देश के 143+ करोड़ लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले विधायक, सांसद जब ‘विधानसभा और संसद में असंवैधानिक शब्दों का प्रयोग’ करेंगे, तो भारत के बच्चे क्या सोचेंगे

रायसीना पहाड़ (नई दिल्ली) : भारत के राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जब शब्दों का विन्यास कर भारत का गौरव गुणगान करने के लिए ‘किसको नमन करूँ मैं भारत – किसको नमन करूँ मैं” लिखे होंगे, उनके मन के किसी कोने में कोई शक नहीं हुआ होगा कि आने वाले दिनों में इस देश के प्रजातान्त्रिक मंदिर में, चाहे प्रदेश में विधान सभा हो हो अथवा दिल्ली के रायसीना पहाड़ी पर लोकसभा, में चयनित विधायक और सांसद ‘असंसदीय’ शब्दों का प्रयोग कर संसद ही नहीं, भारत की गरिमा को, प्रजातंत्र की रीढ़ को कमजोर बनाएंगे। 

दिनकर ने लिखा भी : 

भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है,
एक देश का नहीं शील यह भूमंडल भर का है।
जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है,
देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्वर है!
निखिल विश्व की जन्म-भूमि-वंदन को नमन करूँ मैं?
किसको नमन करूँ मैं भारत! किसको नमन करूँ मैं?

खैर। देश के बड़े-बड़े शोधकर्ता इस कार्य में लगे है कि आखिर समाज में नैतिकता का पतन क्यों हो रहा है ?  भारत के कुल 780 जिलों के जिला परिषदों, 28 राज्यों और केंद्र शाषित प्रदेशों के विधान सभाओं, लोक सभा या राज्य सभा में बैठे चयनित सदसयगण भी आखिर इसी समाज से जाते हैं और समाज की व्यवस्था का उन पर प्रभाव नहीं पड़ेगा, यह हो नहीं सकता, तभी तो कहीं वे देश के सरकारी अधिकारियों का गरेवान पकड़ रहे हैं, कहीं जिला परिषद्, विधान सभा और लोकसभा में टेबुल-कुर्सी पटक रहे हैं, अपशब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। अततः विश्व के सर्वश्रेष्ठ प्रजातंत्र के संसद को इन वारदातों पर नियंत्रण हेतु अनुशासनिक कार्रवाई भी करनी पड़ती है और असंवैधानिक शब्दों के प्रयोग पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाने हेतु निर्णय लेना पड़ता है।

आज विजय-चौक पर बैठे-बैठे सोच रहा हूँ कि देश की आवादी 1952 में मात्र 38 करोड़ थी, आज 143.81+ करोड़ है। उन दिनों लोक सभा में सीटों की संख्या 489 थी, आज 543 है। साल 1952 में लोक सभा में प्रतिनिधित्व करने वाले सांसद आठ लाख लोगों के बीच से आते थे, आज यह संख्या 25 लाख से भी अधिक हो गयी है। संसद बनने के बाद पहला अविश्वास प्रस्ताव 1963 में पहली बार पेश किया गया था, और 1967 के बाद आज तक कुल 39 अविश्वास प्रस्ताव/विश्वास प्रस्ताव पेश किए गए, जिसमें साल 1979, 1990, 1996, 1997 और 1999 में, कुल पांच बार तत्कालीन प्रधानमंत्री सदन में बहुमत साबित नहीं कर पाए। 

यह भी सोच रहा था कि कहने को तो देश में साक्षरता दर लगातार बढ़ रही है। स्वतंत्रता के समय भारत की केवल 14% आवादी साक्षर थी, जबकि आज रायसीना पहाड़ी के आंकड़े 76.32+% बता रहे हैं। आखिर इन विगत वर्षों में कुछ तो गलत हो रहा है, जिससे समाज भी प्रदूषित हो रही है और समाज से चयनित लोग भी प्रजातंत्र के मंदिरों को प्रदूषित कर रहे हैं। 

रायसीना पहाड़ी से नीचे लुढ़कती सड़क कर्तव्य पथ, जो विजय चौक से इण्डिया गेट परिसर की ओर जाती है, पूरे इलाके को तो दो फांक में बाँटती ही है, भारत के 543 लोकसभा क्षेत्रों से चयनित होकर आने वाले सम्मानित सांसदों की मानसिकता को भी सहस्त्र फांकों में शायद बांट दी है। यह अलग बात है कि भारत के लोकतांत्रिक परिदृश्य के लिए एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर यह है कि नव-निर्वाचित 18वीं लोकसभा में कोई भी निरक्षर सांसद नहीं है, लेकिन उनके व्यवहार और संसद में असंवैधानिक शब्दों का प्रयोग भी गहन शोध की ओर इशारा करता है। 

कहते हैं कि 2024 के लोकसभा चुनावों में खुद को निरक्षर घोषित करने वाले सभी 121 उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत सके। 18वीं लोकसभा में नवनिर्वाचित सांसदों में बहुत बड़ा हिस्सा उच्च शिक्षित है, केवल एक सांसद ने खुद को साक्षर बताये। बाकी चुने गए प्रतिनिधियों के पास शिक्षा की विभिन्न डिग्री हैं, जो प्राथमिक विद्यालय से लेकर उच्च शिक्षा तक की योग्यता को दर्शाती हैं। वैसे इसी संसद में लगभग 105 या 19 प्रतिशत ने अपनी शैक्षणिक योग्यता कक्षा 5वीं पास और कक्षा 12वीं के बीच है। 

इतना ही नहीं, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के 240 सांसदों में 64 स्नातक और 49 स्नातकोत्तर हैं। 99 सीटों वाली कांग्रेस में 24 स्नातक, 27 स्नातकोत्तर और 21 सांसदों के पास पेशेवर स्नातक की डिग्री है। जनता दल (यूनाइटेड) के एक सांसद एकमात्र साक्षर सांसद हैं, जो नई लोकसभा में सबसे कम शैक्षणिक योग्यता रखते हैं। कुल 147 सांसदों के पास स्नातक की डिग्री है, और अन्य 147 के पास स्नातकोत्तर योग्यता है। इसके अतिरिक्त, 98 सांसद स्नातक पेशेवर और डिप्लोमा योग्यता वाले हैं। 5 प्रतिशत सांसदों के पास डॉक्टरेट की डिग्री है, जिसमें तीन महिला सांसद शामिल हैं। लेकिन यह बात समझ से परे है कि इन शिक्षित सांसदों का भी व्यवहार कभी-कभी इधर-उधर क्यों हो जाता है ?

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इसी 18वीं लोकसभा में चुने गए सांसदों की औसत आयु 56 वर्ष है, जो 17वीं लोकसभा में 59 वर्ष से थोड़ी कम है। 11 प्रतिशत सांसद 40 वर्ष या उससे कम आयु के हैं, और 38 प्रतिशत 41 से 55 वर्ष की आयु के हैं। लगभग 52 प्रतिशत सांसद 55 वर्ष से अधिक आयु के हैं और सबसे बुजुर्ग सांसद 82 वर्ष के हैं। लेकिन इन सांसदों की मानसिकता में इतनी गिरावट क्यों आ गयी या आ रही है कि भारतीय प्रजातंत्र के इस मंदिर को सांसदों द्वारा प्रयोग की जाने वाली शब्दों पर नियंत्रण लगाने की बात सोचने पड़ी। वैसे, यह पहली बार नहीं है, विगत कई वर्षों में ‘असंसदीय अभिव्यक्ति’ के लिए सदन द्वारा उचित कार्रवाई हुयी हैं, लेकिन शिष्टाचार बढ़ने के बजाय अधोगति क्यों हो रहा है – यह गहन शोध का विषय है। 

