डाक बंगला चौराहा (पटना) : घबराएं नहीं। नब्बे के दशक में जयप्रकाश नारायण (1974) के आंदोलन से निकले नेताओं ने तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं के कच्छा-बनियान को खींचकर अगर बिहार की राजनीति में अपना अस्तित्व बनाए थे, आज वे अपने अस्तित्व को बचाने के लिए प्रदेश के दबंगों, अपराधियों, बाहुबलियों के कच्छे-बनियान को धोने के लिए सज्ज हो रहे हैं। इसे ही तो कहते हैं राजनीति का अपराधीकरण या फिर अपराधियों का राजनीतिकरण। आप माने अथवा नहीं, लेकिन इन साढ़े तीन दशकों में एक ओर जहाँ प्रदेश के नेताओं के कदों में, चाहे किसी भी राजनीतिक पार्टियों से संबंध रखते हों, मिट्टी जैसा कटाव हुआ है, राजनीति और राजनेताओं के विचारधाराओं में घिसावट और गिरावट हुआ है; दवंगों, अपराधियों और बाहुबलियों का मोल अमेरिकन डॉलर जैसा मंहगा हुआ है। भारत के संविधान में, भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में भले सैकड़ों नियम और प्रावधान हों इन दबंगों, अपराधियों और बाहुबलियों को दण्डित करने के लिए, भुक्त-भोगियों को न्याय दिलाने के लिए; परन्तु ‘आज के नेता’ इस बात को ग्राह्य कर चुके हैं कि दोनों एक दूसरे के पूरक है। खैर।
शायद अस्सी के दशक का प्रारंभिक वर्ष था। आज के भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर, उन दिनों बिहार विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष थे। आठवां विधानसभा का चुनाव हो चुका था। आठवें विधान सभा कालखंड में कांग्रेस के दो-दो महारथी – डॉ. जगन्नाथ मिश्र और चंद्रशेखर सिंह – मुख्यमंत्री कार्यालय में विराजमान हुए थे। डॉ. मिश्र दूसरी बार 8 जून, 1980 से 14 अगस्त, 1983 तक और चंद्रशेखर सिंह 14 अगस्त, 1983 से 12 मार्च, 1985 तक मुख्यमंत्री रहे। कांग्रेस अपने घर के तत्कालीन नेताओं के आपसी कलह के कारण रसातल की ओर निकल चुका था। नवमी विधानसभा के लिए चुनाव का समय आ गया था। यह कालखंड 1985 से 1990 का था। प्रदेश में राजनीतिक स्थिरता डगरा पर रखे गोल बैंगन जैसा था। बिहार के नेता शुतुरमुर्ग की तरह रायसीना हिल की ओर टकटकी निगाहों से देखा करते थे। पटना से दिल्ली की ओर जाने वाली ट्रेनों को, हवाई जहाजों को मन ही मन नित्य प्रणाम किया करते थे ‘काश!! आला कमान की नज़रों में उनका भी चेहरा आये। अंतिम सांस से पहले, चाहे शरीर का हो अथवा पार्टी का, एक बार मुख्यमंत्री कार्यालय में रखी कुर्सी पर बैठ जाएँ।
उन दिनों तत्कालीन अग्रणी नेतागण एक-दूसरे को देखकर भले मुस्कुरा देते थे, लेकिन मुख्यमंत्री कार्यालय में बैठने के लिए अन्तःमन से ‘साम-दाम-दंड-भेद’ जैसे प्रयासों का अख्तियार करने में तनिक भी कोताही नहीं करते थे। बिहार की यही तो खास विशेषता है। यहाँ ‘झोलटन छाप आदमी’ भी, जो स्पष्ट बोलने के बजाय ‘हकलाकर’ बोलता हो, ‘तालव्य’ और ‘दन्त’ में अंतर नहीं समझता हो, ‘वॉवेल’ और ‘कॉन्सोनेंट’ में फर्क नहीं समझता हो – वह भी मुख्यमंत्री बनना चाहता था। लेकिन ‘शिक्षित’ और ‘अशिक्षित’ में, ‘चालाक’ और ‘मूर्ख’ में, ‘उदंड’ और ‘विनम्र’ में फर्क को चरितार्थ करते पहले बिंदेश्वरी दुबे, फिर भागवत झा ‘आज़ाद’, फिर सत्येंद्र नारायण सिन्हा, फिर डॉ. जगन्नाथ मिश्र जैसे ‘तथाकथित’ चार ‘महान विचारक’, प्रदेश के ‘उत्थानकर्ता’, ‘गरीबों के मशीहा’ मुख्यमंत्री बने।
