शिक्षा प्रसार में बिहार के लोग ‘शेर-ए-बिहार’ को और जमींदारों-राजाओं को नकेल कसने में ‘लौह पुरुष’ को अगर भूल गए … तो समझिये इतिश्री देवाखंडे 

'चाय पर चर्चा' तो श्री कृष्ण बल्लभ सहाय प्रारम्भ किये थे अपने छोटे भाई श्री दामोदर प्रसाद सहाय के साथ बिहार में, शेष सभी "अनुयायी" हैं

पटना / नई दिल्ली : आप माने अथवा नहीं। बिहार में जब भी ‘यादव’ उपनाम पर चर्चा होगी, दो यादवों का नाम अवश्य आएगा और उनका भी नाम आएगा जो पिछड़ी जातियों के नाम पर ‘लच्छेदार राजनीतिक पराठे सकते’ आये हैं। अब इसे उनका ‘सौभाग्य’ कहिये या मतदाताओं का ‘दुर्भाग्य’ – बिहार के लोग प्रारम्भ से ‘लपेटे’ में आते रहे हैं। आज़ाद भारत में सन 1947 के बाद अगर बिहार की गलियों में चौथी पीढ़ी के मतदाता हो गए हैं, तो प्रदेश के विधानसभा और विधान परिषद् में भी ‘उस ज़माने के लोग’ कहाँ बचे हैं। आज नीतीश कुमार, लालू यादव, सुशील मोदी, रवि शंकर प्रसाद, राधा मोहन सिंह, शत्रुघ्न सिन्हा, उपेंद्र कुशवाहा, मीरा कुमार, नन्द किशोर यादव, चिराग पासवान जैसे ‘जनता से कटे – कुर्सी से जुड़े’ नेताओं को तो सभी जानते हैं; कोई ‘अनुयायी’ हैं तो कोई ‘पिछलग्गू’ – लेकिन आज बिहार के चौथी पीढ़ी के मतदाता शायद ‘शेर-ए-बिहार’ और बिहार के ‘लौह पुरुष’ को जानता होगा। 

#आर्यावर्त #इण्डियन नेशन अखबार उन दोनों ‘महामानवों’ को देखा है और आज के परिपेक्ष में ही नहीं, आने वाले समय में भी, जब भी लिखने की बात होगी ‘शेर-ए-बिहार’ और बिहार का ‘लौह पुरुष’ को एक दूसरे से अलग रखकर शब्दबद्ध नहीं किया जा सकता है। अन्य राजनीतिक गतिविधियों पर चर्चाएं होंगी, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि उस ज़माने में ‘शेर-ए-बिहार’ शिक्षा के प्रचार-प्रसार के प्रति बहुत अधिक प्रतिबध्द थे। सामाजिक क्षेत्र के मीडिया के अभ्युदय और शब्दकोषों में बदलते शाब्दिक अर्थों के मद्दे नजर अगर आज की मीडिया ‘शेर-ए-बिहार’ को शिक्षा जगत से जोड़कर देखेगी तो तत्काल उन्हें ‘शिक्षा माफिया’ शब्द से अलंकृत करने में तनिक भी बिलम्ब नहीं करेगी। 

लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकत है कि अविभाजित बिहार में ‘आरएलएसवाई’ नामक शैक्षिक संस्थाओं का प्रदेश में ‘शैक्षिक-दर’ बढ़ाने में योगदान अवश्य है, चाहे ‘पांच फ़ीसदी’ ही क्यों न हो। अगर पांच फीसदी को ही आधार माने तो वर्तमान मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार के साथ-साथ प्रदेश के आला अधिकारी अगर प्रदेश का शैक्षिक दर 69.83 का आंकड़ा मानते हैं तो स्वाभाविक है कि ‘आरएलएसवाई’ का पांच फ़ीसदी योगदान है। इससे भी बड़ी बात यह है कि कुछ देर के लिए अगर ‘ शेर-ए-बिहार’ को उस ज़माने के ‘शिक्षा माफिया’ मान भी लें, तो बिहार के मतदाता से लेकर जो मतदान के दिन घर से नहीं निकलते हैं, इस बात को स्वीकार अवश्य करेंगे की ‘शेर-ए-बिहार’ के बेटे के पास ‘स्नातक’ का प्रमाण पत्र अवश्य है। जबकि सन नब्बे से 2005 तक प्रदेश का बागडोर सँभालने वाले ‘यादवों की अगली पीढ़ी के नेता’ के बेटों ने दसवीं-बारहवीं का प्रमाण पत्र भी नहीं प्राप्त कर सके। यानी  मानसिकता में ‘अंतर’ तो है, जहाँ तक शिक्षा का सवाल है। खैर। 