ज्ञातव्य हो कि कुछ समय पहले 13 जुलाई, 2022 को संसद द्वारा ‘असंसदीय शब्दों’ की एक सूची जारी की गयी। कुछ असंसदीय शब्दों में ‘जुमलाजीवी, कोविड फैलाने वाला, स्नूपगेट, बाल बुद्धि’ शामिल हैं। इसमें ‘शर्मिंदा, विश्वासघात, पाखंड, गाली, ड्रामा और अक्षम’ जैसे शब्द भी शामिल हैं। जैसे ही यह सूची जारी हुई, लोकसभा सचिवालय की अद्यतन पुस्तिका पर तीखी प्रतिक्रिया शुरू हो गई। पुस्तिका में कुछ ऐसे शब्दों की सूची दी गई है, जिन्हें लोकसभा के साथ-साथ राज्यसभा में भी असंसदीय माना जाता है।लोकसभा के अध्यक्ष के अनुसार, यह सूची केवल उन शब्दों का संकलन है, जिन्हें पिछले दिनों रिकॉर्ड से हटा दिया गया था। 

कहते हैं कि पहले सचिवालय कागजों की बर्बादी से बचने के लिए ऐसे असंसदीय शब्दों की एक पुस्तक जारी करता था। अब सरकार ने इस सूची को इंटरनेट पर डाल दिया है। यह सूची पहले 1954, 1986, 1992, 1999, 2004, 2009, 2010 में जारी की जा चुकी है। वर्ष 2010 में इसे वार्षिक आधार पर जारी करना शुरू किया गया। इसमें शकुनि, तानाशाह, तानाशाह, विनाश पुरुष, खून की खेती, जयचंद जैसे शब्दों का उल्लेख है, जिन्हें बहस के दौरान या अन्य किसी भी तरह से इस्तेमाल किए जाने पर हटा दिया जाएगा। दोहरा चरित्र, नौटंकी, बेहरी सरकार, ढिंढोरा पीटना जैसे शब्दों के साथ भी इसी तरह का व्यवहार किया जाएगा। हालांकि, शब्दों और अभिव्यक्तियों को हटाने के बारे में राज्यसभा के सभापति और लोकसभा के अध्यक्ष का अंतिम निर्णय होगा। 

जुमलाजीवी, बाल बुद्धि, बहरी सरकार, उल्टा चोर कोतवाल को डांटे, उचक्के, अहंकार, कांव-कांव करना, काला दिन, गुंडागर्दी, गुलछर्रा, गुल खिलाना, गुंडों की सरकार, दोहरा चरित्र, चोर-चोर मौसेरे भाई, चौकड़ी, तड़ीपार, तलवे चाटना, तानाशाह, दादागिरी, दंगा सहित कई अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल भी अब लोकसभा या राज्यसभा में बहस के दौरान कार्यवाही में शामिल नहीं किया जायेगा। 
अंग्रेज़ी शब्दों की फ़ेहरिस्त में अब्यूज़्ड, ब्रिट्रेड, करप्ट, ड्रामा, हिपोक्रेसी और इनकॉम्पिटेंट, कोविड स्प्रेडर और स्नूपगेट शामिल हैं। इसके अलावा अध्यक्ष पर आक्षेप को लेकर इस्तेमाल किए गए कई वाक्यों को भी असंसदीय अभिव्यक्ति की श्रेणी में रखा गया है, मसलन- आप मेरा समय खराब कर रहे हैं, आप हम लोगों का गला घोंट दीजिए, चेयर को कमज़ोर कर दिया गया है, मैं आप सब से यह कहना चाहती हूं कि आप किसके आगे बीन बजा रहे हैं? 

