‘अनीता गेट्स बेल’ यानि भारतीय न्यायिक-व्यवस्था का कच्चा चिठ्ठा

​अनीता गेट्स बेल - किताब का कवर

अरुण शौरी की किताब, अनीता गेट्स बेल (अनीता को जमानत मिली) ​में ​भारतीय न्याय व्यवस्था का कच्चा चिट्ठा खोला गया है तो इस किताब में दिलचस्पी जगी। जैसा कि अब सार्वजनिक है, अनीता – अरुण शौरी की बीमार पत्नी हैं और फरीदाबाद की एक अदालत में हरियाणा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने उनके खिलाफ एक ऐसे प्लॉट पर अवैध निर्माण करने का मुकदमा किया था जो उनका था ही नहीं और जिसपर उन्होंने कभी कोई निर्माण किया ही नहीं। असल में यह प्लॉट 31 मई 2007 को उनके नाम दर्ज हुआ था जिसे उन्होंने ने 27 मार्च 2008 को बेच दिया था। यह देखे बगैर कि प्लॉट की क्या हालत है उसे “फार्म हाउस” कहा जाता रहा और बाद वाले खरीदार को भी अभियुक्त बना लिया गया।

इस संबंध में 2005 में एक कारण बताओ नोटिस आया था और 15 दिन के अंदर जवाब मांगा गया था। जवाब दिया गया पर आगे कुछ नहीं हुआ। 2007 में फिर चिट्ठी आई। इसका भी जवाब दे दिया गया और 27 मार्च 2008 को उन्होंने यह प्लॉट बेच दिया। इस बीच अरुण शौरी ने हरियाणा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारी को फोन पर सारी जानकारी दी और उनके कहने पर बिक्री से संबंधित सूचना और दस्तावेज जनवरी 2009 में उन्हें भेज दिया। पर इसका कोई फायदा नहीं हुआ और जुलाई 2014 में ऐसा ही एक नोटिस फिर आया। इसका भी जवाब अगले ही दिन दे दिया गया। इस सूचना के साथ कि 2005 से पत्र आ रहे हैं, जवाब दिया जाता रहा है पर लगता है कोई ध्यान नहीं दे रहा है और अब विशेष पर्यावरण अदालत, फरीदाबाद में मामला दर्ज हो गया है।

ये भी पढ़े   तिहाड़ जेल-7 ✍ तिहाड़ सहित ​भारत के कारावासों में सजा काट रही महिलाओं की 'प्रसव पीड़ा' बढ़ रही है 😢 बच्चे जन्म ले रहे हैं 🙏 न्यायालय चिंतित 😢 अधिकारी मूर्छित 😢

यह शिकायत 28 अक्तूबर 2009 को दाखिल हुई थी जब अरुण शौरी प्लॉट बेच चुके थे। कोई एक साल पहले। इसके बाद अदालत के समन जारी होते रहे जो उन्हें नहीं मिले और एक ही बार पता चला कि उनके लिए गिरफ्तारी वारंट है। कहने की जरूरत नहीं है कि अरुण शौरी अपने पिता के बनाए घर में वर्षों से रह रहे हैं और उनके पिता भी एक जानी-मानी हस्ती थे और दिल्ली में शौरी नाम ही (हालांकि एक नोटिस में नाम भी गलत लिखा है) उनके घर तक पहुंचने के लिए पर्याप्त है और पता न भी हो तो मामूली पूछताछ से भी पता लगाया जा सकता है कि वे कहां रहते हैं। फिर भी अदालत के समन उन्हें तामील नहीं हुए और एक ही बार वारंट आया।