श्री कृष्ण बल्लभ सहाय और उनका परिवार। साल 1963

बहरहाल, आप माने या नहीं, जब ‘शेर-ए-बिहार’ वृद्ध हो गए, तब बिहार की राजनीतिक मानचित्र पर लालू यादव अवतरित हुए थे – ‘स्वयंभू यादव नेता’ बनकर। वैसे लालू यादव स्वयं को यादवों का, दलितों का, प्रदेश के गरीब-गुरबों का ‘स्वयंभू’ नेता कह लें, हकीकत तो यह है कि असली नेता तो रामलखन सिंह यादव थे जो सं 1952 से 1991 तक बिहार विधान सभा में मुस्तैद रहे। जिसका हुए, उसका कभी हाथ नहीं छोड़े और जिसका नहीं हुए, उसका कभी ऊँगली भी नहीं पकड़े। सं 1991 में बिहार विधान सभा से निकलकर दिल्ली लोक सभा में विराजमान हुए। रसायन और उर्वरक के कैबिनेट मंत्री बने, बिहार की राजनीतिक इतिहास में, खासकर शिक्षा के विस्तार और विकास के अध्याय में जो पन्ने लिखे, जोड़े; आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी उस पन्ने से अधिक पन्ना कोई नहीं लिख सका। 

‘दहशत’ था ‘शेर-ए-बिहार’ का ‘सम्मान’ के साथ। ‘लोग’ दूर से डरते अवश्य थे, लेकिन पास आते ही पिघल जाते थे। लोग घबराते जरूर थे, लेकिन ‘थरथराते’ नहीं थे। आज के नेता इस सम्मान के बारे में सोच नहीं सकते, चाहे ‘ब्राह्मण’ हों, ‘क्षत्रिय’ हो, ‘वैश्य’ हो, ‘शूद्र’ हो, ‘यादव’ हों, ‘कुर्मी’ हो, ‘कायस्थ’ हो, ‘पासवान’ हो, ‘कुशवाहा’ हो; क्योंकि ‘सम्मान’ ‘अर्जित’ किया जाता है बहुत मसक्कत से, और वर्तमान राजनीतिक गलियारे में, चाहे पटना का सरपेंटाइन रोड हो या दिल्ली का संसद मार्ग औसतन 90 फीसदी से अधिक नेतागण उस सम्मान से कोसों दूर हैं । वह तो ‘शेर-ए-बिहार’  ही थे कि तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री पी वी नरसिम्हा राव की सरकार ‘नो कॉन्फिडेंस मोशन’ में बची थी। खैर। 

आज ‘शेर-ए-बिहार’ का जिक्र इसलिए कर रहा हूँ कि आज से कोई नौ दिन बाद बिहार के लोग अपने प्रदेश के ‘लौह पुरुष’ को श्रद्धांजलि देंगे। सन 1974 के 3 जून को बिहार के लौह पुरुष बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय यानी के.बी. सहाय ‘आकस्मिक मृत्यु’ को प्राप्त किये। लगभग इन पांच दशकों में यह सार्वजानिक नहीं हो पाया की बाबू के बी सहाय को किसने मारा, क्यों मारा जब वे अपने हिंदुस्तान एम्बेसेडर (BRM 101) की अगली सीट पर बैठे थे और एक ट्रक उनके हँसते-मुस्कुराते शरीर को “पार्थिव” बना दिया। पटना-हज़ारीबाग की वह सड़क आज तक उस घटना को नहीं भूल पायी है। 