सूत्रों का कहना है कि यह सूची लोकसभा-राज्यसभा के साथ ही विधानसभा की कार्यवाहियों के दौरान अमर्यादित घोषित किए गए शब्दों को मिलाकर बनती है। इसे प्रत्येक वर्ष संशोधित भी किया जाता है। सूची लोकसभा के अधिकारी निकालते हैं लेकिन ये राज्यसभा के लिए भी लागू होती है। असंसदीय शब्द अपमानजनक या असभ्य शब्द या अभिव्यक्ति हैं जिन्हें संसद में उपयोग के लिए अनुपयुक्त माना जाता है। असंसदीय शब्दों को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 105 (2) के अनुसार विनियमित किया जाता है। 

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अनुच्छेद 105 (2) के तहत, संसद में एक सांसद का भाषण संसदीय नियमों के अनुशासन और सदस्यों की अच्छी समझ के अधीन है। सदन के अध्यक्ष या अध्यक्ष को इस पर नज़र रखने का अधिकार है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सांसद संसद के अंदर ‘अपमानजनक या अशोभनीय असंसदीय शब्दों’ का इस्तेमाल न करें। ‘लोकसभा में प्रक्रिया और कार्य संचालन के नियम’ के नियम 380 और नियम 381 ‘विलोपन (असंसदीय शब्दों को हटाना)’ से संबंधित है। 

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 105(2) के तहत संसद सदस्यों को संसद में उनके बयान के लिये न्यायालयी कार्यवाही से सुरक्षा प्राप्त है। यानी संसद में या किसी समिति में संसद के किसी सदस्य द्वारा कही गई किसी बात या दिये गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी और किसी व्यक्ति के विरुद्ध संसद के किसी सदन के प्राधिकार द्वारा या उसके अधीन किसी प्रतिवेदन, पत्र, या कार्यवाहियों के प्रकाशन के संबंध में इस प्रकार की कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी। एक संसद सदस्य जो कुछ भी कहता है वह संसद के नियमों के अनुशासन, सदस्यों की अच्छी समझ और पीठासीन अधिकारी द्वारा कार्यवाही के नियंत्रण के अधीन है। 

यह सुनिश्चित करता है कि संसद सदस्य सदन के अंदर ‘अपमानजनक या अभद्र या अनिर्दिष्ट या असंसदीय शब्द’ का उपयोग नहीं कर सकते हैं। लोकसभा की प्रक्रिया और कार्य सञ्चालन नियमों के नियम संख्या 380 के तहत अध्यक्ष को वाद-विवाद में प्रयुक्त मानहानिकारक, अशोभनीय अथवा असंसदीय शब्द या अभिव्यक्ति को हटाने का अधिकार प्राप्त है। लोकसभा के प्रक्रिया तथा कार्य संचालक विषयक नियम 381 के अनुसार, ‘सदन की कार्यवाही का वह भाग जो समाप्त हो गया है, तारांकन द्वारा चिन्हित किया जाएगा और कार्यवाही में एक व्याख्यात्मक टीका इस प्रकार डाला जाएगा: ‘अध्यक्ष द्वारा आदेशित’।’ 

यदि पीठासीन अधिकारी महिला है तो कोई भी संसद सदस्य उसे “प्रिय अध्यक्ष’ के रूप में संबोधित नहीं कर सकता है। 

सरकार या किसी अन्य संसद सदस्य पर ‘झांँसा देने’ का आरोप नहीं लगाया जा सकता। रिश्वत, ब्लैकमेल, रिश्वतखोर, चोर, डाकू, लानत, धोखा, नीच, और डार्लिंग जैसे शब्द असंसदीय हैं। इनका प्रयोग संसद सदस्यों के लिये नहीं किया जा सकता।संसद सदस्य या पीठासीन अधिकारियों पर “कपटी” होने का आरोप भी नहीं लगाया जा सकता है। एक संसद सदस्य को ठग, कट्टरपंथी, चरमपंथी, भगोड़ा नहीं कहा जा सकता। किसी भी सदस्य या मंत्री पर जान-बूझकर तथ्यों को छिपाने, भ्रमित करने या जानबूझकर भ्रमित होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता है। किसी भी अनपढ़ संसद सदस्य को ‘अंँगूठा छाप’ नहीं कहा जा सकता है।

