
मधुबनी (बिहार) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बिहार के महामहिम आरिफ़ मोहम्मद खान के साथ-साथ मंच पर उपस्थित सभी गणमान्य लोगों के सामने लाल, पीली, हरी, बैगनी रंगबिरंगी साड़ियों में, भर मांग सिन्दूर भरी बिहार की इन महिलाओं को शायद मालुम नहीं होगा कि भारत में ना सही, आज भी विश्व के अनेकों भाग में जब महिलाएं बोलती हैं, तो उस देश के पुरुष ही नहीं, पूरे विश्व के पुरुष उनकी बातों को तन्मयता के साथ सुनते हैं। इन महिलाओं को यह भी मालूम नहीं होगा कि विश्व के एक कोने में एक महिला अपने देश (अमेरिका) ही नहीं, बल्कि विश्व की महिलाओं के लिए कही थी ‘महिला अधिकार ही मानव अधिकार है।”
यह बात इस मंच पर लागू नहीं होता है क्योंकि यह बिहार है। बिहार में पुरुष प्रधानता अधिक है। मंच के सामने बैठी महिलाओं को शायद यह नहीं मालुम होगा कि जिस अवसर पर प्रधानमंत्री बिहार के इस मिथिला क्षेत्र में प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ-साथ उनके मंत्रिमंडल और केंन्द्रीय मंत्री मंच का शोभा बढ़ा रहे हैं ताकि किसी भी तरह प्रधानमंत्री की नज़रों में आएं, बरकार रहें, यह अवसर पंचायत राज का सम्मेलन वाला अवसर है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि बिहार में प्रजातंत्र की पहली सीढ़ी (पंचायत) पर प्रदेश की महिलाओं का पुरुषों से अधिक भागीदारी होते हुए भी वे नीचे जमीन पर बैठी हैं। क्योंकि वे सभी औरत हैं, अशिक्षित हैं, अर्थ से कमजोर हैं। वे बोल नहीं सकती पुरुषों के सामने, न तो घरों और ना ही बाहर में। दृष्टान्त सामने हैं। समय दूर नहीं है जब बिहार में महिलाओं की यह दुर्दशा एक गहन शोध का विषय होगा।
2020 की गर्मियों में, जब कोविड-19 महामारी अपने चरम पर थी, अमेरिका के पूर्व प्रथम महिला मिशेल ओबामा ने ‘गर्ल्स अप लीडरशिप समिट’ में बोलते हुए लड़कियों और युवा महिलाओं के लिए शिक्षा का समान पहुँच का आह्वान करते अपनी आवाज बुलंद की। मिशेल ओबामा ने कहा कि “जब हम लड़कियों को सीखने का अवसर देते हैं, तो हम उन्हें अपनी क्षमता को पूर्ण करने, स्वस्थ परिवार बनाने और आने वाली पीढ़ियों के लिए अपने देश की अर्थव्यवस्था में योगदान करने का अवसर देते हैं।” जब मिशेल ओबामा बोल रही थीं, उस वक्त विश्व के सभी पुरुष उनकी आवाज सुन रहे थे।

इसी तरह, अमेरिका के प्रथम महिला के रूप में अपने कार्यकाल की शुरुआत में, हिलेरी क्लिंटन ने महिलाओं के लिए सबसे प्रसिद्ध भाषण दी । बीजिंग में महिलाओं पर संयुक्त राष्ट्र के चौथे विश्व सम्मेलन में बोलते हुए, उन्होंने अपनी भाषा को संयमित करने के दबावों को दरकिनार करते हुए महिलाओं के प्रति दुनिया भर में हो रहे अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई। हिलेरी क्लिंटन ने कहा, “अब समय आ गया है कि हर जगह महिलाओं के हित में काम किया जाए। अगर हम महिलाओं के जीवन को बेहतर बनाने के लिए साहसिक कदम उठाते हैं, तो हम बच्चों और परिवारों के जीवन को भी बेहतर बनाने के लिए साहसिक कदम उठाने होंगे। यानी, उनके अनुसार, ‘महिला अधिकार ही मानव अधिकार है।’