श्री कृष्ण बल्लभ सहाय तत्कालीन बिहार के हज़ारीबाग में। साल: 1963

पालीगंज, अनिशाबाद, औरंगाबाद, बख्तियारपुर, रांची, नालंदा, कोडरमा, बेतिया, गया, नवादा और न जाने कितने शहर हैं बिहार के, जो उन दिनों भले ‘स्मार्ट शहरों’ की गिनती में नहीं थे, लेकिन उन शहरों में स्थित रामलखन सिंह यादव के नाम की शैक्षणिक संस्थाओं से शिक्षा प्राप्त कर छात्र-छात्राएं अपने परिवार, समाज और प्रदेश का नाम रोशन किये थे। कल की ही तो बात हैं बिहार के बाइसवें मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार पटना विश्वविद्यालय के मगध महिला कॉलेज में भले यह स्वीकार कर लिए हों कि “जब वे इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ते थे, महिलाएं नहीं होती थी, जब कोई महिला कालेज परिसर में आती थी सभी उसे देखने लगते थे।” परन्तु, हकीकत यह है कि रामलखन सिंह यादव अपनी शैक्षणिक संस्थाओं में महिलाओं को विशेष स्थान दिए थे। वे महिला शिक्षा के पक्षधर ही नहीं, अग्रणी भी थे। यह बात अलग है कि नीतीश कुमार अपनी बात 2022 में कह रहे हैं, जबकि सत्तर के दशक और उसके पूर्व से ही रामलखन सिंह यादव के महाविद्यालयों में महिलाएं शिक्षा प्राप्त करती थी। 

बहरहाल, बिहार में तीसरी विधान सभा काल में दो व्यक्ति मुख़्यमंत्री कार्यालय में बैठे। सन 1962 के चुनाव के बाद श्री बिनोदानंद झा के नेतृत्व में सरकार बनी। बिनोद बाबू ‘राजमहल’ विधान सभा क्षेत्र से चुनाव जीत कर आये थे। लेकिन पांच साल नहीं चले  और उन्हें महात्मा गांधी के जन्मदिन के अवसर पर सं 1963 में मुख्यमंत्री की कुर्सी के बी सहाय के हाथ सौंपना पड़ा। सहाय बाबू 2 अक्टूबर, 1963 से 5 मार्च, 1967 तक मुख्यमंत्री कार्यालय में विराजमान रहे। तीसरी विधान सभा के बाद से लगातार बिहार में ‘आया राम – गया राम’ सिद्धांत पर सरकार बन रही थी, चल रही थी, जा रही थी। चौथे विधान सभा, जिसका चुनाव 1967 में हुआ था, चार मुख्यमंत्री महोदय, मसलन जनक्रांति दल के महामाया प्रसाद सिन्हा, शोषित दल के सतीश प्रसाद सिंह, बी पी मंडल और कांग्रेस के भोला पासवान शास्त्री का मुख्यमंत्री कार्यालय में ‘उदय’ और ‘अस्त’ हुआ। इसी तरह पांचवी विधान सभा (1969) में हरिहर प्रसाद, भोला पासवान शास्त्री, दारोगा प्रसाद राय, कर्पूरी ठाकुर का उदय-अस्त हुआ। लेकिन आज अगर पिछले 22 मुख्यमंत्रियों को एक नजर में देखें, तो बाबू श्रीकृष्ण सिन्हा को छोड़कर, कुछ ही मुख्यमंत्री हैं जिन्हें आज भी बिहार के लोग, बिहार के मतदाता, प्रदेश के विद्वान-विदुषी से लेकर अशिक्षित और अज्ञानी तक – नहीं भुला है और शायद भूल भी नहीं पायेगा। उन्हीं ‘ना भूलने वाले मुख्यमंत्रियों” की सूची में एक हैं बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय। 

31 दिसंबर, 1998 को, यानि अपनी मृत्यु से कोई आठ साल पहले ‘शेर-ए-बिहार’ राम लखन सिंह यादव ने ‘बिहार के लौह पुरुष’  के बी सहाय के बारे में, उनके साथ अपनी सानिग्धता के बारे में, अपने प्रेम-सम्मान और विश्वास के बारे में, जनता के प्रति उनकी सोच के बारे में कुछ शब्द लिखे थे। यह लेख पटना से प्रकाशित ‘आज’ समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ था। इस लेख को सहाय साहब के पौत्र राजेश सहाय अपने ब्लॉग पर बहुत सम्मान के साथ सुरक्षित रखे हैं। विगत दिनों जब ‘सोडा फ़ाउंटेंन’ की कहानी ‘खादी ग्रामोद्योग’ आगजनी की कहानी, पुलिस गोली काण्ड की कहानी लिखा, तो ऐसा लगा कि आज की पीढ़ी को बाबू राम लखन सिंह यादव का बाबू कृष्ण बल्लभ सहाय के प्रति कितना सम्मान था, उन दिनों की राजनीतिक हालात कैसी थी, क्यों वह सब हुआ – इस बात को अगर आज की पीढ़ी के लोग देखेंगे, पढ़ेंगे तो जानकारी स्वरुप ही सही, बेहतर अवश्य होगा। ‘शेर-ए-बिहार’ राम लखन सिंह यादव के शब्दों को हम राजेश सहाय को धन्यवाद अर्पित करते हूबहू यहाँ रख रहे हैं। 

