माँ मुंडेश्वरी ‘बलि’ नहीं लेतीं, ‘जीवित जीव’ स्वयं समर्पित हो जाता है कुछ क्षण के लिए

माँ मुंडेश्वरी

आप विस्वास करें अथवा नहीं – लेकिन बिहार में दो शक्ति-स्थल ऐसे हैं जहाँ समय के साथ-साथ माँ की आखें और स्वरुप तथा शिवलिंग का रंग बदलता है। एक विचित्रता और भी है। जहाँ सहरसा के उग्रतारापीठ में “बलि-प्रदान” किया जाता है, माँ भगवती को बलि-प्रदान किया जाया है; वहीँ मध्य बिहार के कैमूर जिले के एक मंदिर में जीवित बकरा माँ के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। एक मन्त्र और चावल जैसे ही उस जीव पर पहुँचता है, वह क्षणभर के लिए बेहोश हो जाता है। मान्यता यह है कि वह उस क्षणभर में स्वयं को देवी को समर्पित कर देता है।

उत्तर बिहार के सहरसा जिले के मेहषी के रहने वाले हैं और वहां स्थित तारापीठ में माँ भगवती का दर्शन किये हैं – वे इसे अवश्य स्वीकार करेंगे की सुवह, दोपहर और संध्याकाळ में माँ तारा के चेहरे का भाव बदलता है। इसी तरह कैमूर जिले के माँ मुंडेश्वरी का जो भी लोग दर्शन किये होंगे – इन बातों का साक्षात् गवाह भी बने होंगे।

मंडन मिश्र की पत्नी विदुषी भारती से आदिशंकराचार्य का शास्त्रार्थ यहीं हुआ था जिसमें शंकराचार्य को पराजित होना पड़ा था।  महिषी उग्रतारा स्थान के संबंध में ऐसी मान्यता है कि सती का बायां नेत्र भाग यहां गिरा था। मान्यता यह भी है कि ऋषि वशिष्ठ ने उग्रतप की बदौलत भगवती को प्रसन्न किया। उनके प्रथम साधक की इस कठिन साधना के कारण ही भगवती उग्रतारा के नाम से जानी जाती हैं। उग्रतारा नाम के पीछे दूसरी मान्यता है कि माता अपने भक्तों के उग्र से उग्र व्याधियों का नाश करने वाली है। जिस कारण भक्तों द्वारा इनकों उग्रतारा का नाम दिया गया। महिषी में भगवती तीनों स्वरूप उग्रतारा, नील सरस्वती एवं एकजटा रूप में विद्यमान है। ऐसी मान्यता है कि बिना उग्रतारा के आदेश के तंत्र सिद्धि पूरी नहीं होती है। यही कारण है कि तंत्र साधना करने वाले लोग यहां अवश्य आते हैं। नवरात्रा में अष्टमी के दिन यहां साधकों की भीड़ लगती है।

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तारापीठ, सहरसा

इसी तरह, बिहार के कैमूर जिले में मां मुंडेश्वरी का एक अनोखा और प्राचीन मंदिर स्थित है। यह मंदिर बिहार के कैमूर जिले के भगवानपुर अंचल में कैमूर पर्वतश्रेणी की पवरा पहाड़ी पर 608 फीट ऊंचाई पर है। इस मंदिर में माता के कई चमत्कार दिखाई देते हैं और साथ ही प्राचीन शिवलिंग की महीमा भी बहुत अद्भुत है। इस मंदिर का संबंध मार्केणडेय पुराण से जुड़ा है। मंदिर में चंड-मुंड के वध से जुड़ी कुछ कथाएं भी मिलती हैं। चंड-मुंड, शुंभ-निशुंभ के सेनापति थे जिनका वध इसी भूमि पर हुआ था। यहां बकरे की बलि दी जाती है लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है की उसकी मौत नहीं होती। मंदिर में हिंदू ही नहीं बल्कि अन्य धर्मों के लोग भी बलि देने आते हैं और आंखों के सामने चमत्कार होते देखते हैं। श्रद्धालुओं का कहना है की मां मुंडेश्वरी से सच्चे मन से मांगी हर मनोकामना पूरी होती हैं।  

श्रृद्धालुओं के अनुसार मंदिर में बकरे की बलि की प्रक्रिया बहुत अनूठी और अलग है। यहां बलि में बकरा चढ़ाया जाता है, लेकिन उसका जीवन नहीं लिया जाता बल्कि उसे मंदिर में लाकर देवी मां के सामने खड़ा किया जाता है, जिस पर पुरोहित मंत्र वाले चावल छिड़कता है। उन चावलों से वह बेहोश हो जाता है, फिर उसे बाहर छोड़ दिया जाता है। इस चमत्कार को देखने वाले अपनी आंखो पर यकीन नहीं कर पाते हैं। इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता पशु बलि की सात्विक परंपरा है। 

कैमूर जिले में मां मुंडेश्वरी का मंदिर

चंड-मुंड नाम के असुर का वध करने के लिए देवी यहां आई थीं तो चंड के विनाश के बाद मुंड युद्ध करते हुए इसी पहाड़ी में छिप गया था। यहीं पर माता ने मुंड का वध किया था। इसलिए यह माता मुंडेश्वरी देवी के नाम से प्रसिद्ध हैं। पहाड़ी पर बिखरे हुए कई पत्थर और स्तंभ बीखरे हुए हैं जिनको देखकर लगता है की उनपर श्रीयंत्र, कई सिद्ध यंत्र-मंत्र उत्कीर्ण हैं। 

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मां मुंडेश्वरी के मंदिर में गर्भगृह के अंदर पंचमुखी शिवलिंग है। मान्यता है कि इसका रंग सुबह, दोपहर व शाम को अलग-अलग दिखाई देता है। कब शिवलिंग का रंग बदल जाता है, पता भी नहीं चलता। यहां मंदिर के पुजारी द्वारा भगवान भोलेनाथ के पंचमुखी शिवलिंग का सुबह शृंगार करके रुद्राभिषेक किया जाता है।

बिहार के पुरातत्व विभाग अनुसार इस मंदिर का निर्माण जिस सिद्धांत पर हुआ है उस सिद्धांत का जिक्र अथर्ववेद में मिलता है। भगवान शिव की अष्ट मूर्तियों का जिक्र अथर्ववेद में दर्शाया गया है और उसी प्रकार का शिवलिंग मुंडेश्‍वरी शक्तिपीठ में आज भी देखा जा सकता है। तीन फुट नौ इंच ऊंचे चतुर्मुख शिवलिंग को चोरों ने काटकर चुरा लिया था। लेकिन बाद में इसे बरामद किया गया और उस शिवलिंग को मंदिर के गर्भगृह में स्थापित कराया गया।  

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