यह वह कालखंड था जब बिहार में कांग्रेस पार्टी का ‘मृत्युलेख’ लिखा जा रहा था और सत्ता पर उसकी पकड़ फिसलती जा रही थी। अंततः सत्ता का बागडोर जयप्रकाश नारायण के ‘चेलों’ में अग्रणी लालू प्रसाद यादव के हाथ में 10 मार्च, 1990 को आ ही गया। आठवीं और नवमीं विधानसभा कालखंड में 30 जून, 1980 से 12 फरवरी, 1988 तक तत्कालीन जनता पार्टी (सेकुलर) के तरफ से कर्पूरी ठाकुर बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे।
कई मर्तबा कर्पूरी ठाकुर का पत्रकार सम्मेलन में The Indian Nation अख़बार का प्रतिनिधित्व किया करता था। कर्पूरी जी का ‘दतवन’ करना मशहूर था। यह कहा जाता है कि उस कालखंड में नेता प्रतिपक्ष को सरकारी बहुत सी सुविधाएँ, जो आज मिल रही है, नहीं मिला करती थी। उन्ही सुविधाओं में एक सुविधा वाहन की भी थी। इस विषय पर जब उस ज़माने के युवा और आज के वरिष्ठ पत्रकार लव कुमार मिश्रा से पूछा तो कहते हैं: “उस दिनों के बिहार के पत्रकार, प्रदेश की पत्रकारिता और नेताओं को बहुत नजदीक से देखने का मौका मिला था। उन दिनों प्रदेश के मंत्रियों की बात छोड़िये, मुख्यमंत्री से मिलना कठिन नहीं होता था। सुरक्षा कवच ऐसी नहीं थी। लालू यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद मुख्यमंत्री का कार्यालय और आवास प्रदेश की जनता से दूर होती गई और वह परंपरा उत्तरोत्तर और अधिक बढ़ती गई।”

मिश्र जी कहते हैं: “उस दिन मैं कर्पूरी जी मिलने उनके पास आया था। वे बाहर खड़े थे और पास में एक अन्य सज्जन भी थे। कर्पूरी जी वाहन का इन्तजार कर रहे थे। मैं जिस कार्य से उनसे मिलने गया था, उस विषय पर बात कर रहा था। तभी बीच में उन्हें टोकते घर के बाहर खड़े होने का कारण पूछा। कर्पूरी जी बहुत से साफ़ ह्रदय वाले थे। आज के नेताओं जैसा छोटी आंत और बड़ी आंत से राजनीति नहीं करते थे। वे तक्षण साफ़-साफ़ लहजे में कहे कि कहीं अन्यत्र जाना है और गाड़ी का इंतज़ार कर रहा हूँ, पाठक जी आश्वासन दिए हैं।”
“अभी बात समाप्त भी नहीं हुई थी कि सफ़ेद रंग का एक अम्बेस्डर कार सामने खड़ी हुई। एक सज्जन उतरे, कर्पूरी जी को प्रणाम करते गाड़ी की ओर प्रस्थान करने का निवेदन किये । साथ ही, हाथ में एक लिफाफा भी दिए। कर्पूरी जी लिफाफा को खोलकर देखे और फिर जेब में रख लिए। लिफ़ाफ़े की मोटाई और उसके अंदर रखे 100-100 रुपये के नोट को देखकर ऐसा लगा शायद 5000 रूपया रहा होगा। उन दिनों भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन होने के बाद भी अंतराष्ट्रीय बाजार के एक अमेरिकन डालर के लिए मात्र 6.61 रूपया देना होता था। आज हम 83.28 रूपया के आस-पास दे रहे हैं। हमारी बात लगभग समाप्त हो गई थी। जाते-जाते कर्पूरी जी कहते हैं ‘मैं देर रात तक वापस आ जाऊंगा, आप कल सुबह आ जाएँ, शेष बातें करेंगे।”
बहरहाल, आज प्रदेश की जो स्थिति है, खासकर राजनीतिक क्षेत्र में, वह किसी से छिपा नहीं है। आज तलवे कद के नेता हो या घुटने कद के, सभी स्वयं को आदमकद का ही नेता मानते हैं। सभी प्रदेश के लोगों का, मतदाताओं का भाग्य विधाता मानते हैं। हकीकत यह है कि कोई भी नेता मतदाता का नहीं है। राजनीतिक क्षेत्र में राजनीति का व्यापार हो रहा है। सभी अपने-अपने हिस्से का अंश निकाल रहे हैं। अन्यथा अगर ऐसा नहीं होता तो जिला परिषद् के चुनाव से लेकर विधान सभा और विधान परिषद् के रास्ते लोकसभा और राज्यसभा तक जाने वाले नेताओं की आर्थिक स्थिति उनके नामांकन के समय की आर्थिक स्थिति से कई हज़ार गुना अधिक नहीं होता।