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“स्वर्गीय कृष्ण बल्लभ सहाय जो आम तौर पर के.बी.सहाय के नाम से जाने जाते थे, जन्मकाल से ही एक विलक्षण प्रतिभा संपन्न, स्मरण शक्ति में बेजोड़, अंग्रेजी (साहित्य) भाषा के अच्छे ज्ञाता, छात्र जीवन में अपने समय में मेट्रिक परीक्षा में प्रदेश में सर्वोत्तम, अंग्रेजी आनर्स में विश्वविद्यालय भर में सर्वोत्तम और गेट गोल्ड मेडलिस्ट विचार एवं व्यवहार तथा आचार में पक्के समाजवादी, गरीबों विशेष कर पिछड़े वर्गों हरिजन, आदिवासियों तथा अल्प संख्यकों के पक्के हिमायती, किसानों के प्रणेता, ज़मींदारी प्रथा उन्मूलन के भारत भर में सर्वप्रथम जनक तथा बिहार के लौह पुरुष के रूप में बराबर याद किये जायेंगें। 

कृष्ण बल्लभ बाबू का जन्म इकतीस दिसम्बर 1898 को पटना ज़िले में फतुआ थाना अन्तर्गत शेखपुरा ग्राम में एक साधारण कायस्थ परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री गंगा प्रसाद पुलिस विभाग में दरोगा के पद पर पदस्थापित थे। इनकी माँ एक अनुशासन प्रिय एवं दृढ इच्छा शक्ति की धनी महिला थी। जो बात उनके मन में बैठ जाती उस पर वे दृढ रहती थी। ऐसी ही एक घटना कृष्ण बल्लभ बाबू के जन्म के बाद सात वर्ष बीतते-बीतते घटी। कृष्ण बल्लभ बाबू तीन भाई थे। एक की मृत्यु तो हमलोगों से संपर्क से पहले हो चुकी थी, जिनके पुत्र आज भी तारा बाबू के रूप में जीवित हैं। दूसरे भाई डॉक्टर दामोदर प्रसाद एक कुशल डॉक्टर के रूप में लोगों की सेवा में आजीवन लगे रहे। दरियापुर पटना स्थित इनके मकान में कृष्ण बल्लभ बाबू के साथ अन्य राजनीतिज्ञों का जमावड़ा रहता था, जिसमें श्री के. पी. सहाय श्री गंगा शरण सिंह एवं श्री उमाकांत की चर्चित त्रिगुट मंडली प्रतिदिन यहाँ बैठा करती थी।  

सन 1906 में कृष्ण बल्लभ बाबू के बहन की शादी तय हुई। इनके दादा ने शादी तय की थी। लेकिन पता नहीं कैसे इनकी माँ को सूचना हो गयी कि होने वाले वर के पेट में पिलही रोग है। उन्होने इनके पिता दरोगाजी को मजबूर किया कि वे स्वयं जा कर लड़के को देखें कि हकीकत क्या है। वे जाने को तैयार भी हुए लेकिन गांवों और विशेषकर गांवों की महिलाओं की चर्चा के दवाब में आकर जाने के समय अपनी यात्रा स्थगित कर दी क्योंकि पिता के प्रति यह अविश्वास होता। बदकिस्मती से ठीक शादी होने के बाद मंडप में इनकी माँ ने परिक्षण के समय देख लिया कि लड़के के पेट में पथरी है और वह वहीं पर मूर्छित हो कर गिर गया। बरात विदाई के ठीक चौथाडी के दिन उस लड़के का देहांत हो गया। इसके बाद इनकी माँ ने तय किया कि अब वह किसी भी हालात में शेखपुरा में नहीं रहेंगीं और बाध्य होकर उनके दादा को भी उनकी ज़िद के सामने झुकना पड़ा। 

कृष्ण बल्लभ बाबू सात वर्ष की उम्र में ही अपने भाई बहन के साथ माँ के आदेशानुसार माँ के साथ पुनपुन स्टेशन आकर ट्रैन से हजारीबाग के लिए रवाना हो गए जहाँ वे अपने परिवार समेत आजीवन रहे। 

