पटना : जयप्रकाश नारायण के सन 1974 आंदोलन के गर्भ से जन्म लिए आज के नेताओं की मानसिकता की बात छोड़िये, प्रदेश के लोगों की मानसिकता को अगर आंकना है तो एक बार कदमकुआं स्थित उनके पुस्तैनी घर की तंग गलियों में घूमकर देखिये। आज जयप्रकाश प्रकाश नारायण सिद्धांत, उनके आदर्श, उनका घर प्रदेश तथाकथित नेताओं की रुग्ण मानसिकता, धनाढ्यों के गगनचुम्बी इमारतों के सामने बौना हो गया है। देखिये जरूर।
कदमकुआं स्थित यह इलाका, जहाँ बिहार विधानसभा और बिहार सरकार के मंत्रालय में तीन-तीन नेताओं (उप-मुख्यमंत्री सहित) का आवास हो, जयप्रकाश नारायण के घर तक जाने वाली सड़क जगत नारायण लाल रोड और उससे लगी गलियां अपने भाग्य पर विलख रहा है। पचास वर्ष पहले, जहाँ देश-विदेश के चुनिंदे नेता, पूर्व-प्रधानमंत्री, प्रधानमंत्री तक गली में प्रवेश से पूर्व वहां की मिट्टी को नमन करते थे, आज उन सड़कों पर, उन गलियों में चलना अपनी तौहीन समझते हैं। सब समय है।
मानसिकता का दृष्टान्त तो उसी दिन ज्ञात हो गया था जिस दिन जयप्रकाश नारायण के पार्थिव शरीर को गंगा तट पर अग्नि को सुपुर्द किया जा रहा था। उस दिन कुछ काल पूर्व तक जब उनके पार्थिव शरीर को अंतिम संस्कार के लिए ले जाया जा रहा था, पटना के अशोक राजपथ पर करीब पांच लाख से अधिक लोग अश्रुपूरित निगाहों के साथ पीछे-पीछे चल रहे थे। श्रीमती इंदिरा गांधी जिन्हे सत्ता से पदच्युत करने के लिए जय प्रकाश नारायण ने शपथ लिए थे, उन्हें कुर्सी से हटाकर जनता की सरकार (जनता पार्टी) दिल्ली के सिंहासन पर बैठाये थे, श्रीमती गांधी उनके पार्थिव शरीर के साथ चल रही थी। कौन थे, कौन नहीं थे की गणना असंभव था। शायद उस दिन के बाद आज तक पटना कभी किसी हार-मांस वाले पार्थिव शरीर की यात्रा के साथ इतने लोगों को नहीं देखा है।
लेकिन, उस यात्रा के कुछ ही पल बाद गंगा के किनारे क्या हुआ यह उस कालखंड के, उक्त अवसर पर उपस्थित लोग चश्मदीद गवाह होंगे। घाट पर बिहार के नेताओं की बात छोड़िये, केंद्र के नेताओं के साथ-साथ देश विदेश के अनेकानेक गणमान्य व्यक्ति, पत्रकार समूह, छायाकार, विद्वान, विदुषी, लेखक सभी घाट पर उपस्थित थे। श्रीमती इंदिरा गांधी प्रवेश के साथ बाएं हाथ अन्य नेताओं के साथ थीं। मुखाग्नि की तैयारी हो रही थी। लाखों की भीड़ में चिता से कुछ दूर दाहिने कोई व्यक्ति अपने बाएं हाथ के तलहत्थी पर खैनी मल रहा था। इधर सम्पूर्ण राष्ट्र शोकाकुल था। इंदिरा गांधी भी अश्रुपूरित थी क्योंकि अब उन्हें ‘इंदू’ कहकर सम्बोधित करने वाला कोई नहीं था। अपने प्रिय नेता के अंतिम यात्रा के लिए अग्नि सज्ज थी।
सन 1979 में बिहार का शैक्षिक दर भी 30 फीसदी पार नहीं किया था। आंकड़े यही कहे थे कि 29.76 फीसदी शैक्षिक दर था जिसमें पुरुषों की साक्षरता 36.00% और महिलाओं की 21. 70 % थी। पचास वर्ष बाद आज प्रदेश की सरकार साक्षरता दर के ग्राफ को भले 61.8 फीसदी, जिसमें पुरुषों की साक्षरता 71.2 % और महिलाओं की साक्षरता 51.5 फीसदी (राष्ट्रीय साक्षरता दर 74.04% से भी नीचे) दिखाए, कदमकुआं के जगत नारायण लाल रोड की गलियों में रहने वाले जयप्रकाश नारायण के घरों के दीवार, ईंट, पत्थर गवाह है कि आज भी हम उनके लिए शिक्षित नहीं हुए हैं।