आज सरकारी क्षेत्र के जितने भी ठेका है, निजी क्षेत्र के जितने भी शैक्षणिक संस्थाएं हैं, चिकित्सा केंद्र हैं, अस्पताल है, औसतन सभी क्षेत्रों में इन नेताओं का संरक्षण अथवा भागीदारी अवश्य है। ऐसी बात नहीं है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री अथवा कानून प्रवर्तन संस्थाएं या अधिकारी इस बात को नहीं जानते, लेकिन आखिर वे भी तो सरकारी अधिकारी ही हैं और नियमतः बिना सरकारी निर्णय के वे एक कदम भी नहीं बढ़ा सकते हैं। लव कुमार मिश्र के मुताबिक बिहार में भोला पासवान शास्त्री के अलावे कोई भी मुख्यमंत्री नहीं हुआ जो भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं हो। साठ -सत्तर के ज़माने में प्रदेश की राजनीति में अपराध और अपराधियों के लिए कोई स्थान नहीं था (अपवाद छोड़कर) । आज बाहुबली, दबंग, घनाढ्य के लिए राजनीति एक पेशा हो गया है, एक व्यवसाय हो गया है, एक स्टार्टअप हो गया है। सभी जानते हैं लेकिन सभी मूक-बधिर बने हैं।
सत्तर के कालखंड की शुरुआत और बाद के समय में भ्रष्टाचार और अपराध दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़कर चलने गए। दृष्टान्त: उन दिनों कदम कुआं, जहां जयप्रकाश नारायण का आवास महिला चरखा समिति है, के कुछ ही दूरी पर एक दो-मंजिला मकान में पटना नागरिक बैंक की स्थापना की गई थी। इसके पहले और अंतिम अध्यक्ष कांग्रेस के विधान सभा सदस्य नवल किशोर सिन्हा चुने गए। बैंक के प्रमोटर्स में मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्र और उनके राजनीतिक सचिव श्री जीवानंद झा भी शामिल थे। बैंक प्रारंभ से ही विवादों में रहा। विधान सभा की प्राक्कलन समिति ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट, जो सभा पटल पर रखी गई और सभी सदस्यों व पत्रकारों के बीच वितरित हुई, में सनसनीखेज खुलासा किया। इसमें कई अनुलग्नक भी थे।

ज्ञातव्य हो कि कर्ज लेने के लिए ऐतिहासिक गांधी मैदान ही नहीं, पटना जंक्शन रेलवे स्टेशन और प्लेटफॉर्म को गिरवी रख दिया गया। समिति ने इस बात के सबूत पाए कि बैंक में भारी अनियमितताएं थीं, आर्थिक प्रबंधन का उल्लंघन हुआ था। बैंक ने कई बनावटी लोगों को लोन दिए, जो वास्तव में मौजूद ही नहीं थे, और यदि थे भी, तो बैंक के सदस्य नहीं थे। कई लोगों ने पटना के मध्य स्थित विशाल गांधी मैदान को गिरवी रखा, तो कुछ ने पटना रेलवे स्टेशन को। एक लाभुक ने तो प्लेटफार्म नंबर एक को ही बंधक रखकर लोन लिया।
लव कुमार मिश्र कहते हैं: “मैंने द सर्चलाइट में प्रथम पृष्ठ पर रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें जनता की सार्वजनिक संपत्तियों को गिरवी रखे जाने का खुलासा किया गया था। बिहार सचिवालय कर्मचारी संघ ने तत्कालीन गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह को मेमोरेंडम देकर जांच की मांग की। उस समय डॉ. जगन्नाथ मिश्र मुख्यमंत्री थे और उनके करीबी नवल किशोर सिन्हा बैंक के अध्यक्ष। जांच शुरू हुई तो पटना सेंट्रल बैंक की शाखा से कुछ पे-इन स्लिप मिले, जिनसे पता चला कि पटना अर्बन बैंक से विभिन्न दिनों में इनके बचत खातों में पैसे जमा किए गए। बाद में जनता सरकार का पतन हो गया और डॉ. जगन्नाथ मिश्र 1980 में फिर से मुख्यमंत्री बन गए।