प्राइमरी शिक्षा उन्होनें हजारीबाग धर्मशाला प्राइमरी विद्यालय से तथा मेट्रिक तक की शिक्षा ज़िला स्कूल हजारीबाग से प्राप्त की। मेट्रिक की परीक्षा में उन्होनें बिहार भर में प्रथम स्थान प्राप्त किया। 1916 में मेट्रिक परीक्षा पास करने के बाद 1919 में संत कोलंबस कॉलेज से अंग्रेजी स्नातक परीक्षा में गोल्ड मैडल के साथ पास किया। तत्कालीन गवर्नर श्रीमान  गेट  के  हाथों  उन्हें  यह गोल्ड  मैडल  मिला। इसके बाद उन्होनें एम.ए. (अंग्रेजी) में तथा लॉ प्रथम वर्ष में एडमिशन लिया। एक वर्ष तक दोनों विषयों को पढने के बाद 1921 में महात्मा गाँधी के आह्वान पर अपने उज्जवल भविष्य को तिलांजलि देकर अपना जीवन पूर्ण रूप से राष्ट्र को समर्पित करते हुए 1921, 1928, 1929, 1932, 1934, 1940, 1942 में तमाम आज़ादी की लड़ाईयों में साक्रिय रूप से हिस्सा लेने कारण उन्हें वर्षों जेल में जीवन बिताना पड़ा। 

जैसा कि मैंने प्रारम्भ में ही इनके कई गुणों के बारे में लिखा है, कुछ व्यक्तिगत जीवन की घटनाओं से पता चल जाएगा कि वे गुण इनमें किस प्रकार कूट कूट कर भरे थे। कृष्ण बल्लभ बाबू की पत्नी की मृत्यु के बाद तीन शादियां हुई थी। पहली शादी उनके छात्र जीवन में ही नवादा ज़िले के दरियापुर ग्राम में तत्कालीन पुलिस दरोगा श्री विशेश्वर नाथ की पुत्री से हुई। ससुराल में प्रथम बार एक शादी में सम्मलित होने गए। तेज़ छात्र होने के नाते उन्हें देखने के लिए उनके संबंधी और ग्राम के लोग भीड़ लगाए थे। बरात आने के दिन करीब दस हलवाई और अन्य नौकर बहुत सुबह से ही मिठाई और पूरी लोगों के खाने के लिए तैयार करते रहे। दोपहर में उन्हें खाने के लिए सूखा चूड़ा एवं गुड़ दिया गया तभी उनके ससुर दरोगाजी आकर उन नौकरों को पीटने लगे कि काम छोड़ कर नाश्ता क्यों कर रहा है? इस घटना ने कृष्ण बल्लभ बाबू के दिमाग पर गहरा असर किया और उन्होंने तय किया कि इन गरीबों के मार खाने के बाद इनके द्वारा तैयार किया गया भोजन करना भारी गुनाह है। उन्होंने बहाना किया कि उनके पेट में दर्द हो गया है और उन्हें शीघ्र पटना पहुंचा दिया जाए। उनकी सास ने अपने पति की बातों की अवहेलना करते हुए कृष्ण बल्लभ बाबू की इच्छानुसार बिना समय गंवाए उन्हें शीघ्र पटना भेज दिया। यह घटना साबित करती है कि गरीबों के प्रति उनके दिल में कितना दर्द था। 

दूसरी घटना हजारीबाग ज़िले के गिद्धौर थाने में घटी जहां उनके पिता पदस्थापित थे। गर्मियों की छुट्टी में पिताजी के आदेशानुसार वे वहीं थाना में छुट्टी बिताने गए। संयोगवश कुछ दिनों के लिए उनके पिता एक पठान जमादार को उनके गार्डियन के रूप में सौंप कर कहीं बाहर गए। कृष्ण बल्लभ बाबू खाते, गाय का दूध पीते और बचा हुआ दूध नौकर को पिला देते थे। एक दिन सुबह जमादार उनके पास आये और जब उन्हें मालूम हुआ कि गाय का दूध नौकर पिता है तब उसने उस नौकर को लाठी से इतना मारा कि वह बेहोश हो गया। उसने उन्हें भी डांटा तुम नौकर को आगे दूध पिलाओगे तो तुम्हारी गति भी यही होगी। वह नौकर खैनी खाता था इसलिए चुक्का में चूना रखता था। कृष्ण बल्लभ बाबू ने अपने हाथ से हल्दी पीस कर चूना के साथ गर्म कर के उसके बदन में पूरा लेप दिया। रात्रि में जब उसकी तबियत ठीक हुई तब उससे उन्होंने कहा कि पिताजी के आने पर कह देना कि आवश्यक कार्यवश मैं आज ही पटना जा रहा हूँ। इस घटना के बाद कृष्ण बल्लभ बाबू पिता के लाख कहने के बाद भी किसी थाने में नहीं गए। इससे गरीबों के प्रति उनके मन में अपार श्रद्धा एवं भाव प्रकट होता है। 