विशेषज्ञों के अनुसार, सदन की कार्यवाही के दौरान जब सत्ता पक्ष या विपक्ष के सांसद ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं जो संसदीय शिष्टाचार के अनुरूप न हो तो पीठासीन अधिकारी को स्वयं अथवा संसद के किसी अन्य सदस्य द्वारा जताई गई आपत्ति के मद्देनजर ऐसे शब्दों को विधायिका (संसद व विधानसभाएं) की मुद्रित एवं दृश्य-श्रव्य कार्यवाही से हटाने का अधिकार होता है। कुछ मामलों में कार्यवाही से आपत्तिजनक शब्द हटाने का निर्णय हाथों हाथ हो जाता है तो कुछ में ऐसा होता है कि स्पीकर सदन में हुई बहस का पाठ्य रूपांतरण पढ़ने के बाद निर्णय लेते हैं। 

संसदीय सचिवालय समय-समय पर अस्वीकार्य अभिव्यक्तियों को संकलित कर उनकी सूची जारी करता है ताकि भविष्य के लिए सदस्यों के समक्ष संदर्भ रहे। समय के साथ ऐसे शब्दों और अभिव्यक्तियों की संख्या बढ़ गई है, जिन्हें असंसदीय माना गया। हिन्दी-अंग्रेजी के असंसदीय शब्दों की नवीनतम सूची 40 से अधिक पृष्ठों की है। समय के साथ यह अवधारणा भी बदली है कि असंसदीय क्या है और इस सूची में कई शब्द जुड़ते चले गए। जैसे 1950 के दशक में ‘नाटकीय’ शब्द का सदन में प्रयोग अनुचित माना गया। 70 व 80 के दशक में विधान सभाओं और संसद के कई अध्यक्षों ने पाया कि ‘एक झूठ’, ‘झूठ’ और ‘पूरा झूठ’ असंसदीय शब्द हैं। गैर अनुमति शब्दों की नई सूची में शामिल हैं – ‘बचकाना’, ‘असत्य’ और ‘ड्रामा’। 

झारखण्ड विधान सभा का दृश्य

विशेषज्ञ कहते हैं कि हालांकि लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला के स्पष्टीकरण के बाद विवाद थम गया लेकिन दो सवाल अहम हैं। 

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पहला, हमारे सांसदों-विधायकों को सदन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि वे आक्रामक/रोषपूर्ण भाषा का प्रयोग कर सकते हैं। पीठासीन अधिकारी विधायिका के संरक्षक होते हैं और सदन की व्यवस्था बनाए रखना व गौरव का संरक्षण करना इनका दायित्व है। वे कैसे ऐसा संतुलन स्थापित करें कि सांसदों को सदन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार मिले और विधायिका की गरिमा भी अक्षुण्ण रहे। इस सवाल का जवाब देना आसान है। परस्पर सम्मान बनाए रखना ही संसदीय चर्चा में शिष्टाचार का मुख्य आधार है। असंसदीय अभिव्यक्तियों को सदन की चर्चा में तभी स्थान मिलता है, जब चर्चा मुद्दों पर केंद्रित न हो कर व्यक्तिगत हो जाए। सांसद व विधायक सदन में जिस भाषा का इस्तेमाल करते हैं, वह समाज में बहस का स्तर तय करते हैं। इसलिए जनप्रतिनिधियों का दायित्व है कि वे इस प्रकार चर्चा करें जो न केवल बहस की गुणवत्ता बढ़ाए बल्कि हमारी विधायी संस्थाओं का गौरव भी बढ़ाए। 

