‘छात्र-शिक्षकवृंद, मुख्यमंत्रीगण तो हैं ही, बिहार के ‘विश्वविद्यालयों में नेस्तनाबूद शैक्षिक वातावरण के लिए 42 ‘कुलाधिपति’ भी उतने ही हैं ‘जिम्मेदार’ हैं  परन्तु ‘ज्ञान’ सभी देते हैं (भाग-1)

राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान बीएन कॉलेज परिसर में

पटना: सम्भवतः विगत तीन दिनों से देश के वरिष्ठ पत्रकारों, नेताओं, विशेषज्ञों से पूछ रहा हूँ कि क्या भारत के संविधान में ऐसा कोई प्रावधान है कि किसी राज्य का व्यक्ति अपने राज्य का राज्यपाल नहीं बन सकता है। संविधान के अनुच्छेद 153 और 157 के तहत राज्यपाल हेतु जो अहर्ताएं निर्धारित हैं, उसका पालन होना आवश्यक है। लेकिन सबों का उत्तर ‘नकारात्मक’ ही रहा। आज़ादी के बाद आज तक एक राज्य में जन्म लिए व्यक्ति दूसरे राज्य का राज्यपाल बनते आ रहे हैं और कहते हैं ‘यही परम्परा’ है। वैसे प्रदेश का एक व्यक्ति का अगर अपने प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने में कोई संवैधानिक अर्चन नहीं है, तो राज्यपाल / कुलाधिपति के मामले में भी देश के विद्वान-विदुषियों को, राजनीतिक विशेषज्ञों को इस दिशा में पहल करनी चाहिए। बदलाव की शुरुआत करने की अपेक्षा की नजर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर ही उठती है, क्योंकि मोदी जी हैं तो मुमकिन है। 

जब अपने प्रदेश के नेता अपने ही पंचायत क्षेत्र, विधानसभा क्षेत्र, लोकसभा क्षेत्र, राज्यसभा क्षेत्र का विकास मतदाताओं के नाक रगड़ने पर भी नहीं करते (विधानमंडल/संसद द्वारा विधायकों/सांसदों को विकास के लिए अनुमोदित राशि का आवंटन और बिना खर्च उस राशि का पड़ा होना आंक लें), तो फिर दूसरे प्रदेश से आयातित राज्यपाल उस प्रदेश के विकास में कितना भूमिका निभाएंगे – यह एक गंभीर शोध का विषय है। वजह यह है कि आज़ादी के बाद बिहार में अब तक दूसरे राज्यों से 42 महानुभाव (मोहतरमा नदारत) आयातित हुए और राज्यपाल की कुर्सी पर विराजमान हुए। हालांकि,  प्रदेश के राज्यपाल बिहार  के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति भी होते हैं, दुर्भाग्यवश  प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करने में ‘सूई मात्र’ भी पहल नहीं किये विगत 78 वर्षों में  – कुलाधिपति का कार्यालय गवाह है। 

दूसरी ओर, जब आज के परिपेक्ष में प्रदेश की राजनीतिक व्यवस्था को देखते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि बिहार के वर्तमान राज्यपाल/बिहार के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति भी हैं, जिस कार्य की शुरुआत केरल में किये थे, बिहार में दोहरा रहे हैं। यह मैं नहीं, राजनीतिक धनुर्धर कह रहे हैं। अपनी राज्यपाल की सेवा अवधि के दौरान केरल में आरिफ मोहम्मद खान के साथ स्थानीय सरकार से नोकझोंक भी हुई थी, अखबारों के पन्ने गवाह हैं। वे ‘विवाद’ में भी आये। वैसी स्थिति में इस बात से इंकार नहीं कर सकते हैं कि आने वाले दिनों में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए भी उनकी गतिविधि ‘अपच्य’ हो जाय। 

वैसे नीतीश कुमार अपने कार्यकाल में अब तक कभी भी छात्रों के साथ ‘पन्गा’ नहीं लिए, भले प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था रसातल में चली गयी हो, चली जा रही हो। नब्बे के दशक के प्रारंभिक वर्षों से आज तक विगत 35 वर्षों में प्रदेश का कमान जिन दो व्यक्तियों – लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार – के हाथों केंद्रित रहा, प्रदेश में शिक्षा के विकास को कितना महत्व दिया, यह वर्तमान स्थिति से आँका जा सकता है। इतना ही नहीं, पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव, उनकी पत्नी पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी, उनके दोनों पुत्र – एक पूर्व उप-मुख्यमंत्री और दूसरे पूर्व मंत्री – की नज़रों में शिक्षा का क्या महत्व रहा, यह उनकी शैक्षणिक योग्यता दर्शाता है। राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि ‘वैसे वर्तमान राज्यपाल और कुलाधिपति आरिफ मोहम्मद खान भी छात्रों की ताकत को जानते हैं और प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तो जानते ही नहीं। 

राज्यपाल के रूप में शपथ लेते आरिफ मोहम्मद खान

आरिफ मोहम्मद अन्य राज्यपालों/कुलाधिपतियों जैसे नहीं हैं।  इनका कार्य करने का तरीका कुछ अलग है। प्रदेश के मुख्यमंत्री (पूर्व मुख्यमंत्री सहित), नीतीश कुमार मंत्रिमंडल के किसी भी मंत्री से अधिक शिक्षित, जुझारू हैं। वाक्पटुता अधिक है,  क्योंकि ये भी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्र नेता रह चुके हैं उसी कालखंड में जब नीतीश कुमार या लालू यादव पटना विश्वविद्यालो छात्र नेता बन रहे थे । आरिफ मोहम्मद खान अलीगढ़ मुस्लिक विश्वविद्यालय छात्र संघ के पहले सचिव (1972-73) बने और फिर अध्यक्ष (1973-74) बने। तीन साल बाद, उत्तर प्रदेश के सियाना विधानसभा क्षेत्र से विधायक (1977-80) बने। फिर सातवीं, आठवीं, नवमी और बारहवीं लोकसभा में कानपुर और बहराइच से सांसद बने। केंद्र में मंत्री भी रहे। लेकिन चर्चा में अपनी वाक्पटुता के कारण आये। नीतीश और लालू के जीवनवृत भी कुछ ऐसा ही है। हाँ, ये अकेले हैं और बिहार में नीतीश – लालू का समूह है। 