“10 जून 1980 को मंत्रीमंडल ने निर्णय लिया कि पटना अर्बन बैंक मामले की सुनवाई, जो पटना के मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी के यहां चल रही थी, वापस ली जाए। इसके लिए सरकारी वकील लल्लन प्रसाद सिन्हा ने केस विथड्रॉ करने का आवेदन दिया, जिसे सीजेएम ने स्वीकार कर लिया। शिवनंदन पासवान, जो एक प्रशासनिक अधिकारी और विधानसभा के उपाध्यक्ष भी थे, ने कर्पूरी ठाकुर के निर्देश पर पटना उच्च न्यायालय में सीजेएण के आदेश को चुनौती दी। यहां उनकी जीत हुई और सीजएम के आदेश को गलत ठहराया गया। इस बीच, दिल्ली में कांग्रेस की सरकार आ गई थी। जस्टिस बहरुल इस्लाम की बेंच ने पटना उच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया और डॉ. जगन्नाथ मिश्र को आरोपों से मुक्त कर दिया।”
इसके बाद, बिहार सरकार की सतर्कता पुलिस ने पटना की अदालत में सात लोगों पर मुकदमा दायर किया। सतर्कता पुलिस के आरक्षी महानिदेशक एस. के. चटर्जी ने खुद मामले की निगरानी की। नवल किशोर सिन्हा, जो कांग्रेस के विधायक थे, को गिरफ्तार कर जीप में थाने लाया गया। बैंक के सचिव, मैनेजर, लोन अधिकारी और दो बेनामी सदस्य भी गिरफ्तार हुए। सभी को 1986 में भारतीय दंड संहिता और भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत सजा सुनाई गई। इसके बाद बैंक में लिक्विडेशन की प्रक्रिया शुरू हुई। रिजर्व बैंक ने 1974 में जारी बैंक का लाइसेंस रद्द कर दिया। बिहार में रजिस्ट्रार ऑफ कोऑपरेटिव सोसाइटीज, टी. नंद कुमार (जो बाद में भारत सरकार में सचिव बनकर रिटायर हुए) को बैंक का लिक्विडेटर नियुक्त किया गया। तब से लेकर आज तक यह बैंक बंद है।

बहरहाल, बिनोदानंद झा से लेकर आजतक 22 मुख्यमंत्री बने हैं बिहार में, लेकिन बिहार ही नहीं, प्रदेश के बाहर दिल्ली में, नोएडा में, गाजियाबाद में, लखनऊ में, कानपुर में, कोलकाता में,चेन्नई में, मुंबई में, राजस्थान में, मध्यप्रदेश में, उत्तराखंड में नेताओं का, मंत्रियों का, अधिकारीयों का, ठेकेदारों का, दबंगों का और शासन-व्यवस्था के नजदीकियों का कितना बड़ा संपत्ति-साम्राज्य है, यह सर्वविदित है। के बी सहाय, महामाया प्रसाद सिंह, सतीश प्रसाद सिंह, बी पी मंडल, भोला पासवान शास्त्री, हरिहर सिंह, दारोगा प्रसाद राय, कर्पूरी ठाकुर, केदार पांडेय, अब्दुल गफूर, जगन्नाथ मिश्रा, राम सुन्दर दास, चंद्रशेखर सिंह, सत्येन्द्र नारायण सिंह, लालू प्रसाद, राबड़ी देवी और नीतीश कुमार – इन सभी मुख्यमंत्रियों का तथाकथित राजनीतिक संरक्षण से सभी चाहे मंत्री हों, अधिकारी हों, बाहुबली हों सबों ने मिलकर बिहार का चतुर्दिक लुटे और लूट रहे हैं। खैर।
