मोदी जी “इन” बनारस या मोदीजी का “डमी” बनारस या मोदीजी का “बाय-बाय” बनारस !!

नरेन्द्र मोदी
नरेन्द्र मोदी

क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का संसदीय क्षेत्र बदलने की तैयारी में हैं? क्या हाथी के साइकिल पर सवार होने से बन रहे त्रिकोण ने प्रधानमंत्री के उत्तर प्रदेश का सांसद बने रहने में रोड़ा खड़ा कर दिया है? या, 2014 में जिस तरह से बनारस में स्थापित होने के लिए प्रधानमंत्री ने बड़ोदरा को डमी संसदीय सीट के तौर पर इस्तेमाल किया था, उसी तरह आगामी लोकसभा चुनाव में कोई नई रणनीति बन रही है। जिसमें बनारस के अलावा पटना और अहमदाबाद जैसे सीटों पर भी चुनाव लड़ने पर गंभीरता से विचार कर रहे हैं ?

उत्तर प्रदेश से प्रकाशित देश के सबसे बड़े राष्ट्रीय अखबार की सुर्खियां बनी एक खबर के मुताबिक भारतीय जनता पार्टी प्रधानमंत्री को पटना और अहमदाबाद से चुनाव लड़ाने की तैयारी में है। अगर ऐसा होता है, तो प्रधानमंत्री इस कहावत को सत्यापित करेंगे कि आज के बिहार की राजनीति जैसी है देश में वैसी राजनीतिक तस्वीर दस साल के बाद पैदा होने वाली है। मतलब बिहार राजनीतिक तौर पर देश से दस साल आगे है। बिहार बाकी और किन क्षेत्रों में आगे है, यह बताना आसान नहीं है।

पहले पटना के बहाने बिहार से प्रधानमंत्री के चुनाव लड़ने की संभावना को समझते हैं। पटना से केंद्रीय मंत्री रामकृपाल यादव सांसद हैं। उन्होंने जटिल मेहनत से पटना संसदीय सीट को बड़ी मेहनत से सींचकर अपना बनाया है। वह लंबे समय तक राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी)के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के प्राण प्यारे हुआ करते थे। आरजेडी में उनका व्यवहार लालू प्रसाद के दत्तक पुत्र सरीखा हुआ करता था। लेकिन 2014 में जैसे ही आरजेडी प्रमुख ने अपनी बेटी डॉ मीसा भारती को सांसद बनाने की लालसा पाली और रामकृपाल से पटना संसदीय सीट के परित्याग का आग्रह किया, दत्तक पुत्र रामकृपाल ने छिपकिली को शर्मसार करने के जैसा रंग बदल लिया। झट पाला बदलकर ताउम्र जी भरकर कोसते रहे चिरविरोधी बीजेपी के पाले में आ गए। रामकृपाल के रंग बदलने से आरजेडी को एतिहासिक नुकसान का सामना करना पड़ा। रामकृपाल से पहले आरजेडी के ज़ड़ में मट्ठा डालने के लिए नीतिश कुमार के साथ हो लिए प्रोफेसर रंजन यादव की नजर पटना संसदीय क्षेत्र पर गडी थी। लेकिन रामकृपाल ने न सिर्फ रंजन यादव की संभावनाओं पर पानी फेर दिया बल्कि संसदीय राजनीति में आरजेडी के लिए घर का भेदी लंका डाहे, वाला काम कर दिया।

ऐसे में अगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए पटना संसदीय क्षेत्र से दावेदारी छोड़ने के लिए केंद्रीय मंत्री रामकृपाल को राजी किया जा सकता है। क्या रामकृपाल ने जो काम पितातुल्य लालू प्रसाद के लिए नहीं किया वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए करने जा रहे हैं। यह लाख टके का सवाल है। वैसे राज्यसभा सांसद के बजट को लेकर पटना पर फोकस कर रही डॉ मीसा भारती अपनी दावेदारी को लेकर फिर से सक्रिय हैं। ऐसे में जातीय समीकरण व अन्य कारणों के लिए लगातरा चर्चा मे रहने वाला पाटलीपुत्र का सीट प्रधानमंत्री के लिए आसान नहीं होगा।