अरुण शौरी

अरुण शौरी ने बताया है कि तमाम प्रयासों को बावजूद उन्हें अपनी बीमार पत्नी को लेकर अदालत जाना पड़ा। हालांकि, बाद में उन्हें कुछ लोग मिले जिन्होंने कहा कि वे उनकी सहायता कर सकते थे पर अरुण शौरी ने लिखा है कि उस समय कैसे पता चलता कि कहां कौन मेरी मदद कर सकता है। मैं तो उसी अदालत में गया जहां मामला था औऱ जो लोग सहायता कर सकते थे किया भी। पर कई तारीखों के बाद जमानत मिल पाई औऱ इस तरह अनीता उनके परिवार की पहली सदस्य बनी जो जमानत पर हैं। जिन्होंने जो समन कभी आए ही नहीं उन्हें प्राप्त नहीं किया। और ये समय उस घर के लिए थे जो हमने बनाए ही नहीं और उस प्लॉट पर बने घर के लिए थे जो हमारा है ही नहीं। इस पर मुझे याद आया कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कांग्रेस पार्टी के बारे में कहते हैं कि यह उन लोगों की पार्टी है जो बेल (जमानत) पर हैं।

ये भी पढ़े   कोई एक तो सच नहीं बोल रहा है: जेटली-माल्या का आरोप-प्रत्यारोप, प्रवर्तन निदेशालय और सलमान खान वाला "वॉन्टेड फिल्म"

पुस्तक में कई अन्य प्रमुख मामलों की चर्चा है। इसमें मोर के आंसू से बच्चा होने का ज्ञान देने वाले जज साब से लेकर जजों के अंग्रेजी ज्ञान और एक जज साहिबा के 15 लाख रुपए मिलते नाम वाले किसी दूसरे जज साब के पास पहुंच जाने, जजों के भ्रष्टाचार और उसपर कार्रवाई के मामले, जयललिता के पास आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में उनकी संपत्ति की गणना के फार्मूले से लेकर पूरे मामले की चर्चा जस्टिस डन, अनडन, रीडन (न्याय किया गया, पलटा और फिर किया गया) के नाम से एक अध्याय में की गई है। इसमें मुद्दई सुस्त, गवाह चुस्त जैसे हिन्दी के मुहावरे की चर्चा तो है ही एक अध्याय, “बने हैं अहले हवस मुद्दई भी मुंसिफ भी … ” है। यह सातवां अध्याय है इसमें अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री खलिको पुल की आत्महत्या और 60 पेज का हाथ का लिखा सुसाइड नोट, उसपर अदालती कार्रवाई, शोहराबुद्दीन की मुठभेड़ में हत्या, अमित शाह और जज लोया की हत्या से इसके संबंध आदि का भी उल्लेख है। और इसमें, “कैदी का दिल बहलाने को दरबान बदलते जाते हैं …. ” का भी जिक्र है।

पुस्तक में निचली अदालतों के हाल से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में मामलों पर क्या और कैसे कार्रवाई होती है का दिलचस्प चित्रण है। मीडिया के लिए पहले ही अध्याय में सलाह है कि सुप्रीम कोर्ट में जिन बड़े मामलों की चर्चा होती है उनकी जगह महीने में एक दिन किसी भी अदालत में रिपोर्ट भेजकर वहां उस दिन क्या सब हुआ कि रिपोर्ट करनी चाहिए ताकि पाठकों को देश में न्याय की दशा की सही तस्वीर मिल सकेगी। और शायद इससे कुछ सुधार हो सके। पर गोदी मीडिया को ऐसे सुझावों से क्या लेना-देना अभी तो किताब की चर्चा भी न के बराबर है। अरुण शौरी ने लिखा है कि उनसे लोगों ने कहा कि जब उन्हें इस तरह परेशान होना पड़ा तो आम लोगों की क्या हालत होगी। और उन्होंने लिखा भी है कि काफी कुछ उन्होंने स्वयं देखा।

ये भी पढ़े   Kiren Rijiju : Parliament is changing law but the interpretation will be done by the courts: Result: Over 11.4 lakh cases pending in family courts

“बने हैं अहले हवस मुद्दई भी मुंसिफ भी … ”

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here