प्रदेश के बारे में मिलीभगत को वजागर करेगा और तत्कालीन राजनेता उसका भरपूर फायदा उठाएगा मुख्यमंत्री कार्यालय में विराजमान होने के लिए। यह बाहर बसा घोटाला है जिसे नीतीश कुमार अनियंत्रित छोड़ दिए हैं। इस बात से इंकार नहीं कर सकते की प्रदेश में बेहतरीन सड़क व्यवस्था बन गई है, लेकिन इसके लिए नीतीश कुमार का पीठ नहीं ठोका जा सकता है। यह अटल बिहारी वाजपेयी की देन है और यह सिर्फ़ बिहार नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर सभी राज्यों में है। नीतीश कुमार अपने ‘ऐतिहासिक कार्यकाल’ में राजनीतिक घोषणा अधिक किए परन्तु उन घोषणाओं पर अमल शून्य हुआ। यह बहुत बड़ी विफलता है।
2025 में होने वाली विधानसभा का चुनाव अपनी शुरूआती तारीख से 18 वीं संख्या की होगी। सं 1951 में बिहार में बिहार में विधानसभा चुनाव की शुरुआत हुई थी। अन्य चुनावों की बात और परिणाम अगर छोड़ भी दें तो आज़ादी के बाद बिहार में पहली बार 1977 में कांग्रेस पार्टी बड़ी तरह परास्त हुई। उस कालखंड में विधानसभा के 324 सीटों में कांग्रेस पार्टी महज 57 सीटों पर सिमट गई। लेकिन जो भी पार्टी सरकार में आयी, वह पांच वर्ष पूरा नहीं कर पायी। परिणाम स्वरुप तीन वर्ष बाद 1980 में मध्यवर्ती चुनाव में कांग्रेस पार्टी 169 सीटों पर कब्ज़ा कर पूर्ण बहुमत के साथ सर्कार भी बनायीं। वैसे 1980 से पहले प्रदेश में दो बार मध्यवर्ती चुनाव हुआ था। पहला चुनाव संपन्न हुआ था 1969 में और दूसरा 1972 में। सन 1969 में कांगेस को 118 स्थान मिले थे जबकि सं 1972 के मध्यवर्ती चुनाव में कांग्रेस पार्टी को 318 सीटों में से 167 स्थान मिले थे।
प्रदेश का चुनावी इतिहास इस बात का गवाही है कि कांग्रेस पार्टी को उखाड़ फेंकने के लिए बनी जनता पार्टी 1977 के चुनाव में जहाँ 214 स्थान प्राप्त की थी, वहीँ 1980 के चुनाव में 42 सीटों के साथ चौधरी चरण सिंह वाली सेकुलर जनता पार्टी सबसे बड़ी दूसरी पार्टी थे। उस चुनाव में सीपीआई को 23, भारतीय जनता पार्टी को 21, इंडियन कांग्रेस (यु) को 14, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा को 11, जनता पार्टी (जेपी) को 13, जनता पार्टी (राजनारायण) को एक तथा 23 निर्दलीय विधायक जीतकर विधान सभा पहुंचे थे। 1985 के चुनाव में भी कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर आयी थी जहाँ उसने 323 संख्या वाली विधान सभा में 196 सीटें प्रतप्त की थी जो बहुमत से अधिक थी। नौवां विधान सभा का कालखंड में डॉ. जगन्नाथ मिश्र 94 दिनों (6 दिसंबर, 1989 से 10 मार्च, 1990) के मुख्यमंत्री थे। प्रदेश के लोग इस बात से इंकार नहीं करेंगे 10 मार्च 1990 से प्रदेश रसातल की ओर उन्मुख हो गया।
10 मार्च 1990 से 28 मार्च 1995 तक लालू प्रसाद यादव दसवें विधान सभा में जनता दल का प्रतिनिधित्व करते पूरा किया। लालू यादव के दूसरे कालखंड में ऐतिहासिक चारा घोटाला गबन का पर्दाफास हुआ। यह अलग बात है की लालू यादव उसके बाद भी नेपथ्य से अपनी पत्नी को सत्ता प्रदानकर मुख्यमंत्री कार्यालय का छवि थामे थे, लेकिन मतदाताओं की नज़रों में लालू यादव का सक्रीय राजनीति से बाहर थे। 11 वीं विधानसभा काल को पूरा करने में राबड़ी देवी 25 जुलाई 1997 से 11 फरवरी 1999 तक मुख्यमंत्री कार्यालय में विराजमान रही। लालू यादव का चारा घोटाला कांड में मुख्य अभिययुक्त होते ही वे जनता दल को छोड़कर राष्ट्रीय जनता दल बना लिया था। यानी राबड़ी देवी अपने नवनिर्मित पार्टी की पहली मुख्यमंत्री थी।