अब सवाल यह है कि क्या नीतीश कुमार अपने ही राज्य में, राज्य के बाहर से आये (ऐसा होता आया है) राज्यपाल के क्रियाकलापों पर अपनी पैनी निगाह नहीं रखे होंगे? यह माना नहीं जा सकता। आखिर विधानसभा का चुनाव आने वाला है। अगर चुनाब के मद्दे नजर प्रदेश में कोई राजनीतिक एजेंडा कार्य करना प्रारम्भ किया है तो निश्चित तौर पर नीतीश कुमार अपने राजनीतिक जीवन के इस पड़ाव पर बिहार के मतदाताओं की नज़रों में हंसी के पात्र नहीं बनना चाहेंगे? नितीश कुमार को चाहे कितने भी तथाकथित अलंकरणों से नवाजा गया हो, हकीकत तो यह अवश्य है कि उन्होंने सत्ता की गलियारे से लालू प्रसाद यादव और उनके परिवार को बहुत दूर कर दिया। हां, वर्तमान राजनीतिक समीकरणों के मद्दे नजर इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि नीतीश कुमार को भी राजनीति की मुख्यधारा (मुख्यमंत्री कार्यालय) से बाहर निकालने का प्रयास नहीं हो रहा है। कोई तो है जो नेपथ्य से सब कुछ कर रहा है। ऐसी स्थिति में आने वाले दिनों में आरिफ मोहम्मद खान – नीतीश कुमार – लालू यादव अख़बारों की सुर्ख़ियों में छा जाएँ। गाँठ बाँध लीजिये। 

पटना कॉलेज का ऐतिहासिक कॉरिडोर

हाक़ी-डैगर-बन्दूक-पिस्तौल के बीच बिलखती शिक्षा 

बहरहाल, हॉकी स्टिक से डैगर, फिर डैगर से कट्टा, कट्टा से बन्दूक, पिस्टल, बम तक आने में बिहार के विश्वविद्यालय परिसरों को चार दशक भी नहीं लगा। जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति के कालखंड और उसके बाद जिस तरह प्रदेश ने नेताओं ने बिहार के सभी विश्वविद्यालयों के छात्रों का स्वहित में इस्तेमाल कर शैक्षिक वातावरण को मिट्टी में मिलाया, आज अगर पटना विश्वविद्यालय के बिहार नेशनल कॉलेज परिसर में गोलियां चली तो विश्वविद्यालय के कुलाधिपति को इतनी तकलीफ क्यों हो रही है। वे भी तो छात्र आंदोलन के उपज हैं। आज़ादी के बाद अब तक बिहार में 42 राज्यपाल बने जो पटना विश्वविद्यालय सहित, बिहार सभी विश्वविद्यालयों कुलाधिपति भी थे। लेकिन इन वर्षों में कोई भी कुलाधिपति विश्वविद्यालय परिसर में शैक्षिक वातावरण का निर्माण कैसे हो, नहीं सोचे। अगर सोचे होते तो शायद प्रदेश की शैक्षिक व्यवस्था का यह हश्र नहीं होता। 

आज के लोगों को ज्ञात हो अथवा नहीं, लेकिन मुद्दत पहले पटना साइंस कॉलेज के प्रोफ़ेसर बिल्टू सिंह की हत्या की गयी थी। प्रोफ़ेसर रघुजी वर्मा को मौत के घाट उतार दिया गया था। वाणिज्य महाविद्यालय के प्रधानाचार्य प्रोफ़ेसर पी.एन. शर्मा पर बम फेंक कर कातिलाना हमला किया गया था। पटना साइंस कॉलेज के स्नातकोत्तर रसायन शास्त्र विभाग के प्रोफ़ेसर सिद्धेश्वर प्रसाद को 22 वर्ष पहले गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी। उसकी कालखंड में पटना कॉलेज के पूर्व अंग्रेजी विभागाध्यक्ष और पटना विश्वविद्यालय सीनेट के सदस्य प्रोफेसर शैलेंद्र धारी सिंह की उनके घर के पास निर्मम हत्या की गयी थी। पटना विश्वविद्यालय के ही दक्षिण एशियाई इतिहास विभाग की प्रोफ़ेसर पापिया घोष के साथ उनकी और उनकी बुज़ुर्ग नौकरानी मालती देवी की हत्या कर दी गई थी। पिछले वर्ष पटना लॉ कॉलेज परिसर में अंतिम वर्ष के एक छात्र, हर्ष राज, की हॉकी स्टिक, लोहे की रॉड, ईंट और लाठी से 10 से अधिक अज्ञात लोगों ने पीट-पीटकर हत्या कर दी।

सत्तर के दशक के बाद आज तक, न केवल पटना विश्वविद्यालय, बल्कि बिहार के सभी विश्वविद्यालयों में कितनी गोलियां चली, कितने बम्ब फटे, कितने हॉकी स्टिक का इस्तेमाल कर अपना-किताब बराबर किया गया, यह इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है की बिहार के शिक्षा मंदिरों को अब ईंट की दीवारों से, लोहे के ग्रिलों से जकड़ दिया गया है। आखिर इन गिरती, लुढ़कती मानसिकता, व्यवस्था के कालखंडों में भी तो इन विश्वविद्यालयों में कुलपति थे, प्रदेश में इन विश्वविद्यालयों की शैक्षणिक और प्रशासकीय व्यवस्था को देखने के लिए कुलाधिपति थे – लेकिन किसी ने कुछ भी नहीं किया। 