आज़ादी के बाद विगत 78 वर्षों में बिहार में (अपवाद छोड़कर) शायद ही कोई महिला उठ पायी जो विश्व की अन्य महिला वक्ताओं – सोजर्नर ट्रुथ, मलाला यूसुफ़ज़ी, मिशेल ओबामा, चिमामांडा नगोजी अदिची, एम्मा वाटसन, एमेलिन पैंकहर्स्ट, सुसान बी. एंथनी, एमेलिन पैंकहर्स्ट आदि – के जैसी बनकर अपने ही प्रदेश की महिलाओं का भाग्य बदलने में आगे आयी होंगी। यह अलग बात है कि बिहार की सैकड़ों नहीं, हज़ारों महिलाएं आज अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, जर्मनी, स्विटरलैंड और न जाने किन-किन देशों में रहती हैं। मधुबनी भी अछूता नहीं होगा। यह तस्वीर गवाह है कि बिहार की महिलाओं को अपनी बात खुद बोलना होगा। अन्यथा सरकारी आंकड़ों के अनुसार प्रदेश के पंचायतों में 55 फीसदी हिस्सा होने के बाद भी, पंचायत दिवस के सम्मलेन में नीचे जमीन पर ही बैठी रह जाएँगी और मंच पर आधिपत्य पुरुष नेताओं का बरकरार रहेगा।
पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मधुबनी आये थे। प्रदेश के विद्वान, विदुषियों से लेकर लेखक, लेखिकाओं तक, नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं तक, मंत्रियों से लेकर मुख्यमंत्री तक, अधिकारियों से लेकर चपरासियों तक, संचार साधनों में दिल्ली-कलकत्ता के अख़बारों के मधुबनी में पदस्थापित स्ट्रिंगरों से लेकर सम्पादकों तक – सभी अपनी-अपनी नजरों से सम्मानित प्रधानमंत्री का कार्यक्रम देखे, सुने, लिखे। लेकिन मेरा ध्यान दो चीजों पर अटक गया।
एक: हरी झंडी लिए प्रधानमंत्री जब ऑनलाइन एक रेल सेवा का उद्घाटन कर रहे थे, मंच पर सिर्फ ‘पुरुषों’ का एकाधिकार था। कम से कम रेलगाड़ी (स्त्रीलिंग) के सम्मानार्थ मंच पर एक भी महिला को स्थान दे देते। प्रदेश में शायद एक भी महिला उस योग्य उन महात्मनों की नज़रों में नहीं थी, जो मंच पर प्रधानमंत्री, प्रदेश के लाट साहेब. मुख्यमंत्री या अन्य ‘स्वयंभू बिहार के भाग्य विधाताओं के साथ खड़ी हो सकें। सुनते हैं, प्रधानमंत्री की अगुआई में बिहार ही नहीं, देश में महिला सशक्तिकरण पर ग्रन्थ लिखे जा रहे हैं।
दो: हज़ारों की संख्या में लाल, पीली, हरी, बैगनी, सफ़ेद, रंग-बिरंगी साड़ियों में महिलाओं की उपस्थिति दिखी। यह नहीं कहूंगा की बिहार के पुरुष नहीं थे, लेकिन महिलाओं की तुलना में पुरुषों की उपस्थिति खल रही थी। इतना ही नहीं, जनता जीव क्रेन प्राइवेट लिमिटेड के स्वामित्व वाले कारण पचास फुट लम्बे डंडे पर कैमरा बंधा दिखा, ताकि तस्वीरों की किल्लत नहीं हो देश दुनिया को दिखने के लिए। अवसर था पंचायती राज दिवस को मनाना जिसमें प्रधानमंत्री ने कहाँ कि पूरा देश मिथला और बिहार से जुड़ा हुआ है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का भी नाम लिए, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के पुण्यतिथि पर भी श्रद्धांजलि दिए। यह भी कहे कि प्रदेश के विकास के लिए हज़ारों-हज़ार करोड़ रुपए की परियोजनाओं का शिलान्यास और उद्घाटन भी किये। यह भी ध्यान आकर्षित किये कि भारत का तीव्र विकास तभी संभव है जब इसके गांव मजबूत हों और पंचायती राज की अवधारणा इसी भावना में निहित है। प्रधानमंत्री यह भी कहे कि ग्राम पंचायतों के सामने सबसे बड़ी समस्या भूमि विवाद से जुड़ी है। उन्होंने इस बात पर अक्सर असहमति जताई कि कौन-सी भूमि आवासीय है, कृषि योग्य है, पंचायत के स्वामित्व वाली है या सरकारी स्वामित्व वाली है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि इस समस्या के समाधान के लिए भूमि अभिलेखों का डिजिटलीकरण किया जा रहा है, जिससे अनावश्यक विवादों को प्रभावी ढंग से हल करने में मदद मिली है।
लेकिन मोदी जी वह नहीं कहे जो राष्ट्र के प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें कहना चाहिए था। बिहार के लोगों से, खासकर महिलाओं से यह नहीं पूछे की आखिर प्रदेश में शिक्षा का दर अन्य प्रदेशों की तुलना में कम क्यों है? उन्होंने यह भी नहीं कहा कि भारत सरकार प्रदेश में शिक्षा को बढ़ने के लिए अनेकानेक कार्यक्रम चला रही है। हम चाहते हैं कि प्रत्येक घर का बच्चा स्वयं चलकर विद्यालय तक पहुंचे – बिना किसी लोभ के।
मोदी जी को यह भी पूछना चाहिए की क्या आज़ादी के 78 वर्ष बाद भी सरकार, या शिक्षा क्षेत्र से जुड़े लोग आपके बच्चों को भोजन पर लुभा कर, टिफिन पर लुभाकर, साईकिल पर लुभाकर, या ने सामग्रियों का लुभावना देकर विद्यालय बुलाये, तभी बच्चे आएंगे। हम नारा देते थक गए कि पढ़ेगा इण्डिया तो बढ़ेगा इण्डिया’, लेकिन आप तो माता है, पहली शिक्षिका है घर-समाज की; फिर आप अपने कर्तव्यों का पालन क्यों नहीं करती? आपके बच्चे पढ़ेंगे तो आपका ही विकास पहले होगा, समाज और राष्ट्र का विकास बाद में।
राष्ट्र के एक अभिभावक के रूप में मिथिला की भूमि पर, जहाँ आज शायद ही लोग अपनी बेटियों का नाम ‘सीता’ रखते हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह पूछना चाहिए था कि बिहार के सभी 38 जिलों में, सभी 45103 गांव में आज भी इतनी दर्दनाक स्थिति क्यों है? आज़ादी के बाद विगत 78 वर्षों में केंद्र सरकार की ओर से गंगा की धारा जैसा पानी बिहार के विकास में खर्च किया गया है। भारत सरकार ही नहीं, प्रदेश की सरकार के वित्त विभाग के पास उपलब्ध दस्तावेजों में सभी अंकित है। लेकिन वे इस बात को प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर शहरी और ग्रामीण विकास मंत्री तक, जिलों में पदस्थापित भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों से पूछने की हिम्मत नहीं किये कि आखिर पैसे कहाँ जाते हैं ?