11 फरवरी – 9 मार्च 1999 तक प्रदेश में राष्ट्रपति शासन रहा। 9 मार्च 1999 से 2 मार्च 2000 तक 11 वीं विधानसभा में वे फिर मुख्यमंत्री बनी। अब तक देश में राजनीतिक भूचाल आ गया था। उधर दिल्ली में भी सभी की नजर प्रधानमंत्री की कुर्सी ऊपर टिकी थी। अब तक जॉर्ज फर्नाडिस के सहयोग से समता पार्टी का भी गठन हो गया था और नितीश कुमार दिल्ली से पटना के सिंहासन की ओर उन्मुख हुए थे – सात दिनों के लिए 3 मार्च 2000 से 10 मार्च 2000 तक। लेकिन 11 मार्च 2000 से 6 मार्च 2005 तक फिर राबड़ी देवी का समय था। यह उनका अंतिम यात्रा था मुख्यमंत्री कार्यालय में। 24 नवम्बर 2005 (14 वें विधानसभा का कालखंड से) वर्तमान तक कई बार, कई पार्टियों के साथ तालमेल बैठने, हटाने के बाद भी नीतीश कुमार वर्तमान हैं।
एक दशक पहले 2015 के एक अध्ययन के मुताबिक, उस समय बिहार के नवनिर्वाचित 243 विधायकों में से 142 यानी 58 फीसदी पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। बिहार इलेक्शन वाच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) के अध्ययन के मुताबिक, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले कुल विधायकों में से 90 (40 फीसदी) पर हत्या, हत्या के प्रयास, सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाने, अपहरण, महिलाओं के खिलाफ अपराध जैसे संगीन मामले दर्ज हैं। 70 विधायकों पर आरोप तय किए जा चुके हैं। अध्ययन के मुताबिक, ‘अपने खिलाफ आपराधिक मामले बताने वाले 142 विधायकों में से 70 (49 फीसदी) ने बताया है कि अदालत उनके खिलाफ पहले ही आरोप तय कर चुकी है।’ 11 विधायकों पर हत्या या हत्या के प्रयास का मामला दर्ज है। इनमें से चार राष्ट्रीय जनता दल के हैं।
2010 में बिहार विधानसभा चुनाव में जीते 228 विधायकों के बारे में जानकारी जुटाई गई थी। उस वक्त पता चला था कि इन 228 में से 76 (33 फीसदी) पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इसके अतिरिक्त, एडीआर ने बताया कि दिल्ली में 70 में से 37 विधायक (53 प्रतिशत), बिहार में 242 में से 122 विधायक (50 प्रतिशत), महाराष्ट्र में 284 में से 114 विधायक (40 प्रतिशत), झारखंड में 79 में से 31 विधायक (39 प्रतिशत), तेलंगाना में 118 में से 46 विधायक (39 प्रतिशत) और उत्तर प्रदेश में 403 में से 155 विधायकों (38 प्रतिशत) ने अपने खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले घोषित किए हैं। विश्लेषण में महिलाओं के खिलाफ अपराधों से संबंधित परेशान करने वाले आंकड़े भी सामने आए। जैसा कि रिपोर्ट में बताया गया है, कुल 114 विधायकों ने महिलाओं के खिलाफ अपराध से संबंधित मामलों की घोषणा की है, जिनमें से 14 ने विशेष रूप से बलात्कार (भादंसं की धारा-376) से संबंधित मामलों की घोषणा की है।