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हालांकि प्रधानमंत्री अगर बिहार के ही अन्य सीट से चुनाव लड़ने की लालसा रखते हैं, तो उनके लिए पटना साहिब की सीट मुफीद हो सकती है। वहां के फिलहाल सिने अभिनेता और बिहारी बाबू के नाम से मशहूर शत्रुध्न सिन्हा बीजेपी के सांसद हैं। सिन्हा ने केंद्र में मंत्री न बनाए जाने से खफा होकर पार्टी के अंदर छत्तीस का आंकड़ा बना रखा है। उनकी सीट पटना साहिब से प्रधानमंत्री लड़े या कोई और लेकिन बीजेपी की ओर से सिन्हा को फिर टिकट नहीं मिलने की बाद अभी से कही जा रही है।

वैसे प्रधानमंत्री के लिए बिहार में संसदीय सीटों की कमी नहीं होगी। घोर जातिवादी राजनीति के शिकार बनकर अंदर से छिन्न भिन्न तरीके से टूटे बिहार के मतदाताओं का रिकार्ड रहा है कि यहां बाहर से आए नेता को चुनावी राजनीति में आंखों पर बैठाया जाता रहा है। जार्ज फर्नाडींस, मधु लिमये, शरद यादव बिहार से आसानी से चुनाव जीतकर संसद में जाते रहे हैं। इस लिहाज से जार्ज का सींचा मुजफ्फरपुर और नीतिश कुमार की ओर से कभी जार्ज को उपहार में दिया नालंदा संसदीय क्षेत्र के अलावा मुंगेर और भागलपुर के अलावा जेटली की नाराजगी के शिकार होकर मौन पड़े कीर्ति झा आजाद का दरभंगा संसदीय क्षेत्र मुफीद हो सकता है।

जहां तक अहमदाबाद से प्रधानमंत्री के चुनाव लड़ने की अटकलों का सवाल है, तो इसके पीछे खालिस कारण गुजराती अस्मिता की रक्षा है। गुजराती गौरव ज्यादा है। उन्होंने प्रधानमंत्री रहते हुए अहमदाबाद की अहमियत देने में कोई कसर नहीं चोड़ी है। ऐतिहासिक रुप से प्रधानमंत्री पद पर नरेन्द्र मोदी के बैठने के बाद से ही विदेशी मेहमानों को अहमदाबाद ले जाया ताता है। अहमदाबाद प्रोटोकॉल का शहर बन गया है। कई मामलों में काशी से पहले प्रधानमंत्री ने अहमदाबाद को प्रधानता दी है।

जब दो में से एक संसदीय क्षेत्र को रखने के जटिल फैसले का वक्त आया तो बड़ोदरा से ज्यादा मार्जिन से हुई जीत के बावजूद प्रधानमंत्री ने काशी को चुनना ज्यादा पसंद किया। इसके पीछे बड़ी वजह उत्तर प्रदेश के सबसे ज्यादा सांसद भेजने वाले प्रदेश के तौर पर होती रही गणना है। उत्तर प्रदेश का होकर प्रधानमंत्री 81 संसदीय सीटों को प्रभावित करते हैं। पिछली बार भी काशी से चुनाव लड़ते वक्त प्रघानमंत्री ने बडोदरा को नहीं भूला था। दरसल गुजरात को प्रधानमंत्री ने असीम पसीने की मेहनत से सींचा है। गुजरात, नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की मजबूत सीढ़ी है। प्रधानमंत्री तो क्या घर को आसानी से कोई नहीं छोड़ता।

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वैसे अबतक का रिकार्ड रहा है कि चुनाव को लेकर प्रधानमंत्री जैसी बड़ी शख्सियत के मन में क्या चल रहा है उसे पढना आसान नहीं रहा है। फिर भी चर्चा चली है, तो इसके निहितार्थ को समझने की कोशिश करनी चाहिए। अव्वल यह कि प्रधानमंत्री के स्तर पर चुनाव क्षेत्र बदलने की बात क्यों चली है। क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बनारस के विकास कार्यों से संतुष्ट नहीं हैं। क्या उनको लग रहा है कि उनके काम से बनारस के लोग नाराज हैं। या, गोरखपुर और फुलपुर में प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मोर्य के परित्यक्त संसदीय क्षेत्र में भारतीय जनता पार्टी की रणनीति का सत्यानाश हो गया। जिस तरह से मायावती ने अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी से चुनावी एलायंस करने का स्पष्ट संकेत दे रखा है, उससे बीजेपी की मुसीबत भढी है। कोई अपशकुन उनको सता रहा है जिससे घबराकर संसदीय क्षेत्र का परित्याग करने का निर्णय कर लिया है। ऐसी धारणा प्रधानमंत्री के चुनावी प्रतिद्वंदी भी नहीं सोच सकते हैं। इसे लेकर आसानी से विरोधी व्यूहरचना की सफलता की कल्पना तो की जा सकती है, लेकिन व्यवहार में उसे उतार लेना आसमान से तारे तोड़ लाने जैसा है। क्योंकि बनारस की राजनीति में फिलहाल प्रधानमंत्री के घोर विरोध को लेकर कोई हवा नहीं चल रही है। जिसके आधार पर ऐसे नतीजे निकाले जा सके।