उस दिन भी नहीं थे। उस दिन जैसे ही मुखाग्नि दी जा रही थी, दूर लोग अपने तलहथी पर खैनी ठोक रहे थे। उपस्थित लोग उसे ताली समझकर पूरे आसमान को ताली की गड़गड़ाहट में बदल दिया। इंदिरा गांधी के साथ-साथ अपने-अपने राजनीतिक मनमुटाव को छोड़कर, सैकड़ों नहीं, हज़ारों लोग उन तालियों की गड़गड़ाहट को रोकने का असफल प्रयास कर रहे थे। उधर जयप्रकाश नारायण के पार्थिव शरीर को अग्नि अपने में विलय कर रही थी, उधर लोग ताली बजने के अवसर को भी आंकने में विफल हो रहे थे। आज जब जयप्रकाश नारायण के घर को देखता हूँ तो नेताओं की मृत मानसिकता भी दिखाई देती है उसी ताली की गड़गड़ाहट की तरह।
तत्कालीन विपक्षीय और असंतुष्ट राजनेताओं की नजरों में सत्तर के दशक के प्रारंभिक वर्षों तक इंदिरा गांधी का देश की राजनीतिक-प्रशासनिक ब्रह्मांड पर एकाधिकार स्थापित हो चुका था। उसी कालखंड में रेडिकल ह्यूमैनिस्ट में एक लेख प्रकाशित हुआ था – गांधी एक एकाधिकारवादी – और उस लेख के लेखक थे जयप्रकाश नारायण। उस लेख को इंडियन एक्सप्रेस भी प्रकाशित किया था । एक्सप्रेस में प्रकाशन के साथ ही प्रधानमंत्री कार्यालय में बैठी श्रीमती इंदिरा गांधी की भृकुटी तन गई थी।
जय प्रकाश नारायण उन दिनों समाचार भारती के अध्यक्ष थे। और किसी कार्यवश श्रीमती गांधी से मिलना आवश्यक हो गया था। परंतु श्रीमती गांधी रेडिकल ह्यूमैनिस्ट और एक्सप्रेस की कहानी के कारण जयप्रकाश नारायण से नहीं मिली। जब उनके टेबल पर मिलने के लिए निवेदन संबधी कागज आए, श्रीमती गांधी दो टूक में कहबा दी कि इस कार्य के लिए वे आई.के. गुजराल से मिल लें, मुझसे मिलने की जरूरत नहीं है। अलबत्ता वे जयप्रकाश नारायण को तिरस्कृत कर रही थी। नारायण गुजराल से बिना मिले पटना आ गए।
इस बीच नई दिल्ली के राजपथ, संसद मार्ग से लेकर पटना के अशोक राजपथ-मोइनुल हक पथ के रास्ते सचिवालय तक बदलाव वाली राजनीतिक गर्मी चढ़ने लगी थी। पटना की सड़कों पर आंदोलनकारियों में कुछ सचेत लोग जय प्रकाश नारायण से मिले और उन्हें आंदोलन को नेतृत्व देने के लिए निवेदन किए। बहुत बातें हुईं, लेकिन अन्य बातों में एक सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि हम नेतृत्व करेंगे बसरते आंदोलन शांतिपूर्ण हो, हिंसा का कोई स्थान नहीं। तत्कालीन छात्रों के आंदोलन को नेतृत्व मिला।
उस दिन साल 1974 का अप्रैल माह का 8 तारीख था। इंदुप्रभा जी, श्रीमती वीणा रानी श्रीवास्तव, रामधारी सिंह दिनकर, फणीश्वर नाथ रेणु, राधारमण जी और जयप्रकाश नारायण की अगुआई में एक मौन जुलूस निकला गया था। एक खुली जीप पर जयप्रकाश नारायण खड़े थे। दाहिने-बाएं दिनकर, रेणु, श्रीमती श्रीवास्तव और जेपी को ह्रदय से चाहने वाले उनके अनुयायी-महिला-पुरुष- जीप के पीछे-पीछे कांग्रेस व्यवस्था के प्रति अपना विरोध दिखाते, अपने-अपने मुख पर काला पट्टी बांधे चले जा रहे थे।