एडीआर और नेशनल इलेक्शन वॉच (एनईडब्ल्यू) की ओर से किए गए विश्लेषण में देश भर में राज्य विधानसभाओं और केंद्रशासित प्रदेशों में वर्तमान विधायकों की ओर से चुनाव लड़ने से पहले दायर किए गए शपथ पत्रों की पड़ताल की गई और संबंधित विवरण प्राप्त किया गया। विश्लेषण में 28 राज्य विधानसभाओं और दो केंद्र शासित प्रदेशों में 4,033 में से कुल 4,001 विधायकों का विवरण शामिल है। एडीआर ने कहा कि विश्लेषण में शामिल विधायकों में से 1,136 या लगभग 28 प्रतिशत ने अपने खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले घोषित किए हैं, जिनमें हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ अपराध से संबंधित आरोप शामिल हैं।
इस रिसर्च में खुलासा हुआ है कि बिहार के 67 फीसदी विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। बिहार के 242 विधायकों में से 161 विधायक दागी हैं। यानी इन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। विधायकों के आंकड़ों को देखें तो केरल में 135 में से 95 विधायकों यानी 70 प्रतिशत ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए हैं। इसी तरह दिल्ली में 70 में से 44 विधायक (63 प्रतिशत), महाराष्ट्र में 284 में से 175 विधायक (62 प्रतिशत), तेलंगाना में 118 विधायकों में से 72 विधायक (61 प्रतिशत) और तमिलनाडु में 224 विधायकों में से 134 (60 प्रतिशत) ने अपने हलफनामे में स्वयं के खिलाफ दर्ज आपराधिक मामले घोषित किए हैं।

हिंदी दैनिक ‘आज’ के पूर्व संपादक और खबर मन्त्र के धनबाद के स्थानीय संपादक ज्ञान वर्धन मिश्र कहते हैं: मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद में सत्ता पर कब्ज़ा बनाये रखने के लिए जबरदस्त शीत युद्ध चल रहा है। दोनों सत्ता की कुर्सी को दांत से प[पकडे रहना चाहते हैं । कोई किसी के लिए दरवाजा खुला रखने की बात करता है, तो कोई अब यहीं हैं, इधर उधर कहीं नहीं जायेंगे को बारम्बार कह रहा है। हकीकत यह है कि पिछले दशकों से नीतीश कुमार के राजनीतिक चरित्र के मद्दे नजर विश्वास कायम करना मुश्किल प्रतीत होता है। आज स्थिति यह है कि मेरी कमीज से तुम्हारी कमीज ज्यादा सफेद क्यों?” की बात दोहराई जा रही है।
ज्ञान वर्धन मिश्र कहते हैं कि “सन 1990 से 2005 तक लालू प्रसाद और उनकी पत्नी राबड़ी देवी मुख्यमंत्री रहीं। तीसरे किसी को उभरने ही नहीं दिया। मुस्लिम-यादव समीकरण बना कर मुसलमानों को भ्रम में रखा। लालू यादव के प्रति वफादार रहे अब्दुल बारी सिद्दीकी को आगे बढ़ने का मौका ही नहीं दिया। राष्ट्रीय जनता दल को इधर लालू यादव और जनता दल (यूनाइटेड) को उधर नीतीश कुमार अपनी-अपनी घरेलू पार्टी बनाकर न केवल राजनीति को शाशन कर रहे हैं, बल्कि, प्रदेश के मतदाताओं के साथ पिछले 35 वर्षों से खिलवाड़ भी कर रहे हैं ।