कुछ दिन पूर्व बिहार के वरिष्ठ पत्रकार नलिन वर्मा ने लिखा था कि बिहार में दो बड़े घोटाले – लालू प्रसाद यादव के कार्यकाल में 950 करोड़ रुपये का चारा घोटाला और नीतीश कुमार के कार्यकाल में 22,000 करोड़ रुपये का सृजन घोटाला – इस बात का प्रमाण हैं कि भारतीय जनता पार्टी ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए केंद्रीय जांच ब्यूरो का किस तरह से इस्तेमाल किया है। सीबीआई अदालत ने डोरंडा (रांची) कोषागार से 139.50 करोड़ रुपये की “धोखाधड़ी से निकासी” में “षड्यंत्र” के आरोप में लालू सहित 74 अन्य को दोषी ठहराया था । यह चारा घोटाले का पांचवां और आखिरी मामला था जिसमें अदालत ने अपना फैसला सुनाया। अदालत ने चारा घोटाले के मामलों में 2013 में फैसले सुनाना शुरू किया था। लालू, एक अन्य पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा, कांग्रेस नेता जगदीश शर्मा, आईएएस अधिकारी के. अरुमुघम, बिहार पशुपालन विभाग के क्षेत्रीय निदेशक श्याम बिहारी सिन्हा समेत सैकड़ों लोगों को पार्टी लाइन से हटकर इस घोटाले के सिलसिले में आरोपित और दोषी ठहराया गया था। शर्मा, अरुमुघम और सिन्हा का निधन हो चुका है।

सीबीआई के शुरुआती रिकॉर्ड में नीतीश कुमार का नाम भी एक “लाभार्थी” के तौर पर दर्ज था, जिसमें आरोपी आपूर्तिकर्ताओं ने मामलों में उनका नाम लिया था। चाहे वह साफ-सुथरी छवि बनाए रखने का प्रयास हो या उपयुक्त राजनीतिक रणनीति, नीतीश ने 1990 के दशक के मध्य में लालू से नाता तोड़ लिया था, जब रांची के कुछ अखबारों ने कथित तौर पर धन के दुरुपयोग के बारे में खबरें छापनी शुरू की थीं। इसके बाद उन्होंने भाजपा से गठबंधन कर लिया। अदालत ने कई तारीखों तक मामले को आगे बढ़ाया, लेकिन कथित तौर पर सीबीआई नीतीश के खिलाफ आरोप को पुख्ता करने के लिए सबूत जुटाने में विफल रही।
चारा घोटाला और सृजन घोटाले की प्रकृति में काफी समानताएं हैं। सृजन घोटाले की जड़ें 2009 में हैं, जब नीतीश भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री थे। भागलपुर की मनोरमा देवी सृजन महिला विकास समिति (SMVS) नामक एक गैर-सरकारी संगठन (NGO) चलाती थीं, जहाँ वे गरीब महिलाओं को अचार बनाने का प्रशिक्षण देती थीं। जल्द ही उन्हें पटना के सत्ता के गलियारों में घूमते हुए पाया गया और वे सत्ताधारी पार्टी के शीर्ष नेताओं और नौकरशाहों से मिलती थीं और उन्हें भागलपुर में अपने प्रतिष्ठान में आतिथ्य प्रदान करती थीं। उनके साथ कथित तौर पर किए गए अवैध उपकार के सबूत हैं, जिसमें सीबीआई ने एक पूर्व आईएएस अधिकारी और भागलपुर के तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट के.पी. रामैया और मनोरमा देवी सहित 59 अन्य के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया है। आरोप राजकोष से मनोरमा के निजी खाते में भारी धनराशि स्थानांतरित करने के थे। यह तरीका उसी तरह का है, जिस तरह से श्याम बिहारी सिन्हा ने कथित तौर पर सत्ता में बैठे नेताओं को लाभ पहुँचाने के लिए राजकोष से धन निकालने के लिए फर्जी वाउचर का इस्तेमाल किया था। रमैया नीतीश के करीबी थे। 2014 में उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली और जनता दल (यूनाइटेड) के टिकट पर कांग्रेस की मीरा कुमार के खिलाफ सासाराम सीट से चुनाव लड़ा।
