भारत की धार्मिक राजधानी में एक व्यक्ति अब तक 16,000 से भी अधिक मनुष्यों के शरीर को “पार्थिव” होते देखा, आत्मा को मोक्ष पाते महसूस किया

भैरव नाथ शुक्ला
भैरव नाथ शुक्ला

काशी (बनारस) : वैसे यह मनुष्य के कल्पना से परे हैं, परन्तु सत्य ही नहीं, सत्य का पराकाष्ठा है। काशी (बनारस) के एक मकान से पिछले साठ वर्षों में अब तक सोलह हज़ार से अधिक लोग इस पृथ्वी पर अपने – अपने नश्वर शरीर को त्यागकर ईश्वर में लीन हो गए हैं, अपनी-अपनी आत्मा के साथ, मोक्ष को प्राप्त किये हैं। वैसे भी, हिन्दू धर्म के अनुसार, यदि एक मनुष्य की मृत्यु काशी कहें या बनारस में होती है, तो जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाकर उसकी आत्मा को मोक्ष प्राप्त होता है और यही कारण है कि भारत ही नहीं, विश्व के कई देशों से लोग काशी में अपना शरीर त्यागने की असीम ईक्षा रखते हैं, काशी तो आते हैं – परन्तु कभी वापस नहीं जाने के लिए।

काशी शिव का नगरी है। सती का नगरी है। भूत-प्रेत-पचासों का नगरी है। मोक्ष का नगरी है। कहा जाता है कि दक्षप्रजापति ने सहस्त्रों वर्षों तक तपस्या करके पराम्बा जगदम्बिका को प्रसन्न किया और उनसे अपने यहां पुत्रीरूप में जन्म लेने का वरदान मांगा। पराशक्ति के वरदान से दक्षप्रजापति के घर में दाक्षायणी का जन्म हुआ और उस कन्या का नाम ‘सती’ पड़ा। उनका विवाह भगवान शिव के साथ हुआ।

एक बार ऋषि दुर्वासा ने पराशक्ति जगदम्बा की आराधना की। देवी ने वरदान के रूप में अपनी दिव्यमाला ऋषि को प्रदान की। उस माला की असाधारण सुगन्ध से मोहित होकर दक्षप्रजापति ने वह हार ऋषि से मांग लिया।दक्षप्रजापति ने वह दिव्यमाला अपने पलंग पर रख दी और रात्रि में वहां पत्नी के साथ शयन किया। फलत: दिव्यमाला के तिरस्कार के कारण दक्ष के मन में शिव के प्रति दुर्भाव जागा। इसी कारण दक्षप्रजापति ने अपने यज्ञ में सब देवों को तो निमन्त्रित किया, किन्तु शिव को आमन्त्रित नहीं किया। सती इस मानसिक पीड़ा के कारण पिता को उचित सलाह देना चाहती थीं, किन्तु निमन्त्रण न मिलने के कारण शिव उन्हें पिता के घर जाने की आज्ञा नहीं दे रहे थे। किसी तरह पति को मनाकर सती यज्ञस्थल पहुंचीं और पिता को समझाने लगीं।

दक्षप्रजापति अपनी पुत्री से कहते हैं कि वे देवयज्ञ किया है, प्रेतयज्ञ नहीं। जहां देवताओं का आवागमन हो वहां प्रेत नहीं आ सकते। तुम्हारे पति भूत, प्रेत, पिशाचों के स्वामी हैं, अत: मैंने उन्हें नहीं बुलाया है। महामाया सती ने पिता द्वारा पति का अपमान होने पर उस पिता से सम्बद्ध और शरीर को त्याग देना ही उचित समझा।

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पिता के तिरस्कार से क्रोध में सती ने अपने ही समान रूप वाली छायासती को प्रादुर्भूत किया और अपने चिन्मयस्वरूप को यज्ञ की प्रखर ज्वाला में दग्ध कर दिया। सती के यज्ञाग्नि में प्रवेश के समाचार को जानकर भगवान शंकर कुपित हो गए। उन्होंने अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और पर्वत पर दे मारी जिससे उसके दो टुकड़े हो गए। एक भाग से भद्रकाली और दूसरे से वीरभद्र प्रकट हुए। उनके द्वारा यज्ञ का विध्वंस कर दिया गया। सभी देवताओं ने शिव के पास जाकर स्तुति की। शिव स्वयं यज्ञस्थल पहुंचे। सारे अमंगलों को दूर कर शिव ने यज्ञ को तो सम्पन्न करा दिया, किन्तु सती के पार्थिव शरीर को देखकर वे उसके मोह में पड़ गए। सती का शरीर यद्यपि मृत हो गया था, किन्तु वह महाशक्ति का निवासस्थान था। अर्धनारीश्वर भगवान शंकर उसी के द्वारा उस महाशक्ति में रत थे। अत: मोहित होने के कारण उस शवशरीर को छोड़ न सके।

