काश !! विधवाओं के रक्षार्थ प्रधान मन्त्री ‘एक कानून’ बना देते, हज़ारों विधवाएँ तो ‘राखी भी बाँधी थी’ उन्हें

​बनारस की गलियों स्थित विधवा आश्रम के एक विधवा
​बनारस की गलियों स्थित विधवा आश्रम के एक विधवा

वृन्दावन / बनारस / नई दिल्ली : काशी – मथुरा – काशी – प्रयाग – वृन्दावन में अपने जीवन की अन्तिम साँसें गिनती हज़ारो विधवाएँ प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी की कलाईयों पर राखी बाँधती रहीं, उन्हें दुआएं देती रहीं, जीवन के अंतिम वसंत में भर-पेट भोजन और सुरक्षा मांगती रहीं, उनसे गुजारिश करती रहीं की केन्द्र सरकार एक कानून बनाये उनके कल्याणार्थ । लेकिन केन्द्र सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। शिव की नगरी बनारस से लेकर कृष्ण की नगरी मथुरा-वृन्दावन सहित देश की लगभग 3.60 करोड़ विधवाएं बहुत दुःखी है केन्द्र सरकार, कानून मन्त्री रविशंकर प्रसाद और माननीय प्रधान मन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी से।

पिछले कई वर्षों से वृन्दावन-मथुरा-काशी-प्रयाग की विधवाएं इस आशा और विस्वास से जी रहीं थीं एक इस सरकार की समय समाप्ति से पूर्व “दयावान” प्रधान मन्त्री उन विधवाओं की सुरक्षा व्यवस्था हेतु संसद में एक विधेयक लाकर कानून बनाएगी, ताकि अपने-अपने घरों से निर्वासित इन वृद्ध माताओं, विधवाओं को सहारा मिले, परन्तु ऐसा नहीं हो पाया। यह अलग बात है कि कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद भी अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस पर कहे थे की कानून मंत्रालय विधवाओं के कल्याण के लिए एक निर्णायक कार्य करेगा। लेकिन उनका आश्वासन भी “विधवा” ही रह गया।

​भारत में करीब 3.60 करोड़ विधवाएं हैं ​जिनकी हितों की रक्षा के लिए सरकार की पहल होनी चाहिए थी । ज्ञातब्य है कि सुलभ इंटरनेशनल सोसल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन के संथापक डॉ बिन्देश्वर पाठक, जिन्होंने विधवाओं के कल्याणार्थ ऐतिहासिक कार्य किये हैं; विधवाओं की हितों में कानून बनाने के लिए एक बिल का मसौदा तैयार किया था और इस दिशा में देश के सभी राजनीतिक दलों के सहयोग की अपील भी किया था।

उन्होंने कहा” “हमें पूर्ण विस्वास है कि इन उपेक्षित वृद्ध माताओं, विधवाओं के कल्याण और सुरक्षा के लिए सरकार जरूर पहल करेगी।”

​उनके अनुसार,​ ‘समाज में विधवाओं की दयनीय दशा में सुधार के लिए कानून बनाए जाने की दृष्टि से मैंने एक विधेयक का प्रस्ताव किया है। हम चाहते हैं कि सरकार उपेक्षित विधवाओं के संरक्षण, कल्याण और सहायता के लिए कानून बनाकर एक विधवा कल्याण बोर्ड का गठन करे और उनके लिये अलग से निधि बनायी जाए।​ विधवाएं समाज का अभिन्न हिस्सा हैं और सरकार का यह ​दायित्व है की वे उनकी रक्षा करे। ”

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डॉ पाठक ने कहा की कानून तो बनना ही चाहिए लेकिन साथ ही विधवाओं को लेकर समाज को अपनी सोच भी बदलनी चाहिए और अल्पायु में विधवा होने वाली युवतियों और महिलाओं के पुनर्विवाह को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए। यह बताते हुए कि देश की कुल आबादी में विधवाओं की संख्या लगभग तीन प्रतिशत के बराबर है और इनमें से 50 प्रतिशत बुजुर्ग, असहाय और अशक्त हैं, जिनके पास आमदनी का कोई जरिया नहीं है।

​​कहा जाता है कि विधवाओं की बुरी हालत को देखकर कृष्ण भक्त मध्यकालीन कवि चैतन्य महाप्रभु ने विधवाओं को जीवन के आखिरी पल वृंदावन में कृष्ण भक्ति करते हुए गुजारने की परम्परा डाली और विधवाओं को लेकर वृंदावन आ गए। तब मकसद यह था कि अपने परिवारों की उपेक्षा झेल रही विधवाओं को मन्दिर और आश्रम आसरा देंगे और उनकी जिन्दगी गुजर जाएगी। लेकिन कालांतर में हालात सामान्य नहीं रहे। परिवारों ने अपनी ही अजीज रही विधवाओं को खुद पर बोझ मानना शुरू किया और वृंदावन लाकर उन्हें अपने हाल पर जीने के लिए छोड़ने लगे। कुछ साल पहले तक वृंदावन में विधवाएँ सड़कों पर भीख माँगते दिख जाती थीं। इतना ही नहीं “अमानवीयता का पराकाष्ठा इस बात से लगाया जा सकता है कि गरीबी के कारण जब उनकी मौत हो जाती थी तो उन्हें सामान्य और सहज अन्तिम संस्कार भी नसीब नहीं होता था। उनके शव को टुकड़ों में काटकर बोरी में बाँधकर यमुना में फेंक दिया जाता था।