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पटना कॉलेज का प्रवेश द्वार

प्रदेश के कुलाधिपति ही जिम्मेदार है 

बिहार में धूल चाटती शिक्षा की स्थिति का अगर कोई एक व्यक्ति जिम्मेदार है तो वह है बिहार के ‘लाट साहब’, यानी प्रदेश के प्रथम नागरिक, जो संवैधानिक दृष्टि से सबसे सबल हैं और कल से लेकर आज तक के कुल 41 विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति हैं। आज बिहार में 41 विश्वविद्यालय है जिसमें 8 राष्ट्रीय स्तर के हैं, 4 केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं, २० राज्य विश्वविद्यालय हैं, 7 निजी विश्वविद्यालय हैं, 1 डीम्ड विश्वविद्यालय है और 4 केंद्र द्वारा पोषित। इन विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होने के नाते क्या अब तक राज्यपाल भवन में आये 42 कुलाधिपतियों का जबाबदेही नहीं था कि अपने सभी संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल कर प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था को अव्वल बनाते? शायद नहीं। 

आज़ादी के बाद भारत के 28 राज्यों और 8 केंद्र शासित प्रदेशों में पदस्थापित राज्यपालों, उप-राज्यपालों की कार्य अवधि और उस अवधि के दौरान राज्य का प्रथम नागरिक, संवैधानिक प्रमुख होने के नाते प्रदेशों का कितना विकास हो पाया है, इसकी विवेचना तो देश के वातानुकूलित कक्षों में बैठे राजनीतिक समीक्षक और विशेज्ञों के साथ-साथ अवकाशप्राप्त प्रदेश प्रमुख ही करेंगे, लेकिन हमारे प्रदेश बिहार में एक औसतन राज्यपालों की कार्य अवधि एक साल आठ महीने ही है। इन आठ महीनों में वे प्रदेश का विकास करने में सफल होंगे अथवा सेवा काल के समाप्ति के साथ ‘पोस्ट रिटायरमेंट बेनिफिट्स’ के साथ जीवन का समय गुजरेंगे, आज ही नहीं, आने वाले दिनों में भी राजनीतिक विशेषज्ञों और समाजशास्त्रियों के लिए बहुत बड़ा शोध का विषय रहेगा। दुर्भाग्य यह है कि प्रदेश के मुख्यमंत्रियों के अलावे इन विशेषज्ञों का ध्यान प्रदेश प्रमुख की ओर जाता ही नहीं है। 

बिहार के वर्तमान राज्यपाल श्री आरिफ मोहम्मद खान प्रदेश के राज्यपाल भवन की सूची पट्टिका में 42 वें स्थान पर अंकित हैं। आज़ादी के बाद सर्वप्रथम जयरामदास दौलतराम (15 अगस्त 1947-11 जनवरी 1948) प्रदेश के राज्यपाल बनाये गए।  उनकी कार्य अवधि छः माह की थी। आज प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का आधिकारिक आवास जिस सड़क पर स्थित है, वह सड़क (अणे मार्ग) बिहार के दूसरे राज्यपाल माधव श्रीहरि अणे के नाम से अंकित है। अणे 12 जनवरी 1948 – 14 जून 1952 तह राज्यपाल थे। इसने बाद आये आर. आर. दिवाकर (15 जून 1952 – 5 जुलाई 1957) और फिर  जाकिर हुसैन (6 जुलाई 1957 – 11 मई 1962) । जाकिर हुसैन के बाद एम. ए. एस. अय्यंगार (12 मई 1962 – 6 दिसम्बर 1967), नित्यानंद कानूनगो (7 दिसंबर 1967 – 20 जनवरी 1971), न्यायमूर्ति यू.एन. सिन्हा (कार्यवाहक) (21 जनवरी 1971 से 31 जनवरी 1971), देव कांत बरुआ (1 फरवरी 1971 से 4 फरवरी 1973) और रामचन्द्र धोंडीबा भंडारे (4 फरवरी 1973 से 15 जून 1976) प्रदेश के राज्यपाल बने। 

शायद बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि बिहार के एक लाट साहब अपने दो साल की कार्य अवधि में पटना के इतिहास को जानने और समझने में दिलचस्पी दिखाए और यत्र-तत्र-सर्वत्र धूमने की इच्छा भी जाहिर किये। प्रदेश के लाट साहब’ की इच्छा थी – पूरी तो होगी ही।  लाट साहब बिहार के नहीं थे। महाराष्ट्र में जन्म लिए बाबा साहब आंबेडकर के सहकर्मी भी थे और अनुयायी भी। दो बार सांसद भी बने। जिस कालखंड में वे बिहार के राज्यपाल थे उस कालखंड में बिहार के जनसम्पर्क निदेशक थे मोहम्मद सफी साहब और सफी साहब के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह थी की राज्यपाल के साथ पटना के इतिहास को बताने के लिए किस महानुभाव को लिया जाय। दो व्यक्तियों का नाम बार-बार आ रहा था श्री बेदार साहब (खुदाबक्श पुस्तकालय के निदेशक) और शिक्षाविद श्री सुरेंद्र गोपाल। परन्तु के आर्यावर्त अखबार के तत्कालीन समाचार संपादक श्री रामजी मिश्र मनोहर को चुने और दीघा से दीदारगंज तक गंगा में स्टीमर से भ्रमण किये। गंगा तट पर बसा प्रत्येक ऐतिहासिक स्थानों, भवनों को मनोहर साहब व्याख्या किये। अंत में भंडारे साहेब को कहना पड़ा कि “मनोहर जी आप पटना के इनसाइक्लोपीडिया हैं।” लेकिन इस भ्रमण सम्मलेन से बिहार को क्या मिला? प्रदेश के इतिहास को क्या मिला? ऐतिहासिक स्थलों को क्या मिला?