महादेव छायासती के शवशरीर को कभी सिर पर, कभी दांये हाथ में, कभी बांये हाथ में तो कभी कन्धे पर और कभी प्रेम से हृदय से लगाकर अपने चरणों के प्रहार से पृथ्वी को कम्पित करते हुए नृत्य करने लगे। शिव के चरणप्रहारों से पीड़ित होकर कच्छप और शेषनाग धरती छोड़ने लगे। शिव के नृत्य करने से प्रचण्ड वायु बहने लगी जिससे वृक्ष व पर्वत कांपने लगे। सर्वत्र प्रलय-सा हाहाकार मच गया।

संसार का में त्रादसी को देखकर देवताओं और भगवान विष्णु ने महाशक्ति सती के देह को शिव से वियुक्त करना चाहा। भगवान विष्णु ने शिव के मोह की शान्ति एवं अनन्त शक्तियों के निवासस्थान सती के देह के अंगों से लोक का कल्याण हो – यह सोचकर सुदर्शन चक्र द्वारा छायासती के शरीर के खण्ड-खण्ड करने लगे। सती के मृत शरीर के विभिन्न अंग और उनमें पहने आभूषण ५१ स्थलों पर गिरे जिससे वे स्थल शक्तिपीठों के रूप में जाने जाते हैं। सती के शरीर के हृदय से ऊपर के भाग के अंग जहां गिरे वहां वैदिक एवं दक्षिणमार्ग की और हृदय से नीचे भाग के अंगों के पतनस्थलों में वाममार्ग की सिद्धि होती है।

काशी में सती की ‘कान की मणि’ गिरी थी। यहां सती ‘विशालाक्षी’ तथा शिव ‘कालभैरव’ कहलाते हैं। काशी अपने आप में रहस्यों से भरा शहर है। काशी शहर जिसकी जड़ें खुद इतिहास समेटे है, जो परम्पराओं से भी प्राचीन है, जो महागाथाओं से भी परे है।

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महादेव के इसी नगरी काशी के बेहद भीड़-भाड़ वाले इलाके में, एक कोने में, एक अनोखी ईमारत है जिसके कमरे मृत्यु की लिए सुरक्षित होता हैं। यहाँ देश भर से लोग इसलिए ठहरने आते हैं, जिन्हे अपनी मृत्यु का आभास होता है, इंतज़ार होता है । बनारस के गिरजाघर चौराहे के पास स्थित काशी लाभ मुक्ति भवन में लोग आते हैं, मगर फिर यहाँ से कभी नहीं जाते। यहाँ से जाता है उनका पार्थिव शरीर अंतिम संस्कार के लिए, दाह संस्कार के लिए।

मुक्ति-भवन
मुक्ति-भवन

बनारस का यह ‘मुक्ति-भवन’ चैरिटी से चलता है। यहाँ १२ कमरे हैं, एक मंदिर है, और पुजारियों के लिए छोटे-छोटे क्वार्टर बने हैं – मृत्यु के इंतजार का। नियमतः यहां दो हफ़्ते तक रह सकते हैं। यह दो-मंज़िला इमारत जो जीवन के सत्य की साक्षी है। उसके दरवाज़े हर पल, हर घड़ी खुले हैं। हवा के झोंके की तरह शरीर के बंधन में उलझी अात्मा यहाँ आती है। कुछ गहराती सांसें, अवचेतन मन, साथ छोड़ता शरीर और सही मौक़ा पाकर अनंत में विलय हो जाता है। राजा हो या रंक सभी को इस प्रक्रिया से गुजरना है। मुक्ति भवन में तक पहुँचते-पहुँचते ग़रीबी-अमीरी, पद -प्रतिष्ठा, चाहत -दुश्मनी, ईर्ष्या-द्वेष सब गेट के बाहर ही समाप्त हो जाता है।