दूसरा सवाल, क्या यह संभव है कि कोई शब्द असंसदीय है या नहीं, यह तय करने के लिए एक कठोर रूपरेखा अपनाई जाए? यह मुश्किल है क्योंकि जो कुछ भी बोला गया है, वह संदर्भ पर निर्भर करता है और इस बात पर कि पीठासीन अधिकारी ने किस शब्द को अस्वीकार्य माना। हो सकता है एक विधानसभा में जिस शब्द को एक पीठासीन अधिकारी असंसदीय करार दे, दूसरी में कोई अन्य पीठासीन अधिकारी न दे। 1926 में भारत की विधायिकाओं के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में यह मुद्दा उठाया गया था। तय किया गया कि असंसदीय अभिव्यक्ति ‘ऐसा विषय है, जिस पर कोई कठोर व सशक्त नियम लागू नहीं होते और ये प्रत्येक मामले की परिस्थिति पर निर्भर करता है।’ 1969 में जब कुछ अभिव्यक्तियों को असंसदीय घोषित करने के लिए दिशा-निर्देश बनाने की बात आई तब भी यही बात दोहराई गई। 

जम्मू और कश्मीर विधानसभा का दृश्य

ऐसा नहीं हो सकता कि बोला गया शब्द सुना न जाए। इतना ही किया जा सकता है कि कोई असंसदीय टिप्पणी आधिकारिक रेकॉर्ड से हटा दी जाए। सीधे प्रसारण एवं सोशल मीडिया के जमाने में विधायक एवं सांसद असंसदीय को मिटा तो सकेंगे लेकिन उनके लिए ऐसा करना मुश्किल होगा कि जनता को पता ही न चले कि हमारे सदनों में ऐसे शब्दों का प्रयोग होता है। असंसदीय शब्दों को कार्यवाही से हटाने के बावजूद विधायिका की कार्यवाही जनता से छिपी नहीं रहती। बीते वर्षों में लोकसभा और राज्यसभा में सदस्यों ने असंसदीय व्यवहार कर कामकाज में बाधा पहुंचाई, नारे लगाए, बैनर दिखाए, कागज फाड़े और उछाले। 

ज्ञातव्य हो कि 2022 में संसद के मानसून सत्र के पहले सप्ताह में महंगाई व जीएसटी पर चर्चा की मांग के बीच कामकाज बार-बार स्थगित हुआ। लोकसभा में 15 प्रतिशत तो राज्यसभा में 23 प्रतिशत ही कामकाज हुआ। पिछले साल के मानसून सत्र में भी ऐसा ही हुआ था। व्यापक पैमाने पर तुलना की जाए तो पिछली (16वीं) लोकसभा का 16 प्रतिशत कामकाजी समय अवरोधों की भेंट चढ़ गया तो 15वीं लोकसभा का 37 प्रतिशत। विधायिका के लोकतांत्रिक संचालन में बाधाएं पहुंचाने से होने वाले नुकसान की भरपाई किसी भी तरह नहीं की जा सकती। लिखित संसदीय रेकॉर्ड को असंसदीय शब्द हटा कर साफ किया जा सकता है, पर असंसदीय व्यवहार के दृश्य लम्बे समय तक हमारे मानसपटल पर अंकित रहेंगे। 

विडंबना यह है कि उस अधिसूचना के बाद लोकसभा सचिवालय ने सांसदों को सूचित किया कि ‘असंसदीय अभिव्यक्ति 2009’ शीर्षक से प्रकाशन बिक्री के लिये उपलब्ध है जिसमें भारत की संविधान सभा, अंतरिम संसद, पहली से लेकर चौदहवीं लोकसभा (1952 से फरवरी 2009), राज्यसभा, राज्य विधानमंडलों एवं राष्ट्रमंडल के कुछ देशों की संसदों में ‘असंसदीय घोषित शब्दों एवं अभिव्यक्तियों’ का संकलन है। इस संकलन की कीमत 1700 रूपये है । हालांकि सांसदों को 25 प्रतिशत की छूट दी जायेगी और वे निजी उपयोग के लिये इसकी केवल एक प्रति खरीद सकेंगे। जो संसद भवन में लोकसभा सचिवालय के बिक्री काउंटर पर उपलब्ध होगा। कहा जाता है कि इस संकलन की इतनी बिक्री नहीं हुई जितनी अपेक्षा थी। खैर। 

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