मुद्दत पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने कहने की हिम्मत किये थे कि ‘हम अगर एक रुपया भेजते हैं गाँव के एक व्यक्ति के विकास के लिए तो उसे दस नया पैसा ही मिल पाता है, वह भी बहुत मशक्कत के बाद। शेष नब्बे पैसे रास्ते में खा लेते हैं लोग – यह दुर्भाग्य है। हमें यकीन है कि अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात को पूछते, राष्ट्र के हेडमास्टर के रूप में, तो शायद मंच पर खड़े किसी भी व्यक्ति के मुंह से आवाज नहीं निकलती। प्रदेश के मुख्यमंत्री सहित सभी मूकबधिर हो जाते। लेकिन उन्होंने नहीं पूछा, अलबत्ता वे कहते रहे ‘हमने यह किया, हमने वह किया’, और महिला विहीन मंच के नीचे दूर तक बांस के बेड़ा के बाद बैठी महिलाएं ताली बजाती रहीं, क्योंकि कैमरा उनके ऊपर था और पंचायत के मुखिया से लेकर प्रदेश के मुख्यमंत्री की निगाहें उन पर रुकी थी।

प्रधानमंत्री अपने कार्यों की लम्बी सूची पढ़ रहे थे, वे और उनकी सरकार क्या की, क्या कर रही है, कंठस्त रूप में कहते जा रहे थे। यह भी पूरे जोर से कहे कि सरकार महिलाओं की आय बढ़ाने और रोजगार तथा स्वरोजगार के नए अवसर पैदा करने के लिए मिशन मोड में काम कर रही है। फिर बिहार में ‘जीविका दीदी’ कार्यक्रम पर चर्चा किये और कहे कि यह कार्यक्रम अनेक महिलाओं के जीवन को बदल दिया है। फिर पैसे की बात किये और कहे कि आज बिहार में महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों को लगभग 1,000 करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता प्रदान की गई है जो महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण को और मजबूत करेगा और देश भर में 3 करोड़ लखपति दीदी बनाने के लक्ष्य में योगदान देगा।
बिहार में करीब 8053 ग्राम पंचायत, 533 पंचायत समिती और 38 जिला परिषद् कार्यरत हैं। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि पंचायत राज सम्मेलन के अवसर पर जहाँ सरकारी आंकड़ों के मुताबिक बिहार की महिलाएं की स्थानीय सरकारों में भागीदारी 55.35 प्रतिशत बता रही है। वैसे पंचायत चुनाव के आंकड़े बताते हैं कि बिहार में त्रिस्तरीय ग्राम पंचायत और ग्राम कचहरी के कुल 247671 पदों में से कुल 110964 पद महिलाओं के लिए आरक्षित किये गये थे। इन कुल पदों में महिलाओं ने 138503 पदों जीत दर्ज की थी। राज्य में 8058 ग्राम पंचायतों में महिला मुखिया की भागीदारी अभी 4209 है।
इसमें अत्यंत पिछड़ा वर्ग की 692, अनुसूचित जाति की 692 और अनुसूचित जनजाति वर्ग की 52 मुखिया भी शामिल हैं। पंचायत समिति सदस्यों की कुल 11092 पदों में 5982 महिला प्रतिनिधि निर्वाचित हुई हैं। जिला परिषद सदस्य के 1159 पदों में 654 पदों पर महिलाओं ने जीत दर्ज की। राज्य की 8059 ग्राम कचहरियों में 3833 सरपंच महिला हैं और इसके अलावा ग्राम कचहरी के पंच के कुल 107431 पदों में 63974 पदों पर महिलाओं का कब्जा है। लेकिन इस मंच पर एक भी महिला नजर नहीं आयी। पुरुषों का बाहुल्य था।