पिछले वर्ष 2024 जुलाई में एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट राजनीति के अपराधीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला था। राष्ट्रीय स्तर पर, प्रतिवेदन के अनुसार, 514 मौजूदा लोकसभा सांसदों में से 225 (44%) ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए थे। उसी प्रतिवेदन में यह भी कहा गया था कि इन लोगों में से 5% अरबपति हैं, जिनकी संपत्ति ₹100 करोड़ से अधिक है। इतना ही नहीं, आपराधिक आरोपों वाले मौजूदा सांसदों में से 29% पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें हत्या, हत्या का प्रयास, सांप्रदायिक विद्वेष को बढ़ावा देना, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ अपराध के आरोप शामिल हैं। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश में 50% से अधिक सांसद आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे हैं। प्रतिवेदन में यह भी कहा गया था कि यह राजनीतिक दलों और अपराधियों के बीच बढ़ती सांठगांठ का स्पष्ट प्रमाण है। यह इस बात को भी दर्शाता है कि चुनाव प्रक्रिया को नियंत्रित करने के लिए कानूनों और नियमों का घोर अभाव है और अंततः इससे जनता का विश्वास खत्म होता जा रहा है। बिहार की स्थिति भी इससे बेहतर नहीं हैं।
पिछले वर्ष ही तो जुलाई के प्रथम सप्ताह में बिहार के वरिष्ठ भाजपा मंत्री दिलीप कुमार जायसवाल ने अपने विभाग में कथित भ्रष्टाचार की कड़ी आलोचना की। राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग का प्रभार संभाल रहे जायसवाल ने अपने विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों की मासिक बैठक को संबोधित करते हुए स्वीकार किया कि विभाग में बिना पैसे के कोई काम नहीं हो रहा है। उन्होंने कहा, “चूंकि मैं अपने कर्तव्यों का पूरी ईमानदारी से निर्वहन करूंगा, इसलिए मैं उम्मीद करता हूं कि अधिकारी भी बिना किसी भ्रष्ट आचरण में लिप्त हुए अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें।” उन्होंने कहा कि राजस्व कर्मचारी और अन्य निचले स्तर के अधिकारी तथा भू-माफियाओं के साथ मिलीभगत कर रहे बिचौलियों ने स्थिति को और खराब कर दिया है, क्योंकि गरीब लोग भी तब तक अपना काम नहीं करवा पा रहे हैं, जब तक कि वे अच्छा पैसा नहीं देते। इतना ही नहीं, राजद के वरिष्ठ नेता और पार्टी के मुख्य प्रवक्ता शक्ति सिंह यादव ने कहा था कि राज्य में भ्रष्टाचार सर्वव्यापी है। कोई भी काम नहीं करवा सकता, क्योंकि अब तो मंत्री भी आईना दिखा रहे हैं। राज्य में संस्थागत भ्रष्टाचार है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता, लेकिन मुख्यमंत्री ‘भीष्मपितामह’ की तरह मूकदर्शक बने हुए हैं।”
जब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लिए थे, मंत्रिमंडल पुनर्गठन के बाद मंत्रियों के शपथ-पत्र और अन्य विवरणों का विश्लेषण के आधार पर एडीआर और इलेक्शन वॉच ने सार्वजनिक किया था कि नए शपथ लेने वालों में 70% से अधिक मंत्री आपराधिक मामलों का सामना कर रहे हैं। एडीआर ने जिन 32 मंत्रियों के चुनावी हलफनामों में आपराधिक, वित्तीय और शैक्षिक विवरण का विश्लेषण किया, उनमें से 23 (लगभग 72%) के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं। विश्लेषण किए गए हलफनामों के अनुसार, 17 (53%) मंत्रियों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले हैं। पार्टी के हिसाब से देखें तो राजद के 17 मंत्रियों में से 15 (88%) ने आपराधिक मामले घोषित किए हैं, जबकि 11 (65%) के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। रिपोर्ट के अनुसार नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली पिछली एनडीए सरकार में 31 मंत्रियों में से 18 के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे। 14 मंत्रियों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे।