भंडारे के बाद राज्यपाल भवन में आये जगन्नाथ कौशल (16 जून 1976 से 31 जनवरी 1979), न्यायमूर्ति के.बी.एन. सिंह (कार्यवाहक) (31 जनवरी 1979 से 19 सितंबर 1979), अखलाकुर रहमान किदवई (20 सितंबर 1979 से 15 मार्च 1985), पी. वेंकटसुब्बैया (15 मार्च 1985 से 25 फरवरी 1988), गोविंद नारायण सिंह (26 फरवरी 1988 से 24 जनवरी 1989) तक। गोविन्द नारायण सिंह के बारे में उस कालखंड में चर्चाएं आम थी कि वे प्रदेश में स्थित सभी विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति होने के कारण कुलपतियों की कक्षा लेने में तनिक भी संकोच नहीं करते थे। वे राज्यपाल भवन के बाहर मैदान में बैठ जाते थे, जहाँ कुलपतियों की बैठक होती थी। डांट-फटकार होती थी और फिर सभी अपने-अपने रास्ते। अख़बारों में छपता था, आकाशवाणी पटना के प्रादेशिक समाचार में वाचन होता था। गोविन्द नारायण सिंह भी 11 महीने की अवधि पूरा कर घर चले गए। अब आये न्यायमूर्ति दीपक कुमार सेन (कार्यवाहक) (24 जनवरी 1989 से 28 जनवरी 1989), आर.डी. प्रधान (29 जनवरी 1989 से 2 फरवरी 1989), जगन्नाथ पहाड़िया (3 मार्च 1989 से 2 फरवरी 1990), न्यायमूर्ति जी.जी. सोहोनी (कार्यवाहक) (2 फरवरी 1990 से 16 फरवरी 1990), मोहम्मद सलीम (16 फरवरी 1990 से 13 फरवरी 1991), बी. सत्य नारायण रेड्डी (कार्यवाहक) (14 फरवरी 1991 से 18 मार्च 1991) तक। 

वरिष्ठ पत्रकार लव कुमार मिश्र

बिहार के वरिष्ठ पत्रकार लव कुमार मिश्र कहते हैं कि 1990 के बाद जब लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री बने, बिहार के विश्वविद्यालयों की स्थिति तेजी से बिगड़ गई। कुलपतियों की नियुक्ति में मेरिट की सबसे बड़ी क्षति हुई, और जातीय आधार पर नियुक्तियों की परंपरा शुरू हुई। विश्वविद्यालयों को विभिन्न जातियों के नाम पर “डिस्ट्रिब्यूट” कर कुलपति बनाए जाने लगे। राजभवन की जगह आर्य कुमार रोड की एक गली में राष्ट्रीय जनता दल के नेता रंजन प्रसाद यादव के घर कुलपतियों की बैठक होने लगी। यहीं पर उच्च शिक्षा विभाग के निदेशक और इंटरमीडिएट काउंसिल के अध्यक्ष भी बैठने लगे। यहीं नीतिगत फैसले लिए जाने लगे, यहां तक कि शिक्षकों के प्रोमोशन और डिमोशन के फैसले भी वहीं होते थे। तत्कालीन राज्यपाल मोहम्मद शफी कुरैशी, जो चांसलर भी थे, ने एक बार कहा था, “अब तो रंजन यादव सुपर चांसलर हो गए हैं।” एक कुलपति, जो दिल्ली-पटना राजधानी एक्सप्रेस से नेता जी के साथ सफर कर रहे थे, उनके साथ नेता जी का परिवार भी था। बच्चे ने कोच में शौच कर दिया, और कुलपति ने अपने हाथों से सफाई की।

लालू प्रसाद यादव के आगमन के साथ शिक्षा लज्जित होकर गंगा में गोंता लगाने लगी और पुरे प्रदेश में तथकथित नेताओं का जन्म होने लगा। इसी कालखंड में पहले राज्यपाल आये मोहम्मद शफी कुरैशी (19 मार्च 1991 से 13 अगस्त 1993), फिर आए अखलाकुर रहमान किदवई (14 अगस्त 1993 से 26 अप्रैल 1998), सुंदर सिंह भंडारी (27 अप्रैल 1998 से 15 मार्च 1999), न्यायमूर्ति बी.एम. लाल (अभिनय) (15 मार्च 1999 से 5 अक्टूबर 1999), सूरज भान (अतिरिक्त प्रभार) (6 अक्टूबर 1999 से 22 नवंबर 1999), वी. सी. पांडे (23 नवंबर 1999 से 12 जून 2003), एम आर जोइस (12 जून 2003 से 31 अक्टूबर 2004), वेद प्रकाश मारवाह (1 नवंबर 2004 से 4 नवंबर 2004), बूटा सिंह (5 नवंबर 2004 से 29 जनवरी 2006), गोपालकृष्ण गांधी (31 जनवरी 2006 से 21 जून 2006), आर. एस. गवई ( 22 जून 2006 से 9 जुलाई 2008), आर. एल. भाटिया (10 जुलाई 2008 से 28 जून 2009), देवानंद कोंवर (29 जून 2009 से 21 मार्च 2013), डी. वाई. पाटिल (22 मार्च 2013 से 26 नवंबर 2014), केशरी नाथ त्रिपाठी (अतिरिक्त प्रभार) (27 नवंबर 2014 से 15 अगस्त 2015) आदि। 

भारत के चौदहवें राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द पटना के राज्यपाल की कुर्सी से ही आये थे। वे 16 अगस्त 2015 से 20 जून 2017) तक लाट साहब थे। कोविंद साहब का राज्यपाल भवन में समय समाप्त हुआ, वे राष्ट्रपति भवन आ गए। उनके राज्यपाल के रूप में कार्यकर्ते समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बोध गया भ्रमण किये थे। बिहार के लोगों को आस्वाशन दिए की गया को सांस्कृतिक शहर बनाएंगे। कोविंद साहब राष्ट्रपति बनकर अवकाश भी ले लिए, प्रधानमंत्री पहली बार से तीसरी बार प्रधानमंत्री बने, गया और बोधा गया आज भी वैसा ही है। फिर राज्यपाल भवन में आये केशरी नाथ त्रिपाठी (अतिरिक्त प्रभार) (20 जून 2017 से 29 सितंबर 2017), सत्यपाल मलिक (30 सितंबर 2017 से 23 अगस्त 2018), लालजी टंडन (23 अगस्त 2018 से 28 जुलाई 2019), फाल्गुन चौधरी (29 जुलाई 2019 – 13 फरवरी 2023), राजेंद्र विश्वनाथ आर्लेकर 14 फरवरी 2023 से 1 जनवरी 2025 और आज विराजमान हैं आरिफ मोहम्मद खान (2 जनवरी 2025 से लगातार ) । 

