मिथिला में ब्राह्मण का बेटा ‘बटुक’ ही कहलाता है एक खास उम्र तक, लेकिन आप तो जीवन-पर्यन्त ‘बटुक भाई’ रह गए सबों के लिए

पटना आकाशवाणी का चौपाल: नमस्कार यौ मुखिया जी ! -खुश रहो बटुक भाई ! फिर, बुधन भाई की आवाज गूंजती- जेबा से दंडवत मुखिया जी ! -राम-राम बुधन भाई ! और, आखिरी में गूंजती रूपा बहन की आवाज- जय हिंद मुखिया जी ! -जय हिंद रूपा बहन !

पटना: आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम कहानी श्रृंखला के क्रम में कुछ माह पूर्व पटना की जमीन से जुड़े एक महानुभाव को, जिन्होंने पटना को साठ के दशक के प्रारंभिक वर्षों से अपने क़दमों से नापा था, उनके मोबाईल पर घंटी टनटनाया। दूसरे छोड़ से फोन प्राप्त कर्ता का हेल्लो !!! शब्द अभी समाप्त भी नहीं हुआ था कि मेरी आवाज उनके कानों में पहुंची। “हम शिवनाथ छी दिल्ली से ….. शायद अपने कें मोन …. ”

मेरे शब्द अभी समाप्त भी नहीं हुए थे कि वे तुरंत कहते हैं: “इण्डियन नेशन वाला शिवनाथ ….. गोपाल बाबुक बेटा शिवनाथ …..अहाँ दिल्ली में छी। बहुत निक कार्य क रहल छी” उनकी आवाज में वही खनक था । भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की जिस दिन हत्या हुई थी, उसी सप्ताह के आस-पास इण्डियन नेशन अखबार के दफ्तर में उनसे अंतिम मुलाकात हुई थी। वे न केवल मुझे, अपितु मेरे माता-पिता, भाई-बहन सभी को अन्तःमन से जानते थे।

इससे पहले कि मैं फोन करने का अपना उद्देश्य बताता, वे तक्षण कहते हैं: “अहाँ आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम वेबसाइट बनाके एहि अखबारक संस्थापक महाराजा कें, एहि अखबार में कार्य केनिहार समस्त परिवार जीवित अथवा दिवंगत आत्मा के संवेदना, भावना के पुनः स्थापित केलौं। महादेव से प्रार्थना करब अहाँ अपन उद्देश्य में सफल होइ आ माँ-बाबूक नाम रोशन करि।”

उनकी बातों को सुनकर मैं अश्रुपूरित हो रहा था, गला अवरुद्ध हो रहा था। सोच रहा था जिस व्यक्ति को चार दशक बाद फोन किया, उनके ह्रदय में आज भी हम सबों का नाम, माँ-बाबूजी के प्रति सम्मान आज भी विराजमान है। मिथिला में, खासकर दरभंगा-मधुबनी क्षेत्र में रहने वाले लोगों के ह्रदय में ऐसी ‘मानवीय भावना’ का किल्लत ही नहीं, सुखाड़ भी है। वे जमीन से जुड़े एक ऐसे मानव थे जिन्हें मेरी जानकारी में कभी किसी से ‘वैर’ नहीं हुआ जीवन पर्यन्त। हाँ, मनुष्य योनि में जन्म लेने से कुछ ‘विकार’ भी हो सकते हैं, लेकिन उन विकारों को कभी ‘साकार’ होते मैंने नहीं देखा।

उनका नाम था श्री छत्रानन्द सिंह झा। वैसे मिथिला में प्रत्येक ब्राह्मण का संतान ‘बटुक’ ही होता है एक खास उम्र तक, लेकिन आधिकारिक नाम वाले श्री छत्रानन्द सिंह झा ‘बटुक’ से कब ‘बटुक भाई’ हो गए और जीवन पर्यन्त ‘बटुक भाई’ रह गए, यह सिर्फ और सिर्फ एक ही व्यक्ति जानते थे और वे थे श्री (अब दिवंगत) गौरी कांत चौधरी ‘कान्त’ यानी पटना आकाशवाणी के चौपाल के श्री मुखिया जी, जिन्होंने ‘नामकरण’ किया था ।

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मुखिया जी (दाहिने) और बटुक भाई (बाएं)

पटना आकाशवाणी से प्रसारित होने वाला सर्वाधिक लोकप्रिय कार्यक्रम है चौपाल और समय 6 बजकर 30 मिनट पर बिहार के रेडियो पर शाम के साढ़े छह बजे रेडियो पर जैसे ही ‘चौपाल’ का ट्यून बजना शुरू होता, गांव-शहर-कस्बों में लोग अपना काम-काज छोड़ रेडियो को घेर कर बैठ जाते थे। ट्यून बजना बंद होते ही बटुक भाई की आवाज गूंजती- नमस्कार यौ मुखिया जी !
-खुश रहो बटुक भाई !
फिर, बुधन भाई की आवाज गूंजती- जेबा से दंडवत मुखिया जी !
-राम-राम बुधन भाई !
और, आखिरी में गूंजती रूपा बहन की आवाज- जय हिंद मुखिया जी !
-जय हिंद रूपा बहन !