प्रधानमंत्री अगर प्रदेश में कालखंड में ‘रिकॉर्ड बनाने वाले मुख्यमंत्री’ नीतीश कुमार से काश पूछते कि आखिर बिहार से श्रमिकों का, छात्र-छात्राओं का, नौकरी-पेशा ढूंढने वालों का नित्य पलायन क्यों हो रहा है? काश वे यह भी पूछते की केंद्रीय राशि मिलने के बाद भी बिहार प्रदेश के लोगों का वजन दूसरे प्रदेश की सरकार क्यों ढोयेगी? बिहार एक ऐसा राज्य है जो अपनी समृद्ध ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत के लिए जाना जाता है, लेकिन पिछले कई दशकों से एक गंभीर समस्या से जूझ रहा है और वो है- लोगों का पलायन और यह पलायन न केवल राज्य की सामाजिक और अर्थव्यवस्था ताने-बाने पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है, बल्कि बिहार के युवाओं के भविष्य पर भी एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगा रहा है। हर साल बिहार के हजारों युवा बेहतर रोजगार की तलाश में दूसरे राज्य पहुंचते है।

बिहार के विधानसभा में कुल 243 विधायक बैठे हैं। लोक सभा के प्रदेश 40 सांसदों को भेजता है। क्या कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिहार के सांसदों से, विधायकों से यह प्रश्न पूछने की हिम्मत जुटा पाए कि उनके संसदीय अथवा विधानसभा क्षेत्र के विकास के निमित्त जो राशि आवंटित की जाती है, उसका उपयोग क्यों नहीं होता? शायद नहीं। आज भारत सरकार और प्रदेश सरकार के कोषागारों के अलावे, प्रदेश के जिलाधिकारियों, उपायुक्तों के पास कितना हज़ार करोड़ रुपये पड़ा होगा, आंकना संभव नहीं है। आज से 10 वर्ष पूर्व, यानी 2013 में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री श्रीकांत कुमार जेना ने कहा था कि सांसदों द्वारा उपयोग नहीं की जाने वाली राशि आज लगभग 4300 करोड़ के आसपास है। इस मामले में न तो प्रधानमंत्री और ना ही लोकसभा या राज्य सभा के अध्यक्ष और सभापति सम्मानित सांसदों से पूछे कि जनता के कल्याणार्थ उन पैसों का सकारात्मक उपयोग क्यों नहीं होता?
भूमि, कानून-व्यवस्था और पुलिस ‘राज्य का विषय’ होने के बाद भी, एक अभिभावक के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विगत दस वर्षों में प्रदेश के मुख्यमंत्री से पूछते कि बिहार में रोजगार का सृजन क्यों नहीं होता? बिहार में उद्योगों का विकास क्यों नहीं होता? रुग्ण उद्योगों को जीवित क्यों नहीं किया जाता? जो पलायन का सबसे बड़ा कारण है। कृषि क्षेत्र उतना रोजगार उत्पन्न नहीं कर पाता, क्योंकि आधुनिक तकनीकों और पर्याप्त निवेश की कमी के कारण यह काफी हद तक सीमित है। वैसी स्थिति में युवाओं को रोजगार के लिए राज्य के बाहर देखना उनकी मजबूरी है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बिहार में खराब शिक्षा व्यवस्था और कौशल विकास के स्तर में कमी पलायन का सबसे बड़ा कारण है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए युवा पीढ़ी को अन्य राज्यों जैसे दिल्ली, महाराष्ट्र, पंजाब और कर्नाटक की ओर रुख करना पड़ता है। लेकिन प्रधानमंत्री कभी नहीं पूछे की नीतीश जी ऐसी स्थिति क्यों है आपके राज्य में ?
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, बिहार से करीब 2.9 करोड़ लोग काम की तलाश में दूसरे राज्यों में पलायन कर चुके हैं, जो बिहार की कुल आबादी यानी लगभग 20 प्रतिशत है। इसकी जानकारी केंद्र सरकार ने पिछले साल संसद में राजद के राज्यसभा सांसद संजय यादव के सवाल के जवाब में दी थी। केंद्रीय श्रम और रोजगार मंत्रालय की तरफ से दी गई जानकारी के अनुसार, 26 जुलाई 2024 तक ई-श्रम पोर्टल पर लगभग 29.83 करोड़ लोगों ने अपना रजिस्ट्रेशन करवाया है, जिसमें से बिहार से 2.9 करोड़ लोग शामिल है। लेकिन, ये सिर्फ वे लोग हैं, जिन्होंने ई-श्रम पोर्टल पर अपना नाम रजिस्टर कराया है। पलायन करने वाले करोड़ों ऐसे हैं जिन्होंने कभी ई-श्रम पोर्टल पर रजिस्टर ही नहीं किया। ऐसे में पलायन करने वालों का असली आंकड़ा काफी ज्यादा है। प्रधानमंत्री इस बात को नहीं पूछेंगे।