प्रदेश के विश्वविद्यालय अभी तक 42 कुलाधिपतियों को आते-जाते देखा है। लेकिन शिक्षा व्यवस्था के साथ प्रदेश की अन्य व्यवस्था ‘अव्यवस्थित’ ही रहा, और आगे भी रहेगा। क्योंकि अगर 78 वर्ष की आज़ादी में प्रदेश के राज्यपाल निवास में 42 लाट साहेब ‘आये और गए’ तो पटना विश्वविद्यालय में अब तक 55 (आज़ादी के पहले 6 और 49 आज़ादी के बाद)  कुलपति का भी वही हश्र रहा।

इन वर्षों में जे. जी. जेनिंग्स (01.10.1917 -15.10.1920), वी. एच. जैक्सन (16.10.1920 से 14.10.1923), सर एस. सुल्तान अहमद (15.10.1923 – 11.11.1930), स्टीवर्ट मैकफर्सन (12.11.1930 से 22.08.1933), न्यायमूर्ति के. एम. नूर (23.08.1933 से 22.08.1936), सचिदानंद सिन्हा (23.08.1936 से 31.12.1944), सी. पी. एन. सिंह (01.01.1945 से 20.06.1949), सारंगधर सिंह (21.06.1949 से 01.01.1952), डॉ के एन बहल (02.01.1952 से 31.01.1953), वी.के.एन. मेनन (30.03.1953 से 31.12.1953), डॉ बासुदेव नारायण (01.01.1954 से 19.03.1957), डॉ बलभद्र प्रसाद (20.03.1957 से 11.07.1960), श्री बी एन राय (12.07.1960 से 28.02.1962), डॉ जॉर्ज जैकब (14.03.1962 से 13.03.1965), डॉ. के.के.दत्ता (14.03.1965 से 13.11.1970), महेंद्र प्रताप (14.11.1970 से 20.04.1972), के. अब्राहम (21.04.1972 से 07.05.1972), सचिन दत्त (08.05.1972 से 10.08.1973), श्रीमती रमोला नंदी (11.08.1973 से 16.09.1973), श्री डी. एन. शर्मा (17.09.1973 से 07.01.1977), डॉ. ए.के. धन (11.01.1977 से 24.08.1978), जी.एस. ग्रेवाल (25.07.1978 से 01.08.1978), डॉ. टी. बी. मुखर्जी (02.08.1978 से 31.07.1979), डॉ. आर. सी. सिन्हा (05.08.1979 से 08.08.1979) पटना विश्वविद्यालय के कुलपति बने। 

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सत्तर के दशक के अंत में पटना कालेज के प्राचार्य, स्नातकोत्तर अर्थशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. केदार नाथ प्रसाद कुलपति बने। वे 09.18.1979 से 21.04.1980 तक कार्यालय में थे। लव कुमार मिश्र कहते हैं: “पहले जब शारंगधर सिंह, के.के. दत्त, सचिन दत्त और महेन्द्र प्रताप जैसे विद्वान कुलपति होते थे, वे शिक्षा मंत्री के यहां भी नहीं जाते थे। स्वयं मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह पटना विश्वविद्यालय के कुलपति से सलाह लेने उनके घर जाते थे। 1977 तक पटना विश्वविद्यालय के कुलपति का आधिकारिक आवास गांधी मैदान के दक्षिण कोने पर था, जहां अब मौर्य होटल है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ. केदारनाथ प्रसाद, जो इंडियन एजुकेशन सर्विस के अधिकारी थे, ने मुख्य सचिव को लिखित आपत्ति दी थी कि उनकी अनुमति के बिना पटना कॉलेज में डीएम ने पुलिस भेज दी। उन्होंने कहा था कि वे प्रमंडल के आयुक्त से भी वरिष्ठ हैं। जब पटना के डीएम ने राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय में परीक्षा पर रोक लगाई, तो कुलपति अतर देव सिंह ने विरोध करते हुए परीक्षा का आयोजन कराया। वे भी इंडियन एजुकेशन सर्विस के अधिकारी थे।”

अस्सी के दशक के प्रारंभिक वर्षों में सबसे पहले कुलपति बने डॉ. आर. शुक्ला (22.04.1980 से 13.07.1981), डॉ. एस. पी. सिन्हा (14.07.1981 से 03.02.1983), डॉ. जी. पी. सिन्हा (04.02.1983 से 31.10.1985), डॉ. के. एन. प्रसाद (31.10.1985 से 17.04.1987), डॉ एस एन दास (18.04.1987 से 01.09.1988), डॉ ए एल साहा (02.09.1988 से 14.12.1988), डॉ. आर.के.अवस्थी (15.12.1988 से 25.06.1990), डॉ. एम. मोहिउद्दीन (26.06.1990 से 25.06.1993), राहुल सरीन (26.06.1993 से 05.05.1994), अनिल कुमार (06.05.1994 से 20.01.1995), डॉ. एस. एन. पी. सिन्हा (21.01.1995 से 20.01.1998), डॉ एस नज़र अहसन (21.01.1998 से 02.04.2001), डॉ एल एन राम (03.04.2001 से 23.06.2001), डॉ. के.के. झा (01.08.2001 से 31.07.2004), डॉ. विभाष के. यादव (01.08.2004 से 16.08.2004), डॉ.जगन्नाथ ठाकुर (16.08.2004 से 23.08.2005), डॉ सैयद एहतेशामुद्दीन (24.08.2005 से 20.11.2006), प्रो. वाई. सी. सिम्हाद्री (20.11.2006 से 21.01.2008), डॉ श्याम लाल (25.01.2008 से 24.01.2011), डॉ सुदीप्तो अधिकारी (25.01.2011 से 01.08.2011), प्रो. शंभु नाथ सिंह (02.08.2011 से 22.03.2013), प्रो. यू.के. सिन्हा (22.03.2013 से 26.04.2013), प्रोफेसर अरुण कुमार सिन्हा (26.04.2013 से 31.01.2014), प्रो. येदला सी. सिम्हाद्री (31.01.2014 से 31.01.2017), प्रो.सुधीर कुमार श्रीवास्तव (31.01.2017 से 01.05.2017), प्रो. रासबिहारी सिंह (02.05.2017 से 01.05.2020), प्रो. (डॉ.) एच.एन. प्रसाद (02.05.2020 से 23.09.2020), प्रो. (डॉ.) गिरीश कुमार चौधरी (23.09.2020 से 25.10.2023), प्रो. के.सी. सिंह (26.10.2023 से 03.05.2024), प्रो. अजय कुमार सिंह (03.07.2024 से ) और आज आरिफ मोहम्मद खान हैं। कल ये भी संख्या में जुड़ जायेंगे।  