इसके विपरीत बनारस फिलहाल उन संसदीय क्षेत्रों में शामिल है, जिसने पिछले चार सालों में बदलाव के कई मानक तोड़े हैं। गुजरात से आने वाले राज्यसभा के एक विश्वस्त सांसद को बनारस के विकास कार्यों पर सुक्ष्म निगरानी के लिए होल टाइम काम दिया गया है। फिलहाल तो उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। प्रदेश में जब समाजवादी पार्टी की सरकार हुआ करती थी तब भी प्रधानमंत्री ने तात्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से इतनी ट्विनिंग बना रखी थी कि बनारस में सबसे सक्षम जिलाधिकारी, अनुमंडलाधिकारी और अंचलाधिकारी की नियुक्ति हो और ये सब प्रधानमंत्री कार्यालय के सीधे संपर्क में रहकर काम करते रहे।

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प्रधानमंत्री स्वंय झाडू लेकर अस्सी घाट से लेकर बनारस के कई कोने में दबे कूड़े को झाड़ने की पहल कर चुके हैं। उनके सांसद बनने के बाद से वायदे के मुताबिक काशी को क्योटो तो नहीं बनाया जा सकता है लेकिन विकास और बदलाव के नाम पर बनारस में जमीन आसमान का फर्क आया है। यह दीगर है कि चुनाव जीतने के बाद के शुरुआती चरण ने शिव की नगरी बनारस ने प्रधानमंत्री के लिए “बहुत कठिन है डगर पनघट के” वाला अहसास देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

शुरुआती दौर में बनारस में आयोजित कई धन्यवाद कार्यक्रमों को प्राकृतिक आंधी तूफान की वजह से प्रधानमंत्री को टालने को मजबूर होना पड़ा था। लेकिन बाद के चरणों में उनपर काबू पा लिया गया। बीते विधानसभा चुनाव के वक्त बनारस में भाजपा का कमल की कली फूल बनकर जमकर खिली। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के प्रांगण से संचालित छात्र राजनीति के उत्पात और आप्लावन को छोड़कर शेष शहर में विपक्ष को जमने के लिए पैर देने वाला फिलहाल कोई ठौर नहीं दिख रहा है। बनारस के विकास के जरुरतमंद बुनकर से लेकर हाशिए पर फंसे हर जाति बिरादरी के मतदातों की सुध ली जा रही है।

बनारस में चुनावी चुनौती देने के लिए विपक्ष को चट्टानी एकता का परिचय देना होगा। उस मुताबिक व्यूह रचना बनानी होगी। जो फिलहाल नजर नहीं आता। राज्यसभा चुनाव में जिस तरह से समाजवादी पार्टी को जया बच्चन की कीमत पर बहुजन समाज पार्टी के दलित चहेरे भीमराव अम्बेडकर को जीतवाना कबूल नहीं हुआ, उससे गोरखपुर और फुलपुर उपचुनाव से जगी संभावना को पलीता ही लगा है।

दूसरा, प्रधानमंत्री बिहार या गुजरात से चुनाव लड़कर नया किस्म की राजनीति करना चाहता है।

जहां तक नतीजों की आशंका से घबराकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बदलने की बात चली है, तो हार की आशंका से घबराहट की वजह पर यकीन करना आसान नहीं है। खासकर जिन्होंने प्रधानमंत्री के कामकाज के तरीके को देख रखा है, वह अगर विपक्ष में भी हैं, तो इस पर यकीन करना मुश्किल है।उनकी ओर से किए गए वायदों के मुताबिक नहीं हो पाया है ? काशी को क्योटो बना देने का संकल्प अधूरा है। अधूरे संकल्प के व्याधिपूर्ण नतीजों की आशंका से चुनाव क्षेत्र बदलने पर विचार चल रहा है।

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