डाक बांग्ला चौराहे से कुछ कदम आगे बढ़ने के बाद जुलुस जब इमाम पैलेस से आगे बढ़ा, फ़्रेज़र रोड स्थित बन्दर बगीचा के नुक्कड़ पर स्थित प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया के तत्कालीन राज्य प्रमुख एस.के. घोष यानी मोंटू दा बाहर झरोखे पर खड़े दिखे। मोंटू दा समाचार के दुनिया में एक जाना-पहचाना चेहरा थे। उनके शब्द बहुत ही तीखी, लेकिन सत्यता के उत्कर्ष पर होता था। मोंटू डा को देखते ही उनके सम्मानार्थ जयप्रकाश नारायण (उम्र में अधिक होने के बाद भी) अपने दोनों हाथों को एक साथ मिलाकर आसमान की ओर देखते सम्मानपूर्ण प्रणाम किया। अब तक झरोखे पर दो-चार लोग और आ गए थे। यह जुलुस आगे आर्यावर्त-इण्डियन नेशन अख़बार के दफ्तर के सामने जैसे पहुंचा, सभी कर्मचारी, पत्रकार, संपादक उनके सम्मानार्थ सड़क पर खड़े थे। सभी जयप्रकाश नारायण और जीप पर उपस्थित गणमान्यों को प्रणाम का जबाब प्रणाम से दिए। कुछ क्षण बाद पीटीआई तीन-टेक में उस शांति जुलूस का समाचार प्रसारित किया जो भारत ही नहीं, विश्व के कोने-कोने तक पहुंचा।

पटना से प्रकाशित सर्चलाइट जो बाद में हिंदुस्तान टाइम्स बना, के तत्कालीन छायाकार अशोक कर्ण उन दिनों पुनाईचक मोहल्ला में रहते थे। पटना विश्वविद्यालय के बी.एन. कालेज के छात्र थे, लेकिन कैमरा से दोस्ती हो गयी थी उनकी। जय प्रकाश नारायण की क्रांति अपने उत्कर्ष पर थी। उस क्रांति का चश्मदीद गवाह वे खुद भी थे और उनका कैमरा तो था ही। जय प्रकाश नारायण के घर जाना, वहां उनसे मिलने आने वाले देश-विदेश के लोगों, स्थानीय नेताओं को अपने कैमरे में कैद करना नित्य का क्रियाकलाप था। दशकों बाद वे एक बार फिर अपने पटना की यात्रा के दौरान जन नायक स्वर्गीय जय प्रकाश नारायण जी के आवास पर दोबारा पहुंचे।
कर्ण कहते हैं कि “कदमकुआं क्षेत्र में स्थित इस ऐतिहासिक स्थान पर मेरी पिछली यात्रा को काफी समय बीत गया था। एक मीडिया पेशेवर के रूप में, जब भी अटल बिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर जैसे प्रमुख केंद्रीय नेता जेपी को श्रद्धांजलि देने आते थे, तब मैं इस आवास पर रिपोर्टिंग करता था। अनेक बार यहां आने के कारण, मैंने इस आवास को 1970 के दशक के छात्र आंदोलन का केंद्र बनते देखा। जहां जेपी जी रहते थे और जहां 8 अक्टूबर 1979 को उनका निधन हुआ, वहां खड़े होकर मैंने देखा कि यह स्थान बहुत अच्छी तरह से संरक्षित है। उनकी निजी वस्तुएं सम्मानपूर्वक सजाई गई थी और पूरा घर साफ-सुथरा और सुव्यवस्थित था।”
कर्ण आगे कहते हैं: “जो बात सबसे ज़्यादा खली, वह थी यहां आने वालों की कमी। केयरटेकर से बातचीत करने पर पता चला कि यह स्मारक बहुत कम लोगों द्वारा देखा जाता है। आज की युवा पीढ़ी जेपी और उनके कांग्रेस सरकार के खिलाफ आंदोलन से उतनी परिचित नहीं है। दुख की बात है कि उस आंदोलन से उभरे कुछ नेता, जो आज उच्च पदों पर हैं, इस ऐतिहासिक स्थल पर एक साधारण सी यात्रा करने की ज़रूरत भी महसूस नहीं करते। यहां तक कि जेपी की जयंती या पुण्यतिथि पर भी यह स्थान अक्सर सुनसान रहता है। आज जेपी का घर मोहल्ले में बने अन्य मकानों के सामने बौना हो गया है, जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए था।”
कर्ण का कहना है कि “आज के शांत और सीमित आयोजन उस दौर से एकदम विपरीत हैं जब लालू प्रसाद, नीतीश कुमार और सुशील मोदी जैसे नेता यहां आकर श्रद्धांजलि अर्पित करते थे। अब राजनीतिक दल एक-दूसरे पर जेपी की विरासत को भुलाने का आरोप लगाते हैं, पर अपने-अपने कार्यालयों में छोटे-मोटे आयोजन करके कर्तव्य पूरा मान लेते हैं। पटना हवाई अड्डे का नाम जेपी के नाम पर है, और कंकड़बाग में एक बड़ा अस्पताल भी उनकी विरासत को आगे बढ़ा रहा है। हालांकि, महिलाओं के लिए स्थापित महिला चरखा समिति और उससे जुड़ी पुस्तकालय में भी अब उपस्थिति कम हो गई है। जो दुखद है।”