इसका परिणाम यह हो रहा है कि पलायन के कारण बिहार में परिवार, समाज, गाँव सभी ध्वस्त होते चाहे जा रहे हैं। आज स्थिति यह है कि प्रदेश का प्रत्येक गाँव के दस घरों में आठ घरों में पुरुष दिखाई नहीं देते। आज बहुत वुजूर्गों को छोड़कर, सभी उम्र के पुरुष रोजी-रोटी की तलाश में गाँव की सीमा पार कर रहे हैं। गाँव में महिलाओं, बच्चियों की संख्या पुरुषों के तुलना में कई गुना अधिक है। वैसी स्थिति में जब दिल्ली, कलकत्ता, चेन्नई, कानपूर, नागपुर, लखनऊ, राजस्थान, पंजाब, जम्मू-कश्मीर के नेतागण बिहार आएंगे तो उनके सम्मानार्थ ताली बजने के लिए ही सही, राजनीतिक ठेकेदार ट्रक-बस में भरकर गावों से महिलाओं को ही लाएंगे न भीड़ जुटाने के लिए, ताली बजने के लिए।

पिछले वर्ष ‘डाउन टू अर्थ’ पत्रिका में भारत में 2021 के दौरान सभी प्रवासियों में से करीब 10.7 फीसदी ने रोजगार संबंधी कारणों से पलायन किया था। इनके पलायन के लिए बेहतर रोजगार की तलाश, नौकरी में ट्रांसफर, काम से निकटता और अवसरों की कमी जैसे कारण जिम्मेदार थे। यह जानकारी अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) और इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट (आईएचडी) ने अपनी नई इंडिया एम्प्लॉयमेंट रिपोर्ट 2024 में साझा की है। रिपोर्ट के मुताबिक रोजगार के लिए पलायन करने वालों का यह अनुपात महिलाओं में बेहद कम महज 1.7 फीसदी था। वहीं देश में 49.6 फीसदी पुरुषों के पलायन के लिए रोजगार और उससे जुड़े कारण जिम्मेवार थे। आंकड़ों में यह भी सामने आया है कि रोजगार संबंधी कारणों से प्रवास करने वाले पुरुषों के मामले में दिल्ली अव्वल है, जहां 87.1 फीसदी पुरुषों ने रोजगार की वजह से प्रवास किया था। वहीं कर्नाटक में यह आंकड़ा 63.2, जबकि महाराष्ट्र में 59.9 फीसदी दर्ज किया गया।
ऐसा ही कुछ देश के अन्य राज्यों में भी देखने को मिला है, जहां तेलंगाना में 56.2 फीसदी, छत्तीसगढ में 54.9 फीसदी, असम में 54.7 फीसदी, हरियाणा में 54.7 फीसदी, गुजरात में 51.4 फीसदी, मध्य प्रदेश में 50.9 फीसदी और तेलंगाना सहित आंध्र प्रदेश में 50.2 फीसदी पुरुषों के प्रवास के पीछे की वजह रोजगार रही। वहीं दूसरी तरफ रोजगार की वजह से प्रवास करने वाले पुरुषों का आंकड़ा उत्तरप्रदेश में सबसे कम 35.9 फीसदी दर्ज किया गया। इसी तरह केरल में 37.2 फीसदी, जम्मू कश्मीर में 38.3 फीसदी, बिहार में 39 फीसदी, और पंजाब में 44.4 फीसदी पुरुषों ने रोजगार कारणों से पलायन किया था। यदि पिछले दो दशकों में 2000 से 2021 के बीच भारत में प्रवासन की दर को देखें तो उसमें 2.1 फीसदी का मामूली इजाफा हुआ है। प्रवासन की यह दर 26.8 फीसदी से बढ़कर 28.9 फीसदी पर पहुंच गई है। वहीं दूसरी तरफ बिहार में प्रवासन की दर सबसे कम 14.2 फीसदी रिकॉर्ड की गई है। इसी तरह जम्मू और कश्मीर में यह आंकड़ा 22.1, असम में 23.7, तेलंगाना में 25.2 फीसदी, दिल्ली में 27.6, झारखंड में 28.3 और उत्तरप्रदेश में 28.5 फीसदी दर्ज किया गया है।