मिश्र का कहना है कि “नीतीश कुमार बहुत बड़े ईगोइस्ट हैं। वे राष्ट्रिय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ रह सकते थे, रह सकते हैं, लेकिन इगो पर चोट लगने ओर वे भी तिलमिला जाते हैं। इन पर भाई भतीजावाद का आरोप तो नहीं लगा लेकिन लेखी कृष्ण को लेकर आरसीपी टैक्स सुर्खियों में था। अब आरसीपी सिंह भी इनके साथ नहीं हैं। जिस तरह का अपराध लालू के कालखंड में था, उन अपराधों का किस्म तो बदल गया है, लेकिन प्रवृत्ति नहीं बदली है। अपहरण उद्योग का सफाया हुआ लेकिन अन्य प्रकार के अपराध का होना जारी है। इसका मुख्य कारण समूचे पुलिस तंत्र का शराब सूंघवा हो जाना है।”
अब आइये पहले 11 अशोका रोड और दिन दयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली स्थित भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रिय कार्यालय के रास्ते 8 वीरचंद पटेल पथ जहाँ भाजपा का प्रदेश मुख्यालय है। देश के राजनीतिक विशेषज्ञ, भाजपा के बड़े-बड़े नेता इस बात को माने अथवा नहीं, आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम का मानना है कि भाजपा के केंद्रीय नेताओं ने बिहार में अपनी पार्टी को उतना नहीं उभरने दिया, जितने का वह हकदार था। भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व में भले बिहार के जगत प्रकाश नड्डा को लाकर युवाओं में सन्देश देनी चाही, हकीकत यह था कि नरेंद्र मोदी के आने के बाद भाजपा के केंद्रीय कक्ष में एक ऐसा व्यक्ति चाहिए था जो मूक-बधिर हो। अगर बिहार में भाजपा की स्थिति को देखा जाय तो जय प्रकाश नारायण के आंदोलन के बाद अगर प्रदेश में भाजपा को दिखने, दिखाने में, राजनीतिक मंच पर जीवित रखने में किसी भी एक व्यक्ति का हाथ रहा तो वह थे कद्दावर नेता सुशील कुमार मोदी। यह अलग बात है कि सुशील कुमार मोदी भी 1990 और उसके बाद से अप्रत्यक्ष रूप से लालू यादव का चारा घोटाला कांड को बेचकर ही राजनीति में कायम रहे, और भाजपा को हमेशा नीतीश का अनुयायी बनाकर स्वयं ‘उप-मुख्यमंत्री’ की कुर्सी से संतुष्ट रहे। लेकिन हकीकत यह भी है कि भाजपा के कुछ बड़े नेताओं ने आगे बढ़ने नहीं दिया।
इस बात को वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानवर्धन मिश्र भी मानते हैं और मणिकांत ठाकुर भी। उनका भी कहना है कि “सुशील मोदी और उनके समूह के सम्माननीय विधायकों के पर को हमेशा कतरनें की पूरी कोशिश की गई, साजिश रची गई। वैसे जाति की बात हर राजनीतिक पार्टियां करती हैं, भाजपा में भी है, लेकिन उनके जीवन के अंतिम कालखंड में उनकी जिस तरह उपेक्षा की गई, वे सहन नहीं कर सके।” भाजपा के केंद्रीय नेता कभी भी प्रदेश में इस पार्टी को मजबूत करने की कोशिश नहीं किए। समयांतराल, केंद्रीय नेता यहां भी जाति की राजनीति किये।
कैलाशपति मिश्र (1980-81/1984-87), इन्दर सिंह नामधारी (1988-90), ताराकांत झा (1990-93), अश्वनी कुमार (1994-96), यशवंत सिन्हा (1997-98), नन्द किशोर यादव (1998-2003), गोपाल नारायण सिंह (2003-05), सुशील कुमार मोदी (2005-06), राधा मोहन सिंह (2006-10), सी.