ज्ञातव्य हो कि राष्ट्र का ध्यान बॉम्बे के जसलोक अस्पताल के एक कमरे पर केंद्रित था, जहाँ जनता पार्टी के संरक्षक संत जयप्रकाश नारायण जीवन के लिए संघर्ष कर रहे थे। एक तरह से, राष्ट्र ने उन्हें उनके सबसे गंभीर संकट के समय में फिर से खोजा। इससे पहले, प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने पदभार ग्रहण करने के बाद से सरकार की सबसे असंवेदनशील गलती की, जब जेपी की “मृत्यु” की खबर लोकसभा में घोषित की गई।
ऐतिहासिक फोटो-पत्रकार/संपादक’ रघु राय जय प्रकाश नारायण के आंदोलन के चश्मदीद गवाह थे। जिस दिन जय प्रकाश नारायण पर पटना की सड़कों पर लाठी प्रहार हुआ था, रघु राय उनके बगल में, उसी जीप पर सवार थे चालक के पास लटके हुए। जेपी पर लाठी प्रहार की वह तस्वीर दो दिन बाद दिल्ली से प्रकाशित स्टेट्समैन अखबार के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित हुई थी। उधर संसद अपने सत्र में था। उस तस्वीर को देखकर एक और जहाँ सत्ता पक्ष के लोग लाठी प्रहार को गलत कह रहे थे, सत्ता से पदच्युत करने वाले सत्ताधारियों की तीव्र आलोचना कर रहे थे। रघु राय की वह तस्वीर भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में भूचाल ला दी थी उन दिनों। पटना से लेकर भारत के प्रत्येक राज्यों में, दिल्ली में रघु राय ‘राय साहब’ हो गए।
रघु राय कहते हैं: “उस दिन 4 नवम्बर था। मैं दिल्ली से पटना पहुँच गया था। सुबह-सवेरे तैयार होकर, कैमरे उठाकर मैं जयप्रकाश नारायण के कदमकुआं स्थित घर पर पहुँचने निकल गया था। घर पर बहुत उथल-पुथल नहीं था। शांति थी। एक जीप सामने लगी थी। कुछ तीन-चार छात्र वाहिनी के युवक-युवतियां उपस्थित थी। लोगों की उपस्थिति नहीं देखकर किसी ने जेपी साहब को सलाह दिया कि या तो यात्रा रोक देते हैं अथवा कुछ समय और प्रतीक्षा करते हैं। इन शब्दों को सुनकर जेपी साहब कहते हैं ‘ना’ ‘ना’, हम जो भी हैं निकलेंगे और निकल लिए। “जब चलने की बात आई तब मैं जेपी साहब से कहा कि क्या मैं चालक के तरफ रह सकता हूँ? मैं किसी तरह कुछ स्थान बनाकर चालक की ओर खड़ा हो गया। तस्वीर लेने के लिए हमें कुछ स्थान भी चाहिए था और सामने जेपी साहब भी। हम लोग जब निकले अधिकाँश लोगों के घरों के द्वार बंद थे। कुछ चलने पर एक-दो- मंजिले मकान की खिड़कियों पर खड़े दो-चार लोग दिखे जो जेपी साहब को नमन कर रहे थे, हौसला बढ़ा रहे थे। जिंदाबाद – जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे। यह देखकर हम सबों का मनोबल बढ़ा। मैं और मेरा कैमरा अपना काम कर रहा था – क्लिक-क्लिक।”
राय साहब कहते हैं: “जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते गए दो, चार, दस, बीस लोग साथ होते गए। सड़क पर स्थानीय प्रशासन के तरफ से बहुत अधिक मात्रा में सुरक्षा की व्यवस्था थी। स्थानीय पुलिस (पटना पुलिस, बिहार पुलिस) के अलावे केंद्रीय रिजर्व पुलिस के बल तैनात थे। लेकिन टुकड़ियों में लोगों का हम लोगों के साथ मिलने के कारण जन सैलाब क्रमशः बढ़ रहा था। जैसे-जैसे घडी की सुई आगे बढ़ रही थी, जेपी साहब के प्रति लोगों का विस्वास भी बढ़ रहा था। उनके घर से आगे निकलने पर धीरे-धीरे उनके जीप के पीछे, आगे, दाहिने-बाएं सैकड़ों, हज़ारों की संख्या में लोग चलने लगे थे। रास्ते में विशाल जन सैलाब हो गया था।”