मिश्र कहते हैं “यदि आज विश्वविद्यालयों की स्थिति खराब है, तो उसके लिए राज्यपाल भी जिम्मेदार हैं। पिछले 15 वर्षों में बिहार में कुछ ऐसे राज्यपाल भी आए, जिन पर खुले तौर पर यह आरोप लगे कि उनके करीबियों ने दो-दो करोड़ रुपये में कुलपति पद बेचे। एक बार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राजभवन द्वारा नियुक्त छह कुलपतियों की नियुक्ति को रोक दिया था। वर्तमान में सत्ता पक्ष के अनुषांगिक संगठनों द्वारा भेजे गए नामों पर नियुक्तियाँ हो रही हैं। एक कुलपति ने दावा किया कि उनका नाम “हाई कमान” से भेजा गया था। जब हम विद्यार्थी थे, तब कुलपति भी लेक्चर लेने आते थे। मुझे स्मरण है कि सचिन दत्त, जो केंद्र में वित्त सचिव थे, सेवानिवृत्त होकर पटना विश्वविद्यालय के कुलपति बने और पटना कॉलेज के बी.ए. लेक्चर थिएटर में इकोनॉमिक्स पढ़ाने आते थे। महेन्द्र प्रताप, जो कैम्ब्रिज से पीएचडी थे, अंग्रेजी का क्लास लेते थे। जॉर्ज जैकब और ए.के. धान, जो यूपीएससी के अध्यक्ष रहे थे, कुलपति रहते हुए भी कक्षाएं लेते थे। अब यदि राज्यपाल को पीड़ा हो रही है, रोना आता है, तो उन्होंने ऐलान कर दिया है – अब राजभवन में नहीं, कॉलेज में ही बैठकें होंगी।”

विगत शनिवार को बिहार के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने पटना में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में आरोप लगाये कि बिहार के विश्वविद्यालय अराजक तत्वों के हाथों सौंप दिए गए हैं। राज्यपाल ने पहले बीएन कॉलेज में हुई बम की घटना में एक छात्र की मौत पर रोआंसी आवाज में कहा कि मेरा दिल रोता है, जब सुनता हूं, जो कुछ भी यूनिवर्सिटी में हो रहा है। यह हैरत की बात है कि यूनिवर्सिटी में बम मार के तीन दिन पहले बच्चे की जान ले ली गई। राज भवन में मीटिंग हुई। कुलपति से पूछा कि उस मीटिंग में जो फैसले लिए गए थे, उस पर क्या कार्रवाई हुई उसकी रिपोर्ट भी अभी तक नहीं आई है? तो कुलपति ने कहा कि रिपोर्ट आ गई है। फिर कहते हैं यूनिवर्सिटी सरस्वती का मंदिर है और इसे अराजक तत्वों  के हवाले हमने कर दिया है। फिर हाथ जोड़कर कहने लगे कि हमारा देश ज्ञान की संस्कृति है, अगर ज्ञान के मंदिर में बम चलेंगे या ऐसी घटना होती है, जिससे शर्मिंदा होना पड़े, यह तो मैं कह भी नहीं सकता हूँ। कुलाधिपति महोदय विश्वविद्यालय परिसर में भ्रमण-सम्मलेन करने निकल गए। हॉस्टल में अवैध कब्जा को लेकर नाराज हो गए। लेकिन नीतीश कुमार अपनी आँखें बंद नहीं रखे हैं।
 
45 साल पहले जब जगन्नाथ कौशल चंडीगढ़ से बिहार के राज्यपाल बनकर आए थे, तब उनके बच्चों ने भी पटना विश्वविद्यालय में नामांकन कराया था। उसी विवादास्पद बिहार नेशनल कॉलेज में एक कार्यक्रम के दौरान कॉमन रूम का उद्घाटन करते हुए उन्होंने कहा था, “यदि मेरा वश चले तो मैं राज्य के सभी विश्वविद्यालयों को बंद कर दूं, ताला लगा दूं।” आज की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है। हाल के वर्षों में राज्य के लगभग सभी विश्वविद्यालय पूरी तरह से भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं। राज्य के बाहर के लोग शायद इस पर विश्वास न करें, लेकिन यहां एक ही विश्वविद्यालय के कुलपति, प्रति-कुलपति, रजिस्ट्रार और 20 प्राचार्य भ्रष्टाचार के आरोप में जेल भेजे जा चुके हैं। मगध विश्वविद्यालय के कुलपति राजेंद्र प्रसाद के आवास से निगरानी विभाग ने तीन करोड़ रुपये नकद बरामद किए थे। इसी विश्वविद्यालय के तीन अन्य कुलपति – प्रो. अरुण कुमार, प्रो. फहीमुद्दीन अहमद और प्रो. बी.एन. रावत – भी जेल भेजे गए। वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, बिहार विश्वविद्यालय, मिथिला विश्वविद्यालय और कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति भी जेल गए हैं। एक कुलपति पर आरोप है कि एक ‘अति महत्वपूर्ण व्यक्ति’ की पत्नी ने उनके विश्वविद्यालय से एम.ए. की परीक्षा दी, आठ विषयों में से केवल एक में उपस्थित हुईं, बाकी सात में अनुपस्थित रहीं, फिर भी प्रथम श्रेणी में पास कर दी गईं। राज्य में दो कुलपतियों पर उनकी ही महिला शिक्षकों ने यौन शोषण के आरोप लगाए हैं। पिछले महीने पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय के कुल सचिव ने राज्यपाल से लिखित शिकायत की और थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई कि उन्हें अपने ही कुलपति से जान का खतरा है।

