जगदीशचन्द्र ​बसु के जन्मदिन पर: विस्फोट की गूंज जिसे दुनिया ने सुनी…….

महान वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बोस ​
महान वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बोस ​

​निशिकान्त ठाकुर के द्वारा

1895 ई0 की एक शाम। कोलकाता का टाउन हॉल। सीढ़ियों पर लगातार बढ़ती जूतों की आवाज। देखते ही देखते पूरा हॉल ब्रिटिश सरकार के आला अफसरों, शहर के गणमान्य लोगों तथा प्रेसीडेंसी कॉलेज के विज्ञान के छात्रों से खचाखच भर गया। पूरे शहर में चर्चा जोरों पर थी। क्या होना है इसकी किसी को खबर नहीं थी पर होगा कुछ विशेष ही यह विश्वास सबको था।

वस्तुतः इंस्टिट्यूट ऑफ़ इलेक्ट्रिकल एंड इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर ने जिसे “रेडियो विज्ञान का जनक” माना है वह “जगदीश चंद्र बसु” भारत जैसे देश में जहां अब तक आधुनिक विज्ञान के पग डगमगा रहे थे एक “प्रायोगिक प्रदर्शन” करने वाले थे। भारत में अपनी तरह का पहला प्रदर्शन। जिसमें कुल जमा थोड़े से उपकरण थे। एक ट्रांसमीटर जिसमें एक अत्यंत छोटा स्पार्क कैप लगा था, एक रिसीवर (लॉज की भाषा में कोहिरर), एक ग्लैवैनोमीटर, एक विद्युत घंटी, एक रिवाल्वर तथा एक बारूद की पोटरी।

विज्ञान कथा के लेखक जगदीश चंद्र बसु एक कुशल प्रदर्शनकर्ता की भांति लोगों को विस्मित करने का पूरा इंतजाम कर रखा था। यद्यपि उनके ट्रांसमीटर एवं रिसीवर हर्ट्ज के मुकाबले अत्यंत छोटे थे परंतु उनसे कई गुना ज्यादा सटीक। ग्लैवैनोमीटर से विद्युत घंटी तक एक परिपथ, विद्युत घंटी के हथौड़े से धागा बांधकर उसे रिवाल्वर के ट्रिगर के साथ जोड़ा गया था और रिवाल्वर के निशाने पर था बारूद की पोटरी।

ट्रांसमीटर को तीन दीवारों के पीछे रिसीवर से तिहत्तर फुट दूरी पर रखा गया। बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर “विलियम मैकेंजी” को बसु ने ट्रांसमीटर ऑन करने के करने के लिए आमंत्रित किया। मैकेंजी भी कम न थे। ट्रांसमीटर के सामने ऐसे खड़े हुए कि तीन दीवारों के अतिरिक्त एक मानवीय दीवार भी बन गई। उन्होंने पूरे हॉल पर एक नजर डाली। खुसुर-फुसुर हो रही थी। हंसते हुए धड़कते दिल से उन्होंने ट्रांसमीटर ऑन कर दिया।

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विद्युत ने हवा के प्रतिरोध को पार किया और हल्का स्पार्क पैदा हुआ। हर्ट्ज के छियासठ सेंटीमीटर वाले तरंगदैर्ध्य के मुकाबले अत्यंत छोटे पाँच मिलीमीटर तरंगदैर्ध्य वाला अदृश्य लघु रेडियो तरंग सरल रेखा के अनुदिश मैकेंजी को पार करते हुए तीनों दीवारों को भेदते रिसीवर की ओर दौड़ चली। बसु जान चुके थे कि तरंगों के गुण धर्म के सटीक अध्ययन हेतु छोटा तरंगदैर्ध्य पर काम करना ज्यादा उचित है। दरअसल वो रेडियो तरंगों के भेदन के उस धर्म को समझ चुके थे। तभी तो एक बंगाली निबंध “अदृश्य आलोक” में उन्होंने कहा था कि “अदृश्य रेडियो प्रकाश आसानी से ईंट की दीवारों, भवनों के भीतर जा सकती है। तार के बिना प्रकाश के माध्यम से संदेश संचालित हो सकते हैं। ”

बहरहाल, रिसीवर ने तरंगों को पकड़ा। गैल्वेनोमीटर की सुई में हलचल हुई। सुई से संबद्ध सर्किट पूरा होते ही विद्युत घंटी बज उठी। विद्युत घंटी का बजना था कि उससे जुड़ा धागा रिवाल्वर के ट्रिगर को खींच डाला। गोली चल गई। सीधी बारूद की पोटरी को निशाना बनाया। धमाका हुआ। जिसकी गूंज सारी दुनिया ने सुनी। थोड़ी देर तक हॉल में सन्नाटा छाया रहा। लेकिन जब लोगों को होश आया तो देर तक तालियों की आवाज गूंजती रही।

इस प्रयोग के दो निहितार्थ थे छोटी तरंगदैर्ध्य वाली तरंगे उत्पन्न करने का तरीका दुनिया को दिखाना और उसके माध्यम से संदेश भेजना तथा लॉज के कोहिरर को समुन्नत रूप देना। जो उन्होंने बाद के दिनों में रिसीवर में सेमीकंडक्टर का प्रयोग करके किया। दूसरा “पेटेंट” से ऊपर उठकर आम जनमानस में वैज्ञानिक चेतना का निर्माण जो विज्ञान के मुश्किल गणितीय सिद्धांतों से संभव नहीं था वरण प्रायोगिक प्रदर्शन से ही उन्हें तुरंत अवगत करा कर इसका पथ प्रशस्त किया जा सकता था।

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इनके बहुआयामी काम को देखकर ही आइन्स्टीन के कहा था -“जगदीश चन्द्र बसु ने जो अमूल्य तथ्य संसार को भेंट किए है, उनमें से कोई एक भी उनकी विजय पताका फहराने को पर्याप्त हैं।”

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