“कई घंटे बाद हम सभी आयकर चौराहे के पास पहुंचे थे। वहां की सुरक्षा व्यवस्था बहुत ही मजबूत थी। एक तरफ जनसैलाब था तो दूसरे तरफ वर्दी-टोपी धारी पुलिस बल। अब तक यह स्पष्ट हो गया था कि कुछ होने वाला है। मैं तो जेपी के साथ था, इसलिए यह देख नहीं पाया कि और कितने छायाकार है। तभी अचानक पहले अश्रु गैस के गोले चले और फिर लाठी प्रहार। उस भगदड़ में कैमरा और स्वयं को सँभालते, सुरक्षित रखते क्लिक-क्लिक करता रहा।

वरिष्ठ पत्रकार पद्मश्री सुरेंद्र किशोर कहते हैं कि “जयप्रकाश नारायण के सिद्धांतों को समझना और उसे पालन करना आज के नेताओं के लिए मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी है। जयप्रकाश नारायण के आदर्शों को समझना आज के नातों के वंश में नहीं है। आज उनकी नजरों में सिर्फ और सिर्फ जातिगत सामाजिक समीकरण, जो अंततः मतों में बदलता है, महत्वपूर्ण है।”
सरयू राय, लालू प्रसाद यादव, शिवानंद तिवारी, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, सुशील मोदी, राम बहादुर राय, वशिष्ठ नारायण सिंह, विक्रम सिंह, राम जतन सिन्हा, अशोक प्रियदर्शी और न जाने कितने तत्कालीन छात्र नेताओं ने जय प्रकाश के कन्धों का इस्तेमाल किया गद्दी तक पहुँचने के लिए। लेकिन जो उस कालखंड के गवाह है वे शायद यह भी जानते होंगे की इन छात्र नेताओं का जेपी के साथ सानिग्ध 1974 के बाद हुई। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि जेपी की मृत्यु से पहले जेपी के नाम और गरिमा को इन नेताओं ने जितना शोषण किया, शायद कोई नहीं किया होगा। इन नेताओं ने जेपी के आदर्श सिद्धांतों, विचारों को कभी ग्रहण नहीं किया बल्कि सत्ता में बैठने के लिए साम-दंड-भेद सभी हथकंडों का इस्तेमाल किया। जेपी के सिद्धांतों को अमल करना या उस पर चलना इन नेताओं के कूबत में नहीं है। जिस आंदोलन के मूल्य को लेकर जेपी चले थे, इन नेताओं की नज़रों में उसका मूल्य बदल गया। अगर ऐसा नहीं होता तो शायद कदमकुआं स्थित जेपी के घर अथवा उस मंदिर का जहाँ दूसरी स्वतंत्रता आंदोलन की बुनियाद पड़ी थी, आज यह हश्र नहीं होता। आज कदमकुआं की उस तंग गलियों में जेपी का घर गम हो गया है। बड़े-बड़े महल, अट्टालिकाएं चतुरदिक बमन गयी है।
वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानवर्धन मिश्र कहते हैं: “यही अंतर है कांग्रेस की सोच में और गैर-कांग्रेसी नेताओं में। हम देश की बात नहीं करेंगे अभी, लेकिन पटना में रहने वाले जान उन छात्र नेताओं को एक नजर याद करते हैं तो पाते हैं कि वे सभी नेता जिन्हें पैजामा का नारा बाँधने का ज्ञान नहीं था जयप्रकाश नारायण द्वारा 1974 आंदोलन का नेतृत्व सँभालने, आज आकाश में कहाँ से कहाँ उड़ रहे हैं, जबकि जेपी का वह ऐतिहासिक घर, परिसर रसातल में चला गया है, उपेक्षित पड़ा है। चाहिए तो यह कि उस सम्पूर्ण परिसर का इतना विकास किया जाता कि विश्व के लोग यहाँ आते। उस संत के विचारों से अवगत होते।