पटना विश्वविद्यालय के एक अवकाश प्राप्त प्राध्यापक का कहना है कि “जब प्रदेश में शिक्षा को अपाहिज कर गंगा में डुबकी लगाने के लिए छोड़ दिया गया, आप सीनेट और सिंडिकेट की बात करते हैं। आज ‘सीनेट’ और ‘सिंडिकेट’ का अर्थ और भावार्थ बताने वालों की भी किल्लत है शैक्षणिक संस्थानों में। हम किस संस्कार और गरिमा की बात करते हैं? पटना विश्वविद्यालय का सीनेट हॉल अपने ही प्रदेश के एक नागरिक का देन है जिन्होंने आज से सौ वर्ष पहले शिक्षा के महत्व को समझा। शिक्षाओं की बैठकी का महत्व समझा। दीक्षांत समारोह का महत्व समझा। आज अगर विश्वविद्यालय अथवा प्रदेश की सरकार उस स्थान पर मॉल या वातानुकूलित बाजार खोलने की बात कर दे तो यकीन कीजिये प्रदेश के लाखों लोग पैसे फूंकने को तैयार हो जाएंगे । आज शिक्षा का कोई मोल नहीं है। शिक्षा को व्यापार बना दिया गया है। प्रदेश में जो भी पढ़ने पढ़ने वाले छात्र-छात्राएं हैं वे अपने जीवन निर्माण के लिए, पढ़ने के लिए प्रदेश से पहले ही बाहर निकल जाते हैं।”

बहरहाल, बी.एन. कॉलेज की स्थापना 1889 में कुल्हरिया राज, भोजपुर, बिहार के दो उत्साही शिक्षाविदों और राष्ट्रवादियों बाबू बिशेश्वर सिंह और शालिग्राम सिंह ने की थी। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन के बाद औपनिवेशिक शासन के दौरान, इन दोनों भाइयों ने छात्रों के बीच राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काने की सख्त जरूरत महसूस की और इस कॉलेज का नाम बिहार नेशनल कॉलेज रखा, लेकिन तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उन पर राष्ट्रीय शब्द को हटाने के लिए बहुत दबाव डाला और राजा की उपाधि और एक बहुत बड़ी जागीर देने का वादा किया। लेकिन चूंकि ये भाई इस मायने में दूसरे ज़मींदारों से अलग थे कि जहाँ दूसरे लोग शिक्षा के प्रसार को अपने अस्तित्व के लिए एक गंभीर खतरा मानते थे, वहीं ये सिंह भाई शिक्षा के उत्कृष्ट और महान उद्देश्यों के लिए प्रतिबद्ध थे, इसलिए उन्होंने दबावों के आगे घुटने नहीं टेके। उस समय बिशेश्वर सिंह कलकत्ता कॉलेज ऑफ़ लॉ में अंतिम वर्ष (लॉ) के छात्र थे। कलकत्ता के गवर्नर जनरल ने उन्हें कॉलेज से निकाल दिया। इतना ही नहीं जब बिशेश्वर सिंह ने पीएल प्रमाण पत्र प्राप्त करने के बाद पटना सिविल कोर्ट में वकालत शुरू की तो उन्हें बार एसोसिएशन में बैठने की भी इजाजत नहीं दी गई। उन्हें अनेक कष्टों और परेशानियों का सामना करना पड़ा। सरकार ने उन्हें विद्रोही घोषित कर दिया और अंततः शालिग्राम सिंह के पुत्र शशिशेखर सिंह, जो न्यायमूर्ति केबीएन सिंह के पिता थे, की 1942 में गोली मारकर हत्या कर दी गई। इसलिए यह राष्ट्रीय शब्द बहुत ही सार्थक है जिसका लंबा और गौरवशाली इतिहास आज भी छात्रों में राष्ट्रवादी भावनाओं और जज्बे को भर देता है। सात शहीदों में शामिल जगपति कुमार इसी कॉलेज के छात्र थे।

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शुरू में कॉलेज में अंग्रेजी, संस्कृत, फारसी, हिंदी, दर्शनशास्त्र आदि की ऑनर्स स्तर तक शिक्षा दी जाती थी। बिहार में पहली बार इसी कॉलेज में लॉ की पढ़ाई शुरू हुई थी। प्रो. आत्माराम, जो बाद में पटना कॉलेज के प्राचार्य बने, लॉ संकाय के प्रथम प्रभारी थे। तीन संकायों में स्तरीय शिक्षा दी जाती है, मानविकी संकाय, विज्ञान संकाय और सामाजिक विज्ञान संकाय। स्नातकोत्तर स्तर पर अंग्रेजी में पढ़ाई होती है। चार व्यावसायिक पाठ्यक्रम: फंक्शनल इंग्लिश, बायोटेक्नोलॉजी, बीसीए और बीबीए सफलतापूर्वक और कुशलतापूर्वक चलाए जा रहे हैं। कई छात्रों ने वैश्विक स्तर पर अपनी योग्यता साबित की है। 1892 में, कलकत्ता विश्वविद्यालय ने इसे प्रथम स्तर के कॉलेज का दर्जा दिया। 1923 में, पटना के तत्कालीन आयुक्त एकडेल एर्लियो के प्रयासों से इस कॉलेज को सरकारी नियंत्रण में ले लिया गया और इसे पूर्ण घाटा अनुदान कॉलेज का दर्जा दिया गया। 1952 में, इस कॉलेज को पटना विश्वविद्यालय की एक घटक इकाई में बदल दिया गया।