उधर, कुछ दिन पूर्व, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने आईएएस अधिकारी संजीव हंस से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग और भ्रष्टाचार के आरोपों की चल रही जांच में छापेमारी के दौरान पटना में बिहार सरकार के सात वरिष्ठ अधिकारियों के परिसरों से 11.64 करोड़ रुपये नकद जब्त किए । ईडी अधिकारियों के अनुसार, तलाशी का उद्देश्य “सरकारी निविदाओं में अनुकूल निर्णय हासिल करने और ठेकेदारों के भुगतान में तेजी लाने से संबंधित रिश्वत के सबूतों को उजागर करना था, जिसमें पटना स्थित एक ठेकेदार रिशु श्री भी शामिल है”। केंद्रीय एजेंसी ने बिहार निर्माण विभाग में मुख्य अभियंता तारिणी दास, वित्त विभाग में संयुक्त सचिव मुमुक्षु चौधरी, शहरी विकास और आवास विभाग में कार्यकारी अभियंता उमेश कुमार सिंह, बिहार शहरी आधारभूत संरचना विकास निगम लिमिटेड में उप परियोजना निदेशक अयाज अहमद, बिहार चिकित्सा सेवा और आधारभूत संरचना निगम लिमिटेड में परियोजनाओं के उप महाप्रबंधक सागर जायसवाल, उसी निगम में एक अन्य उप महाप्रबंधक विकास झा और बिहार निर्माण विभाग के कार्यकारी अभियंता साकेत कुमार से जुड़ी संपत्तियों की तलाशी ली।

आपको याद होगा कि विगत दिनों रांची की सीबीआई की विशेष अदालत ने बहुचर्चित बिटुमिन घोटाला मामले में बिहार के पूर्व मंत्री मोहम्मद इलियास हुसैन और चार अन्य को तीन साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई है। अदालत ने प्रत्येक दोषी पर 32 लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया है। यह मामला 6 अगस्त 1996 का है, जब एक शिकायत के आधार पर एफआईआर दर्ज की गई थी, जिसके बाद आईपीसी की कई धाराओं के तहत जांच की गई, जिसमें आपराधिक साजिश (120बी), धोखाधड़ी (420), जालसाजी (467, 468, 471, 474) और आपराधिक विश्वासघात (409) के साथ-साथ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के प्रावधान शामिल थे। सीबीआई ने जांच अपने हाथ में ली और मामला आरसी नंबर 11(ए)1997-डी के रूप में दर्ज किया।
इस घोटाले में कथित तौर पर हल्दिया से बरौनी के रास्ते हजारीबाग में सड़क निर्माण विभाग (RCD) तक भारी मात्रा में बिटुमेन का परिवहन शामिल था। हालांकि, जांच में पता चला कि बिटुमेन का परिवहन ही नहीं किया गया। इसके बजाय, ट्रांसपोर्टर ने हल्दिया से बिटुमेन उठाकर कोलकाता के खुले बाजार में बेच दिया और धोखाधड़ी से परिवहन शुल्क का दावा किया। मोहम्मद इलियास हुसैन और अन्य दोषी व्यक्तियों में शहाबुद्दीन बेग, पवन कुमार अग्रवाल, अशोक कुमार अग्रवाल और विनय कुमार सिन्हा शामिल हैं। उनके खिलाफ आईपीसी की धारा 120बी, 407, 409, 420, 468 और 471 के साथ-साथ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13(2) सहपठित धारा 13(1)(डी) के तहत आरोप तय किए गए थे।