पी. ठाकुर (2010-13), मंगल पांडे (2013-16), नित्यानंद राय (2016-19), संजय जायसवाल (2019-23), सम्राट चौधरी (2023-24) और दिलीप कुमार जायसवाल (2024 से अब तक) ये सभी पिछले 44 वर्षों में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बने। सवाल यह है कि इन लोगों के कार्यकाल में भाजपा मजबूत हुआ, पार्टी मजबूत हुयी, भाजपा में बिहार के मतदाताओं का रुझान क्या रहा, यह इस बात का ,प्रमाण है कि आज भी 43 विधायकों के साथ नीतीश कुमार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हैं और भाजपा के नेता उप-मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे हैं। 2015 में विधानसभा में भाजपा के विधायकों की संख्या भले 53 से बढ़कर 17वीं विधानसभा में 74 हो गया हो; लेकिन यह संख्या भाजपा की अपनी नहीं है। यह संख्या नीतीश कुमार द्वारा दान स्वरुप हैं। 2015 में जनता दल यूनाइटेड की विधानसभा में संख्या 71 थी, जो 17वीं विधानसभा में 43 हो गयी। राष्ट्रीय जनता दल की संख्या भले 80 से घटकर 75 हो गया हो, लेकिन आज भी मतदाताओं के बीच उसकी पकड़ है।
वैसे पटना जंक्शन रेलवे स्टेशन के सामने पटना सचिवालय की ओर जाने वाली सड़क पर मुद्दत से पटना से प्रकाशित अख़बारों को बेचने वाला वे अखबार विक्रेता का कहना है कि “बिहार में कुकुरमुट्टीओं की तरह नेताओं की उत्पत्ति होती है। प्रदेश के सभी 38 जिलों के करीब 45 हज़ार से अधिक गाओं, 8406 पंचायतोनं 534 ब्लॉकों और १०२ सबडिवीजनों में शायद ही कोई हिस्सा होगा जहाँ जहाँ नेता बनाने का उद्योग नहीं लगा है। जन्म लेने के बाद बच्चे, खासकर पुरुष, विद्यालय जाने के बजाय गली-मोहल्ला, नुक्कड़ पर राजनीति करने की पढाई करने लगता है। कुछ महीने अथवा साल के बाद डाकबंगला चौराहे पर आकर बड़का नेता बन जाता है और दो महीने बाद बेली रोड के रास्ते पटना सचिवालय में मुख्यमंत्री कार्यालय में राखी कुर्सी पर भी दावा ठोकने लगता है। अब अगर डाकबंगला चौराहे पर उनसे कोई पूछ दे कि बेली रोड कइने नाम पर अंकित है, तो दांत निपोड़ देंगे।”
अखबार विक्रेता आगे कहता है कि “कृष्ण बल्लभ सहाय (बिहार के चौथे मुख्यमंत्री) के ज़माने से पटना शहर को देखा हूँ। कई गोली कांड देखा हूँ। कई आंदोलन देखा हूँ। लेकिन सत्ता के गलियारे में आज जिस तरह मछली बाजार बना है, पहले कभी नहीं था। आज किसी भी विधायक को, किसी भी सांसद को, किसी भी मतदाता को एक-दूसरे पर विश्वास नहीं है। सभी अपने-अपने स्वार्थ सिद्धि में लगे हैं। प्रदेश को नोच-नोच कर खा रहे हैं। जो कल रिक्शा पर चलते थे, परन्तु रिक्शावाले को किराया भी नहीं देते थे, आज ऊँची-ऊँची गाड़ियों पर सीढ़ी लगाकर चढ़ते हैं। उन्हें जमीं पर रेंगते, कुहरते मतदाताओं से क्या लेना है। आज कोई देखने वाला, लिखने वाला, पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाला भी नहीं है बाबूजी। लोगबाग वही लिखते हैं, वही छापते हैं जिसमें उन्हें मुनाफ़ा होता है। बहुत बातें हैं, बहुत दुःख है गरीबों का।”