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इस बात की खबर एक स्वयंसेवी संगठन को पता चली तो उसने सुप्रीम कोर्ट में विधवाओं की हालत सुधारने के लिए जनहित याचिका दायर कर दी। इसी जनहित याचिका पर सुनवाई करते वक्त जब विधवाओं की बदहाली की जानकारी हुई तो सुप्रीम कोर्ट ने साल 2012 में राष्ट्रीय महिला आयोग, उत्तर प्रदेश महिला आयोग, उत्तर प्रदेश सरकार, मथुरा जिला प्रशासन और सम्बन्धित विभागों को जबर्दस्त लताड़ लगाई थी। इसी सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और यूयू ललित की सामाजिक पीठ ने कोर्ट के एमिकस क्यूरी से पूछा कि क्या विधवाओं को राहत दिलाने के लिए सुलभ इंटरनेशनल से बात की जा सकती है।

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जब इस पर सहमति बनी तो डॉक्टर पाठक के पास वृंदावन की विधवाओं की मदद के लिए अगस्त 2012 में चिट्ठी आई। उन्होंने अपने सुलभ होप फाउण्डेशन के जरिए वृंदावन की विधवाओं को पहले एक हजार रुपए महीना और बाद में दो हजार रुपए महीने की सहायता देनी शुरू की। इससे वृंदावन की विधवाओं की हालत सुधर गई है। अब उन्हें भोजन के लिए भीख माँगने की जरूरत नहीं पड़ती। वृंदावन में उदासीन बाबा का आश्रम अब सुबह-शाम सुलभ की सहायता से चलने वाले भजन कार्यक्रमों से गूंजता रहता है। इतना ही नहीं इनमें जो जवान और काम करने लायक हालत में विधवाएँ हैं, उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए सिलाई-कढ़ाई जैसे कामों की ट्रेनिंग दी जा रही है। इसके अलावा अशिक्षित विधवाओं को पढ़ाने का काम भी किया जा रहा है।

वृंदावन की तरह काशी भी विधवाओं के लिए मशहूर रहा है। हालाँकि यहाँ विधवाओं की संख्या वृंदावन की तुलना में कम है। विधवाओं की नगरी के रूप में वृन्दावन शहर में अब हालात बदल रहे हैं। कुछ वर्ष पहले तक जहाँ मथुरा-वृन्दावन में गलियों में, सड़कों पर, चौराहों पर,​ शहर के हर कोने और चौक पर वृद्ध विधवा स्त्रियां दिखाई देती थी अपने-अपने जीवन-मरण को देखती, महसूस करती, अब नहीं हैं। अब सभी विधवाएं आश्रमों में रहती हैं, टीवी देखती हैं, भजन गाती हैं। उनके लिए वहां जीवन की मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध हैं।’ इसके आलावा अगरबती बनाना, कपडे सिलना, फूल के माला बनाना, मोमबती बनाना। इससे जो आमदनी होती है वह उनके सर्वांगीण विकास पर खर्च की जाती है ताकि उन चेहरे पर प्रसन्नता रहे।

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गौर​​लब है की कुछ वर्ष पहले तक वृंदावन में बड़ी संख्या में विधवा स्त्रियां सफेद साड़ी में मंदिरों में भटकते हुए और भीख मांगते देखी जाती थीं। भगवान कृष्ण की नगरी कहे जाने वाले शहर में निर्धन और कुपोषण की शिकार इन विधवाओं में से कई इतनी कमजोर थीं कि सिर्फ हड्डियों और मांस का ढांचा मात्र रह गई थीं।

संडेपोस्ट से बातचीत करते डॉ पाठक कहते हैं: “यह सुलभ आंदोलन के लिए सौभाग्य की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय ने विधवाओं की दुर्दशा पर सुनवाई के वक्त सुलभ को महत्व दिया। सरकार से सुलभ से पूछकर बताने को कहा गया कि हम बदहाल विधवाओं को खिलाने का इंतजाम कर सकती है या नहीं। न्यायमूर्ति के जेहन से इस नेक काम के लिए सुलभ का जिक्र होना हमारे लिए गौरव की बात है। हम मैला ढोने वाली महिलाओं को समाजिक हक दिलाने के लिए पहले से सक्रिय थे। सर्वोच्च न्यायालय ने समाज की परित्यक्ता बनकर जीने के विवश वृंदावन औऱ वाराणसी की विधवाओं की मदद के लिए हमें उतार दिया। यहां की आश्रमों में रहने वाली विधवाओं के लिए खाने- पीने, पहनने ओढने की समस्या के साथ अंतिम संस्कार तक में समुचित सम्मान नहीं मिलने की मुसीबत थी। सर्वोच्च न्यायालय में मरने के बाद इन विधवाओं के शरीर को बोटी बोटी कर यमुना में फेंके जाने के मामले की सुनवाई के लिए पहुंचा था। सुलभ के प्रयास से आज यहां के आश्रमों में रहने वाली विधवाओं को दो हजार रुपए प्रतिमाह का अनुदान दिया जा रहा है। हालत में बदलाव के लिए हिंदी, अंग्रेजी और बांगला में शिक्षा का इंतजाम किया गया है। पुनर्वास के अन्य जरूरी सुविधाओं का ख्याल रखा जा रहा है।”

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