इस संस्था के प्रबंधक हैं भैरव नाथ शुक्ला जो लोगों की मुक्ति के लिए कई दसकों से प्रार्थना करते आ रहे हैं। ये लोगों को कुछ और दिन ठहरने की इजाज़त दे देते हैं, वो भी तब, जब उन्हें लगता है कि यह मनुष्य कुछ ही दिन में इस लोक से सिधारने वाला है। अब तक यहाँ पंद्रह हज़ार से अधिक लोग ठहर चुके हैं।

शुक्ला जी के अनुसार: “जो व्यक्ति संसार के सुखों को त्यागकर ईश्वर को पाने की इच्छा रखता है वह अंतिम समय में काशी प्रवास करता है। ऐसे ही लोगों लिए यह मुक्ति भवन बनाया गया है।”

इस भवन का निर्माण विष्णु बिहारी डालमिया ने करवाया और उन लोगों को समर्पित किया था जो काशी में मोक्ष पाना चाहते हैं। ऐसे लोगों के लिए यहां निःशुल्क रखने की व्यवस्था की गयी। मुक्ति भवन के भीतर बने मंदिर में काशी विश्वनाथ मंदिर की तरह आरती और अभिषेक साल 2000 से परस्पर किया जा रहा है। पहले यहां 8 पुजारी हुआ करते थे और एक सेवक पर अब सिर्फ 3 पुजारी है और एक सेवक बचे हैं।

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इस भवन में रहने से लेकर , रोजाना के रीति रिवाज और यहां तक कि देह से आत्मा के मुक्त होने के बाद अंतिम संस्कार तक का खर्चा ट्रस्ट द्वारा वहन किया जाता है। शुक्लाजी के अनुसार : एक पवित्र स्थान है हमारा ट्रस्ट। भोजन से लेकर सभी रीति रिवाजों का खर्चा उठाता है क्योंकि हम आध्यात्मिक संतोष उपलब्ध कराने में विश्वास रखते हैं। यहाँ न केवल भारत से बल्कि विदेशों से भी श्रद्धालु मोक्ष की अवधारणा को समझने के लिए यहाँ समय व्यतीत करते हैं।

वाराणसी भारत की धार्मिक राजधानी के रूप में मशहूर है जहां हजारों लोग विभिन्न आध्यात्मिक मकसदों को लेकर आते हैं। कुछ अंतिम संस्कार के लिए आते हैं, कुछ अपने नवजात शिशुओं के जन्म संस्कार के आते हैं तो कुछ शांति से मृत्यु को पाने के लिए। जो लोग मरने वाले हैं या मृत्युशैय्या पर हैं और मोक्ष में यकीन रखते हैं वे आध्यात्मिक संतोष के लिए यहां आते हैं।

बहरहाल, काशी के मणिकर्णिका घाट पर जाकर देखिए। वहां रोजाना सैकड़ों मृतकों का दाह संस्कार होता है। अगर कोई वहां बैठ कर साधना करता है तो उसे उस स्थान का महत्व समझ आता है। इसका मुख्य कारण यह है कि वहां प्रचुर मात्रा में और बहुत वेग के साथ शरीरों से उर्जा बाहर निकलती है। यही कारण है कि शिव समेत कुछ खास किस्म के योगी हमेशा श्मशान घाट में साधना करते हैं, क्योंकि बिना किसी की जिंदगी को नुकसान पहुंचाए साधक जीवन ऊर्जा का उपयोग करता हैं। ऐसी जगहों पर खासकर तब जबर्दस्त ऊर्जा होती है, जब वहां आग जल रही हो। अग्नि की खासियत है कि यह अपने चारों ओर एक खास किस्म का प्रभामंडल पैदा कर देती है या आकाश तत्व की मौजूदगी का एहसास कराने लगती है।मानव के बोध के लिए आकाश तत्व बेहद महत्वपूर्ण है। जहां आकाश तत्व की अधिकता होती है, वहीं इंसान के भीतर बोध की क्षमता का विकास होता है। (सुश्री ईशा बनर्जी और सुश्री श्रद्धा बक्शी के सहयोग से.)

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