भाजपा की कोशिश रही कि यादव अथवा पिछड़ी जाति के लोगों को भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष बना देने से प्रदेश के यादव समुदाय, अथवा दलित और पिछड़ी जाती के मतदाता, जो आज लालू यादव के साथ हैं, भाजपा के साथ हो जायेंगे – यह सोच ही गलत है। इस बात को वातनुकूलत कक्ष में बैठे भाजपा के नेता, सफ़ेद स्त्रीदार, बिना किसी सिलवट के वस्त्र पहने, खंभो की तरह चलने वाले नेता, ताकि वस्त्र में दाग न लग जाय, सिलवट ख़राब न हो जाय – नहीं समझ सकते हैं। आज ऐसे नेताओं की संख्या बिहार में गली-कूचियों में भाड़े-पड़े हैं। मणिकांत ठाकुर भी इस बात को स्वीकारते हैं कि भाजपा अपने सिद्धांतों से, स्थानीय नेताओं की मदद से अपना आधार बनाने के बजाय, हमेशा जाती के आधार पर प्रयोग कर रही है। उस प्रयोग में कभी यादव आये हैं तो कभी यादव आते हैं तो कभी राय, कभी ठाकुर आते हैं तो कभी जायसवाल, कभी कोइरी तो कभी धानुक ।

वैसे कहने के लिए तो लालू यादव पटना विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर है और नीतीश कुमार जी ने बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, पटना से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। दोनों राजनीतिक परवरिश देश के महान समाजवादी राजनेताओं के इर्द-गिर्द हुई। राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, वी.पी सिंह जैसे राजनैतिक दिग्गजों की देख-रेख में लालू यादव और नीतीश कुमार ने राजनीति के सभी दृष्टिकोणों समझा और परखा। दोनों 1974 से 1977 तक चले जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। दोनों के अंदर तथाकथित रूप से ‘समाजवाद की ऐसी छाप पड़ी’ और राजनीतिक सफर के लिए दोनों ने ‘समाजवाद’ का नारा बुलंद किया। लेकिन दोनों वास्तविक रूप से कितने समाजवादी हो पाए यह दिवंगत राम मनोहर लोहिया, कर्पूरी ठाकुर, जय प्रकाश नारायण की आत्माएं बताएंगी।
1985 में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में बिहार विधानसभा पहुंचे थे नीतीश कुमार और 1987 में युवा लोक दल के अध्यक्ष भी बने। तत्पश्चात 1989 में बिहार में जनता दल इकाई के महासचिव और नौवीं लोकसभा के सदस्य चुने गए। लोकसभा में अपने पहले कार्यकाल में नीतीश कुमार केंद्रीय राज्य मंत्री की जिम्मेदारी दी गयी। वर्ष 1991 में नीतीश कुमार दोबारा लोकसभा के लिए चुने गए और साथ ही राष्ट्रीय स्तर के महासचिव बनाए गए। वे लगातार वर्ष 1989 से लेकर 2004 तक बाढ़ निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा का चुनाव जीतते रहे। वर्ष 2001 से 2004 के बीच कैबिनेट मंत्री के तौर पर रेल मंत्रालय जैसी जिम्मेदारी को भी बखूबी संभाला। बिहार की जनता ने नीतीश कुमार जी को अब तक सात बार बिहार के मुख्यमंत्री बनाया है। पहली बार मार्च 2000 में उन्होंने मुख्यमंत्री पद संभाला। आजकल लोग उन्हें “सुशासन बाबू” के नाम से अलंकृत किये हैं लेकिन वास्तविक रूप से कितने सुशासन बाबू कहलाने के लायक हैं, यह वे बेहतर जानते हैं।

बिहार के वरिष्ठ पत्रकार संजीत नारायण मिश्र कहते हैं: “राजनीति में कोई स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता है, परिस्थितियां बहुत कुछ बदल देती हैं। ऐसे भी राजनीति में ‘खेला’ आम हो चुका है। बिहार में भी समय-समय पर ‘खेला’ होते रहा है, इसलिए लोगों को लगता है कि 2025 के चुनाव से पहले राज्य में एक बार फिर ‘पलट बाजी’ हो सकती है, पर यह अफवाह या ‘वायरल भविष्यवाणी’ कितनी सच होगी, यह तो आने वाला वक्त बताएगा। फिलहाल एनडीए में सबकुछ सामान्य है या ऐसे कहें कि सामान्य दिखाने की कोशिश जारी है।”