ज्ञानवर्धन आगे कहते हैं: कुंभरार के विधायक अरुण कुमार सिंह का घर इसी कदमकुआं इलाके के लोहानीपुर में है। नवीन किशोर प्रसाद सिन्हा के पुत्र नितिन नवीन आज नीतीश कुमार मंत्रिमंडल में मंत्री हैं। वे बांकीपुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक हैं। प्रदेश के डिप्टी मुख्यमंत्री विजय सिन्हा का विशालकाय भवन इसी इलाके में हैं। लेकिन सवाल यह ही कि ऊँचे-ऊँचे, बड़ी-बड़ी खिड़कियों वाले चमचमाता मकानों में रहने का अर्थ तो यह नहीं है कि मानसिकता भी बेहतर हो, सोच भी बेहतर हो जो जेपी जैसे संत का सम्मान कर सके। इतिहास को जीवित रखकर अगली पीढ़ियों को सौंपने का काम कर सके। लालू यादव, नीतीश कुमार या ने लोगों की बात करना ही व्यर्थ है। ये सभी नेता जन्मदिन और मृत्यु दिवस पर माल्यार्पण करने के लिए ही अवतरित हुए हैं। आपको दृष्टान्त देखना है तो इन मंत्रियों के आवास के सामने से निकलने वाली सड़कें जो जेपी के घर तक जाती है – दुर्दशा देख लें।”
विगत वर्ष जेपी के जन्म स्थान सिताब दियारा गए थे केन्द्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह जेपी की भूमिका पर वे अपने भाषण में कहे 1973 में गुजरात में तत्कालीन सरकार ने सार्वजनिक रूप से धन उगाही का काम सरकार को दे दिया, जिससे बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार शुरू हो गया। इसके खिलाफ श्री जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में गुजरात के छात्रों ने एक सशक्त आंदोलन किया और गुजरात में सरकार बदल दी। इसके बाद बिहार में भी आंदोलन हुआ। आपातकाल की घोषणा कर दी गई और जयप्रकाश नारायण के साथ-साथ विपक्ष के कई नेताओं को जेल में डाल दिया गया। जयप्रकाश नारायण ने आपातकाल लगाने वाली भ्रष्ट और अन्यायी सरकार के खिलाफ पूरे विपक्ष को एकजुट करके देश में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनाई। जे.पी. ने सत्ता से बाहर रहकर देश के सामने परिवर्तन का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया।
बिहार के वरिष्ठ पत्रकार और जाने मने राजनीतिक विशेषज्ञ लव कुमार मिश्र कहते हैं ‘आज बिहार के सिंहासन से लेकर बिहार का प्रतिनिधित्व करने वाले दिल्ली के संसद और मंत्रालय में बैठने वाले सैकड़े नब्बे फीसदी नेता जय प्रकाश नारायण के आंदोलन के उपज है। अगर जेपी अपना कन्धा नहीं दिया होता तो शायद उनकी वह पहचान नहीं हो पाती जो आज स्वयं को कह रहे हैं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जिस कंधे का इस्तेमाल कर वे ऊपर बढ़ें ऊपर चढ़ें अपने राजनीतिक गुरु को ही राजनीति में चढ़ावा चढ़ा दिया। जेपी अपने जीवन में 76 वर्ष में अंतिम सांस लिए। साल 1979 था। उनके देहांत के बाद बिहार के मुख्यमंत्री कार्यालय में दस लोग मुख्यमंत्री बने। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि किसी ने भी सैद्धांतिक और व्यावहारिक रूप में जयप्रकाश नारायण को वह सम्मान नहीं दिए जिसके वे हकदार थे।”

