#भारतकीसड़कों से #भारतकीकहानी (4) ✍️ लालकुआं (गाजियाबाद)

मैं जानता हूँ कि भारत की कुल आवादी में मेरा स्थान कीड़े-मकोड़ों जैसा भी नहीं है, नगण्य है, शून्य है। चाहे सामाजिक हो, आर्थिक हो, सांस्कृतिक हो, बौद्धिक हो या फिर कुछ और जो मापदंड के आधार पर मनुष्य को पृथक कर ‘संभ्रांत’ बनता है। सामाजिक क्षेत्र के इस ऐतिहासिक स्थान (फेसबुक) पर यह बात लिखते मुझे तनिक भी संकोच नहीं हो रहा है, शर्म नहीं हो रहा है।

लेकिन, मैं यह भी जानता हूँ कि भारत के कुल 135 करोड़ की आवादी में “मैं” “अकेला” व्यक्ति हूँ, “पत्रकार” हूँ (जहाँ तक मैं समझता हूँ) जो सन 1857-1947 जंगे आज़ादी में अपने प्राणों को उत्सर्ग करने वाले क्रांतिकारियों के आज के वंशजों को ढूंढकर, अपने सामर्थ भर किताबों से उनकी जिंदगियों में मुस्कान ला रहा हूँ। सुबह-सवेरे जब आईने में अपनी छवि देखता हूँ तो अपने पूर्वजों, माता-पिता, गुरुजनों द्वारा प्रदत ज्ञान और संस्कारों पर नाज होता है, गर्व महसूस करता हूँ, फर्क से सर ऊँचा रहता है। खैर।

मैं जहाँ बैठा हूँ वह स्थान भारतीय स्वाधीनता संग्राम का एक अहम् स्थान है। यह है ऐतिहासिक #लालकुआं, देश की राजधानी दिल्ली से कोई 25 किलोमीटर दूर दिल्ली-गाजियाबाद-मेरठ सड़क पर स्थित है यह स्थान। कभी यह किसानों के लिए उन्नत इलाका हुआ करता था। सड़क के दोनों तरफ दूर-दूर तक हरियाली नजर आती थी। फसल लगे होते थे। किसानों के चेहरों पर मुस्कान होता था। आज लालकुआं एक औद्योगिक क्षेत्र हो गया है। पूर्व-प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी की दूरगामी सोच के कारण आज दिल्ली-मेरठ की दूरी न्यूनतम हो गयी है, सोच से परे ।

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ऐतिहासिक दृष्टि से सन 1857 #मेरठक्रांति के बाद जब दिल्ली पर धाबा बोला गया था, हज़ारों-हज़ार क्रांतिकारी जब गाजियाबाद के रास्ते मेरठ से दिल्ली स्थित लालकिला की ओर निकल पड़े थे, इस स्थान के पास सैकड़ों क्रांतिकारी मृत्यु को प्राप्त हुए। तत्कालीन ब्रितानिया हुकूमत के अफसरान, पुलिस अधिकारी उन क्रांतिकारियों को मृत्यु के घाट उत्तर दिए थे। क्रांतिकारियों का लहू-लहान पार्थिव शरीर इसी कुएं में फेंका गया था। उन दिनों खेतों के बीचोबीच यह कुआ था। इस कुएं के पानी का प्रयोग किसान पीने के लिए करते थे। दिल्ली का रास्ता भी उन्हीं खेतों के बीच से निकलता था जहाँ किसानों के पसीने से फसल लहराते थे। लेकिन उस दिन खून से लथपथ क्रांतिकारियों का पार्थिव शरीर इस कुएं के पानी को लाल कर दिया था। मेरठ का यह हिस्सा लाल कुआं के नाम से विख्यात हुआ। इस ऐतिहासिक कुएं की जो दशा वर्तमान में हैं, यह इसका हकदार नहीं है।

सन 1857-1947 के क्रांतिकारियों के वंशजों की खोज से संबंधित हमारे दो दशक पुराने प्रयास का मानना है कि यह महज एक कुआं नहीं, बल्कि स्वतंत्र भारत का आराध्य है। सैकड़ों लोगों ने मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों को यहाँ की मिट्टी को अर्पित किया है, अपने लहू से मिट्टी को, कुएं को स्नान कराया है, तभी यह स्थान लाल कुआं कहलाया। इसका बेहतरीन रख-रखाव आज की पीढ़ी कर सकती है, कल की पीढ़ी को भारत का इतिहास सुपुर्द करने के लिए।

एक भारतीय होने के नाते, एक पत्रकार होने के नाते, मैं अपने कर्म का निर्वाह कर रहा हूँ। अब तक सन 1857-1947 क्रांति के 75 शहीदों के वंशजों को ढूंढा हूँ भारत में। छः किताबों से छः परिवारों का जीवन भी बदला हूँ। शेष आप सभी विद्वान, विदुषी हैं🙏

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