श्री अक्षय कुमार मजूमदार, डॉ. डी.एन. सेन, मोइनुल हेग, डॉ. डी.पी. विद्यार्थी, डॉ. एस.के. बोस, डॉ. अमरनाथ सिन्हा, डॉ. एम.पी. सिन्हा, डॉ. पी.के. पोद्दार और अन्य जैसे गतिशील और ऊर्जावान प्राचार्यों के तहत कॉलेज ने शानदार विकास किया है। कॉलेज देश के अन्य शैक्षणिक संस्थानों के लिए रोल मॉडल है।  इस कॉलेज के छात्रों और शिक्षकों ने समाज के हर क्षेत्र में अपनी जगह बनाई है और विभिन्न क्षेत्रों में पथप्रदर्शक और अग्रणी रहे हैं। इस कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. मोइनुल हक ने भारतीय ओलंपिक टीम का नेतृत्व किया था। उनकी याद में पटना के राजेंद्र नगर में मोइनुल हक स्टेडियम की स्थापना की गई है। भारत के पहले अटॉर्नी जनरल लाल नारायण शर्मा, 11 साल तक केंद्रीय मंत्री रहे और त्रिपुरा के पूर्व राज्यपाल प्रो. सिद्धेश्वर प्रसाद, सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक और पद्म भूषण पुरस्कार विजेता डॉ. बिंदेश्वर पाठक इसी महाविड़फयालय के छात्र रहे। भारत के माननीय न्यायमूर्ति मिहिर कुमार झा, पटना उच्च न्यायालय आदि इस कॉलेज के पूर्व छात्र रहे हैं। पद्म पुरस्कार विजेता जैसे डॉ. मोइनुल हक (1971 में पद्म श्री), डॉ. कलीम अजीज (1989 में पद्म श्री), डॉ. शैलेंद्र नाथ श्रीवास्तव (2003 में पद्म श्री), डॉ. शरफे आलम (2004 में पद्म श्री) भी इसी महाविद्यालय के छात्र थे। 

लेकिन इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि 1990 में जब प्रदेश का बागडोर लालू प्रसाद यादव के हाथों आया, जो ऐतिहासिक चारा घोटाला में मुख्य आरोपी, सजा पाने वाले रहे, इसी महाविद्यालय के छात्र थे। लव कुअमार मिश्र कहते हैं कि ‘हाल के वर्षों में राज्य के लगभग सभी विश्वविद्यालय पूरी तरह से भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं। राज्य के बाहर के लोग शायद इस पर विश्वास न करें, लेकिन यहां एक ही विश्वविद्यालय के कुलपति, प्रति-कुलपति, रजिस्ट्रार और 20 प्राचार्य भ्रष्टाचार के आरोप में जेल भेजे जा चुके हैं। मगध विश्वविद्यालय के कुलपति राजेंद्र प्रसाद के आवास से निगरानी विभाग ने तीन करोड़ रुपये नकद बरामद किए थे। इसी विश्वविद्यालय के तीन अन्य कुलपति – प्रो. अरुण कुमार, प्रो. फहीमुद्दीन अहमद और प्रो. बी.एन. रावत – भी जेल भेजे गए। वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, बिहार विश्वविद्यालय, मिथिला विश्वविद्यालय और कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति भी जेल गए हैं। 

उनके अनुसार, एक कुलपति पर आरोप है कि एक ‘अति महत्वपूर्ण व्यक्ति’ की पत्नी ने उनके विश्वविद्यालय से एम.ए. की परीक्षा दी, आठ विषयों में से केवल एक में उपस्थित हुईं, बाकी सात में अनुपस्थित रहीं, फिर भी प्रथम श्रेणी में पास कर दी गईं। राज्य में दो कुलपतियों पर उनकी ही महिला शिक्षकों ने यौन शोषण के आरोप लगाए हैं। पिछले महीने पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय के कुल सचिव ने राज्यपाल से लिखित शिकायत की और थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई कि उन्हें अपने ही कुलपति से जान का खतरा है। 
बहरहाल, आज प्रदेश ही नहीं, देश-विदेश में रहने वाले विद्वान-विदुषियों के लिए यह एक महत्वपूर्ण शोध का विषय है कि विगत 78 वर्षों में बिहार के राज्यपाल / कुलाधिपति की कार्यालय/कुर्सी पर कोई विदुषी क्यों नहीं विराजमान हुई? इतना ही नहीं इतिहास साक्षी है कि पटना विश्वविद्यालय के इतिहास में आज तक सिर्फ 37 दिनों के लिए श्रीमती रमोला नंदी (11.08.1973 से 16.09.1973) को छोड़कर कोई भी विदुषी कुलपति भी नहीं बनी और लगातार पुरुषों ने सिंहासन पर कब्ज़ा बनाये रखा। 

डॉ. रजनीश रंजन और श्रीमती मनीषा रंजन और राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान

आइये राज्यपाल के साथ सहरसा चलते हैं 

सहरसा जिले की स्थापना ‘अप्रैल फूल’ के दिन 1 अप्रैल, 1954 को हुआ था। विगत 71 वर्षों में सहरसा में कितना विकास हुआ सरकारी स्तर पर, यह सहरसा के मतदाता तो जानते ही हैं, अधिकारी, पदाधिकारी, विधायक, सांसद और सरकार के नुमाइंदे भी अवगत है, चाहे समस्या शिक्षा की हो, स्वास्थ्य की हो, सड़क की हो, रोजगार की हो। आज पुरे देश में श्रमिकों का पलायन जितना सहरसा-मधेपुरा क्षेत्र से हो रहा है, दुखद है। ऐसे मुनाफा कमाने के उद्देश्य से ही सही, इन क्षेत्रों में निजी क्षेत्रों का प्रादुर्भाव एक सकारात्मक संकेत दे रहा है। इसी कड़ी के तहत डॉ. रजनीश रंजन और श्रीमती मनीषा रंजन की अगुवाई में विगत 15 मई को सहरसा जिला के  राष्ट्रीय राजमार्ग 107 पर स्थित ईस्ट एन वेस्ट टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज परिसर में राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ईस्ट एण्ड वेस्ट 88.4 एफएम रेडियो का विधिवत प्रसारण हेतु उद्घाटन किया। इस कॉलेज इसका उद्देश्य बी.एड. और डी.एल.एड. की शिक्षा देना तो है ही, ठोस नैतिक आधार पर शिक्षण के पेशे को विकसित करना है। वैसे आंकड़ों के अनुसार, भारत के 113 शहरों में 388 निजी एफएम रेडियो स्टेशन संचालित हैं। इन स्टेशनों को 36 निजी प्रसारकों द्वारा चलाया जाता है। 234 नए शहरों में 730 नए निजी एफएम रेडियो चैनलों की हाल ही में स्वीकृति के साथ भारत में निजी एफएम रेडियो स्टेशनों की संख्या में वृद्धि होने की उम्मीद है। 

क्रमशः …

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