पटना से प्रकाशित विभिन्न हिंदी अख़बारों में अपनी भूमिका निभाने वाले संजीत मिश्र का मानना है कि “बिहार राजनीति में नीतीश कुमार ट्रेंड कर रहे हैं। कुछ दिनों पहले केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने विधानसभा चुनाव में बिहार के सीएम फेस को लेकर कहा था कि यह पार्लियामेंट्री बोर्ड तय करेगा कि सीएम कौन होगा? उसके बाद से कयास लगाए जाने लगे कि नीतीश कुमार फिर से असहज हो गए हैं। हालांकि अमित शाह के बयान पर जेडीयू ने साफ कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि एनडीए का चेहरा नीतीश कुमार ही होंगे। दो कदम आगे बढ़ते हुए जदयू ने कई पोस्ट भी जारी कर दिए, जिसमें संदेश दिया गया कि 2025 में अगर एनडीए की सरकार बनी, तो चेहरा नीतीश कुमार ही होंगे। ‘क्यों करें विचार, जब हैं ही नीतीश कुमार’, इस तरह के स्लोगन प्रेशर पॉलिटिक्स की एक बानगी हो सकती है, पर यह भी सच्चाई है कि भाजपा के लिए अब भी मजबूरी हैं नीतीश कुमार।”
इनका कहाँ है कि “अंदरूनी झगड़े और पार्टी के अंदर मुख्यमंत्री पद के कई दावेदार होना भाजपा की सबसे बड़ी समस्या है। पार्टी के अंदर एक नहीं कई नाम हैं, जो खुद को ‘सीएम इन वेटिंग’ मानते हैं। इस आकांक्षा की पहली पंक्ति में डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी का नाम सबसे पहले आता है। राजद छोड़ जबसे सम्राट भाजपा जॉइन किए हैं, तभी से उन्हें लगने लगा है कि भाजपा का सीएम उम्मीदवार वही हैं। हालांकि पार्टी में आते ही उन्हें बड़ी बड़ी जिम्मेवारी देकर कहीं न कहीं उनकी ऐसी भावना को और भड़काया गया है। उनके बाद दूसरे डिप्टी सीएम विजय कुमार सिन्हा भी कहीं न कहीं यह मानते हैं कि पार्टी में वही सर्वसम्मत नेता हैं, और गाहे-बगाहे बयान देकर ऐसा जताते भी रहे हैं। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल भी इस रोग से अछूते नहीं हैं।”
इतना ही नहीं, मिश्र का मानना है कि “सम्राट चौधरी से अध्यक्ष की कुर्सी उन्हें इसलिए दी गई है, ताकि सीएम उम्मीदवार के लिए उनका नाम सबसे आगे रहे। इसके अलावा केंद्रीय गृह मंत्री नित्यानंद राय और गिरिराज सिंह में भी वो काबिलियत पूरी है, जो एक सीएम बनने में होती है। हाँ, ये बात और है कि भाजपा आलाकमान को कौन पसंद आता है, ये तो वक्त बताएगा। वैसे, बिहार एनडीए के अन्य घटक दलों के नेता चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेता भी नीतीश कुमार को 2025 के चुनाव रिजल्ट के बाद एक बार फिर से मुख्यमंत्री बनाने की बातें कह चुके हैं। 2019 के बिहार चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी के खिलाफ कैंडिडेट देने वाले चिराग पासवान ने तो यहां तक कह दिया है कि 2025 में भी नीतीश कुमार ही एक बार फिर से शपथ लेंगे। इसलिए भाजपा नेताओं की उम्मीद कितनी पूरी होगी यह अभी कहना मुश्किल है।
क्रमशः ……