बहरहाल, दिल्ली में जीत हासिल करने के बाद, भाजपा ने अपना ध्यान आगामी बिहार चुनावों पर केंद्रित कर दिया है। एनडीए के नेता जीत के प्रति आश्वस्त हैं और अपने शासन रिकॉर्ड को उजागर कर रहे हैं। भाजपा ने 225 से अधिक सीटों का लक्ष्य रखा है। बिहार में विधानसभा चुनाव में महज छः माह शेष हैं, ऐसे में राजनीतिक दलों ने संभावित विजयी उम्मीदवारों पर दांव लगाना शुरू कर दिया है, जिनमें आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार भी शामिल हैं। पिछले तीन विधानसभा चुनावों के आंकड़ों से पता चलता है कि लगभग हर पार्टी ने दागी उम्मीदवारों पर भरोसा किया है, क्योंकि अपराध से चुनावी लाभ अधिक होता है।
बिहार में राजनीति के बड़े पैमाने पर अपराधीकरण के रूप में देखा जा सकता है, राज्य में विधानसभा चुनाव 2015 के विश्लेषण से पता चलता है कि 57 प्रतिशत मौजूदा सांसदों और विधायकों तथा चुनाव के लिए 30 प्रतिशत उम्मीदवारों ने अपने खिलाफ आपराधिक आरोप घोषित किए हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) और बिहार इलेक्शन वॉच (बीईडब्ल्यू) की एक रिपोर्ट, जिसने बिहार में सांसदों, विधायकों और उम्मीदवारों के चुनावी हलफनामों का विश्लेषण किया, ने कहा कि 2015 के राज्य विधानसभा चुनाव में, कुल विधानसभा सीटों (243) में से 43 प्रतिशत पर आपराधिक रिकॉर्ड वाले पांच या अधिक उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा था। 2005 और 2010 में, नीतीश कुमार को भ्रष्टाचार और अपराध से बिहार की छवि को साफ करने के वादे पर सत्ता में लाया गया था।
भारतीय जनता पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड), राजद और कांग्रेस में पिछले दो बिहार विधानसभा चुनावों में 50 प्रतिशत से अधिक दागी विधायक शामिल थे। 2015 में, राजद के 81 विधायकों में से 46 विधायकों (64%) के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे, उसके बाद भाजपा – 53 में से 36 विधायकों की पृष्ठभूमि आपराधिक है और जदयू – जिसके 71 सीटों में 34 दागी विधायक हैं। इसी तरह, 2010 के विधानसभा चुनाव में 32 प्रतिशत उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले दर्ज थे, जबकि 2005 के चुनावों में यह संख्या 27 प्रतिशत थी। 2005 में आपराधिक आरोपों वाले केवल 98 विधायक थे, 2010 में यह संख्या बढ़कर 23 प्रतिशत (121 विधायक) हो गई। 2015 की विधानसभा में पिछली विधानसभा की तुलना में 16 प्रतिशत अधिक दागी विधायक थे।
रिश्तेदारों का पिछले दरवाजे से प्रवेश विज्ञापन राजनीति में अपराधियों के प्रवेश को रोकने के लिए, फरवरी 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के लिए अपने आपराधिक पृष्ठभूमि का विवरण जनता को उपलब्ध कराना अनिवार्य कर दिया। सितंबर 2020 में, भारत के चुनाव आयोग ने पार्टियों को अपने उम्मीदवारों के आपराधिक इतिहास का विवरण प्रकाशित करने के लिए संशोधित दिशा निर्देश जारी किए। चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों से उनके चयन के कारण बताने को भी कहा है ताकि मतदाता सूचित चुनाव कर सकें। हालांकि, राजनीतिक पर्यवेक्षक जमीनी स्तर पर इन दिशा-निर्देशों के प्रभाव को लेकर संशय में हैं।
क्रमशः …..