गौरी कांत चौधरी ‘कान्त’ यानी चौपाल के मुखिया जी के पुत्र श्री लक्ष्मीकांत सजल कहते हैं : “टिपिकल मैथिली में अपने चुटीले संवाद और उसके कहने के अंदाज से बटुक भाई देखते ही देखते ‘चौपाल’ खासकर उसके करोडों मैथिली भाषी श्रोताओं के दिलों पर राज करने लगे। वे बटुक भाई के अपने किरदार में इस तरह रमते चले गये कि वास्तविक जीवन में भी लोग उन्हें उसी नाम से संबोधित करने लगे। रेडियो पर प्रसारित होने वाले मैथिली नाटकों पर अपने अभिनय से वे अमिट छाप छोडते रहे। उनके द्वारा अभिनीत दर्जनों रेडियो नाटक उस वक्त के श्रोता आज भी नहीं भूल पा रहे हैं।” बटुक भाई आकाशवाणी की सेवा में 1968 में आये। वह रेडियो का जमाना था। और, ‘चौपाल’ की लोकप्रियता बुलंदी पर थी।

सजल जी के अनुसार, “रेडियो पर ‘चौपाल’ के बटुक के साथ ही उन्होंने एक और लोकप्रिय किरदार को जिया। वह किरदार था ‘घरौंदा’ के भईया का। ‘घरौंदा’ बच्चों का कार्यक्रम है। हर शुक्रवार को प्रसारित होने वाला पच्चीस मिनट का यह कार्यक्रम ‘चौपाल’ का ही हिस्सा है। पहले इस कार्यक्रम का संचालन ‘काका’ की भूमिका में बुधन भाई (गोपाल कृष्ण शर्मा) करते थे। उनकी अनुपस्थिति में बटुक भाई बच्चों के ‘भईया’ बन ‘घरौंदा’ में उनके बीच होते। लेकिन, बुधन भाई के असामयिक निधन के बाद ‘घरौंदा’ में ‘काका’ की जगह पूरी तरह से ‘भईया’ ने ले ली। वे बच्चों के बीच ‘भईया’ के रूप में काफी लोकप्रिय रहे। ‘घरौंदा’ के बाहर भी जब बच्चे उन्हें देखते, तो ‘भईया’ ही कहते।”

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रेडियो पर बटुक भाई की एक पहचान और थी। वह पहचान थी रेडियो पर प्रसारित होने वाले मैथिली कार्यक्रम ‘भारती’ के संचालक-उदघोषक की। संचालक के रूप में अपनी उदघोषना से उन्होंने ‘भारती’ की अलग पहचान बनायी। पटना की सड़कों पर शायद ही कोई व्यक्ति जब इनसे रूबरू होता था, उन्हें उनके आधिकारिक नाम से सम्बोधित करता था। यहाँ तक कि पटना में होने वाले किसी भी कार्यक्रमों में, जिसमें इनकी भूमिका होती थी, चाहे विद्यापति पर्व समारोह हो या चेतना समिति का कोई अन्य कार्यक्रम, अख़बारों में भी जो समाचार प्रकाशित होता था, उनका आधिकारिक नाम लिखा जाता था। बटुक भाई की मैथिली में तकरीबन दर्जन भर किताबें हैं। लेकिन, मैथिली साहित्य में उनकी पहचान एक व्यंग्यकार के रूप है।

श्री सती रमन झा कहते हैं की बटुक भाई की अनेकानेक साहित्यिक कीर्तियाँ प्रकाशित हुई हैं। मसलन: ‘काॅट कूश’, ‘डोकहरक ऑखि’, ‘एक गुलाबक लेल’, ‘सीताहरण’, ‘मैथिली रेडियो नाटक’, ‘सुनू जानकी’, ‘गौरीकान्त चौधरी ‘कान्त’ मुखियाजी इत्यादि । उन्होंने कुछ अनुवाद भी किया था जैसे: ‘अन्तिम प्रश्न’, ‘गाछा’, ‘रामलीला’, ‘नट् सम्राट’, ‘कबीर’ आदि । बटुक भाई का ‘सुनू जानकी’ अत्यधिक चर्चित नाटक है।