मिश्रा का कहना है “जय प्रकाश नारायण के सिद्धांतों में कहीं इस बात का दृष्टान्त नहीं मिलता है कि आप राष्ट्र की उन्नति, प्रदेश के विकास को त्याग कर अपने, अपने परिवार, अपने इष्ट-अपेक्षित, सगे सम्बन्धियों का विकास करें। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को सत्तर से पदच्युत कर आम लोगों के प्रतिनिधित्व को सत्ता के सिंहासन पर बैठने का हिम्मत कोई कर सका तो वह जय प्रकाश नारायण थे। लेकिन आज ने नेताओं की मानसिक स्थिति को देखकर कभी नहीं लगता कि उन्हें अपने राजनीतिक पथ-प्रदर्शक के प्रति कोई भी सम्मान है। वे जन्मदिन और मृत्यु दिवस पर हनुमान मंदिर के पास से गेंदा का माला लेकर उन्हें अर्पित कर देते हैं, जेपी के प्रति उनका सम्मान वहीँ समाप्त हो जाता है। आज सभी अवसरवादी है। आज के नेताओं को, यहाँ तक कि जो उस आंदोलन के पैदाइश हैं, जेपी के सिद्धांतों, विचारों से कोई वास्ता नहीं है। वैसी स्थिति में उनके आवास को एक धरोहर के रूप में विकसित करने की बात उन्हें सोचना, उनकी सोच से परे हैं।”
अमित शाह ने कहा था कि 1974 में जयप्रकाश जी ने बिहार में जो अराजनीतिक आंदोलन शुरू किया था, उसमें सभी विचारधाराओं के छात्रों ने हिस्सा लिया था। जेपी का नाम लेकर राजनीति में आए लोग अब पाला बदल कर जेपी के सिद्धांतों को दरकिनार कर सत्ता के सुख के लिए विपक्ष की सरकार में बैठे हैं। उनके अनुसार आने वाली पीढ़ी जेपी के विचारों से प्रेरणा लेकर देश के विकास को नई गति दे सके, इसके लिए यहां स्मारक के साथ ही एक शोध केंद्र बनाने का भी निर्णय लिया। यहां शोध केंद्र बनने के बाद छात्र जेपी के सिद्धांतों और ग्रामीण विकास के लिए किए गए उनके कार्यों पर शोध कर सकेंगे। लेकिन किसी ने भी यह प्रश्न नहीं पूछा कि ‘सिताब दियारा’ क्यों, कदमकुआं क्यों नहीं?”

पटना की गलियों के साथ-साथ गाँव-गाँव से परिचित बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के पूर्व संवाददाता मणिकांत ठाकुर कहते हैं: “इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है। हम सभी जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के प्रथम द्रष्टा हैं। हम भी देखे हैं, लिखें हैं, आप भी देखे हैं। लेकिन सबसे बड़ी बिडंबना यह है कि जिस सपने को लेकर जय प्रकाश नारायण ने सम्पूर्ण क्रांति का नारा बुलंद किये, जिस सिद्धांत को लेकर वे राष्ट्र के युवकों, खासकर बिहार के तत्कालीन युवकों को आह्वान किये – परिवर्तन हो – सत्ता, समाज, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक क्षेत्रों में मौलिकम बदलाव आये – वह सपना ही चकनाचूर हो गया। आज बिहार में जितने भी सफेदपोश नेता दिख रहे हैं, उसमें अधिकांशतः उस आंदोलन के हिस्सा हैं। लेकिन जयप्रकाश नारायण शायद यह नहीं समझते थे कि आज जो स्वयं को उनका अनुयायी कह रहे हैं, कल प्रदेश को जातिवाद, परिवादवाद, घोटलावाद और सभी प्रकार के कुकर्मों में धकेल देंगे।”
मणिकांत ठाकुर कहते है: आज जयप्रकाश के सिद्धांतों पर आज के नेताओं का कुकर्म अधिक भारी हो गया है। फिर उनके सिद्धांतों के बारे में, उनके घरों के बारे में कौन सोचेगा? मैं तो यह भी कहूंगा कि शायद आज के नेताओं को आत्मग्लानि होती होगी। वे जेपी की तस्वीरों से भी नजर मिलाने लायक स्वयं को नहीं पाते होंगे। आज जेपी के घर तक पहुँचने वाली गली नेताओं की बंद मानसिकता का द्योतक बन गयी हैं। यह दुर्भाग्य है।”
क्रमशः