सती रमन झा आगे कहते हैं: बटुक भाई को 2014 मे ज्योतिरीश्वर सम्मान, मैलोरंग रेपर्टरी के द्वारा ‘मिथिला विभूति’, विद्यापति सेवा संस्थान दरभंगा द्वारा ‘ज्योतिरीश्वर राष्ट्रीय शिखर सम्मान’, भारतीय साहित्यकार संसद्, समस्तीपुर, किरण मैथिली साहित्य शोध संस्थान, उजान और चेतना समिति पटना द्वारा अनेकानेक सम्मानों से अलंकृत किया गया था। कहते हैं बटुक भाई ‘राजनीतिक व्यङ्ग्य’ लिखने में महारथ थे। उन दिनों उनका अनेकानेक लेख तत्कालीन मिथिला मिहिर में प्रकाशित होता था। उन्होंने भारत संचार निगम लिमिटेड, गोरखपुर में भी काम किया। वे एक शिक्षक भी थे। वे मिथिला, मैथिलि और साहित्य के प्रति समर्पित थे। वे अपने लिए कभी नहीं जिए। विद्यापति समारोह को गांव-गांव तक पहुंचाने में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। वे पंडित रामचतुर मल्लिक के शिष्य भी थे।

पेन्सिल चित्र से बटुक भाई को श्रद्धांजलि

इण्डियन नेशन अख़बार के पूर्व संपादक (दिवंगत) श्री दीनानाथ झा के पुत्र श्री अशोक झा, जो पटना उच्च न्यायालय में अधिवक्ता भी हैं कहते है कि “मैं अपने जीवन में बटुक भाई जैसा सरल और सहज व्यक्ति नहीं देखा है। मिथिला में ऐसे विभूतियों की किल्लत है। वे जितना मानवीय थे, उतना ही मानसिक रूप से समाज, साहित्य, संस्कृति के प्रति वचनबद्ध भी। ”

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बटुक भाई मूल रूप से बिहार के दरभंगा जिले के चनौर गांव के थे। यह गांव मनीगाछी प्रखंड में है। बटुक भाई का जन्म पांच अप्रैल, 1946 को श्रोत्रिय ब्राह्मण परिवार हुआ। वे मगध विश्वविद्यालय से मैथिली में स्नातकोत्तर थे। आकाशवाणी की सेवा में आने के पहले उन्होंने रेलवे की नौकरी की। आकाशवाणी की सेवा में रहते हुए उन्होंने अपने अभिनय से मैथिली रंगमंच को एक नया अध्याय दिया। वे मैथिली नाट्य संस्था ‘भंगिमा’ के संस्थापकों में थे। उनके द्वारा लिखित नाटक ‘सुनु जानकी’ के मंचन से मैथिली रंगमंच को नयी दिशा मिली है।

पटना आकाशवाणी के अवकाश प्राप्त पत्रकार श्री बद्री प्रसाद यादव, जिन्होंने बिहार के खेल-कूद को अपने शब्दों से और लेखनी से एक नई दिशा दिया, कहते हैं “बटुक भाई हमसे कोई आठ साल सीनियर थे आकाशवाणी में। आमतौर पर हमलोगों की मुलाकात नित्य परिसर अथवा भवन के बरामदों पर होती ही थी। वे आकाशवाणी के लगभग सभी कर्मचारियों को नाम से जानते थे। शायद यह गन बहुत कम मनुष्यों में होता है, खासकर जो सीढ़ियों से ऊपर चढ़ने लगते हैं, ख्याति पाने लगते हैं, विख्यात होने लगते हैं, उनमें तो यह गुण होता ही नहीं है। बटुक भाई कहने के लिए ‘ब्राह्मण (श्रोत्रिय) थे, लेकिन वे एक मनुष्य और एक इंसान पहले थे।

उन्होंने अप्रैल, 2006 तक रेडियो के श्रोताओं के दिलों पर राज किया। तकरीबन अड़तीस वर्षों की सेवा के बाद जब आकाशवाणी से सेवानिवृत्त हुए, तो अपना जीवन लेखन और रंगकर्म को सौंप दिया। इस बीच अप्रैल, 2016 में पत्नी गीता झा उनका साथ छोड़ इस दुनिया से विदा हो गईं। इस सदमे को अपनी मुस्कुराहट से वे झेल भी नहीं पाए थे कि 2017 में छोटा बेटा सुनील सिंह झा ने सदा के लिए अपनी आंखें मूंद लीं। उनके लिए बड़े बेटे अनिल सिंह झा श्रवण कुमार की भूमिका में थे। बावजूद, वे साल भर से बीमार चल रहे थे। और, 16 सितंबर, 2022 को आवाज की दुनियां का यह नायक अलविदा कह गया।

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