श्री कृष्ण बल्लभ सहाय और अन्य गणमान्य लोग – साल: 1963

कृष्ण बल्लभ बाबू ने समाजवाद को अपने व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में मूर्त रूप दिया। रहन-सहन, खान-पान, पारिवारिक जीवन, लोगों के प्रति उनका व्यवहार, उनके द्वारा किये गए काम, जिस पर भी आप नज़र डालें उसकी झलक साफ़ दृष्टिगोचर होती है। वे भीतर और बाहर पारदर्शी थे वे स्पष्टवादी, ईमानदार एवं निसंकोच, सच्चाई के साथ अपने बातों को स्पष्ट रूप से रखने के आदि थे। उनकी स्मरण शक्ति अद्वितीय थी। सात वर्ष की उम्र से जबसे वे अपने गांव शेखपुरा छोड़ कर हजारीबाग गए आजीवन छोटी या बड़ी घटनाएं समय और तिथि समेत अच्छी तरह याद रहती थी। आवश्यकतानुसार बिना किसी कागज़ को देखे सारी घटनाएं वे बतला देते थे। जब बिहार की राजनीति में तात्कालिक मुख्यमंत्री से कुछ विभेद पैदा हुआ और उनके ऊपर कई तरह के गंभीर आरोप और आक्षेप समाचार पत्रों में प्रकाशित करवाया गया था तब उन्होंने सब का जवाब एक लंबे वक्तव्य में दिया। 

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उन दिनों वे हजारीबाग में थे। 1957 में चुनाव हारने के बाद उन्होनें आवास एवं गाडी से झंडा उतरवाया। सभी कर्मचारियों को एक साथ खड़ा कर उन्हें धन्यवाद् दिया। सबको एक एक सर्टिफिकेट दिया और वहीं से गाडी में बैठ कर रवाना होने से पूर्व सभी कर्मचारियों को सरकार में जहां भी रहे अनुशासन, ईमानदारी एवं निष्ठा से कार्य करने की सलाह दी। सरकारी आवास में पुनः उन्होंने पैर नहीं रखा। मुझसे इतना ही पुछा कि मैं हजारीबाग में उन्हें खबर कर दूं कि एक दिन के बाद वे कहाँ आवेंगें। मैंने उनके साथ रहने का प्रबंध पहले ही कर लिया था इसलिए कहा कि निसंकोच सीधे मेरे घर पहले आ जाएँ। वे ठीक तीसरे दिन आये और मेरे ही निवास के निकट नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आई. एन. ए. की सरकार के मंत्री स्वर्गीय परमानन्द जी का बड़ा मकान जो गुलाब गार्डन के नाम से मशहूर था उसी में उनका निवास रखा गया। लेकिन कुछ ही दिनों के बाद उन्होनें बड़े मकान को छोड़ कर उसी प्रांगण में उनके नौकरों के रहने का तीन रूम का मकान था उसमे बिना किसी से राय लिए रहने लगे। 

उन दिनों समाचार पत्रों में छपी अनर्गल बातों का जवाब देना हुआ तब उन्होनें हजारीबाग से संध्या समय फ़ोन किया कि दो अंग्रेजी स्टेनोग्राफर को सुबह से ही तैयार रखें। आदेशानुसार सब कुछ तैयार रखा गया और वे हजारीबाग से चल कर सीधे सात बजे सुबह गुलाब गार्डन पहुँच गए। गार्डन में ही एक पेड़ के नीचे बैठ कर बिना हाथ में कागज़ या चिट लिए दोनों स्टेनोग्राफरों को एक एक कर डिक्टेशन अंग्रेजी में देते रहे और पूरा टाइप होने पर यथोचित संशोधन किया। वक्तव्य लंबा था। उसकी कई प्रतियां तैयार की गयी और यह कह कर कि मैं इसे प्रेस में प्रकाशनार्थ भेज दूंगा, वे उसी संध्या को हजारीबाग के लिए रवाना हो गए। मैं चाहता था कि वह अभी प्रकाशित न हो क्योंकि इससे बहुत झगडे पैदा होंगें। लेकिन हजारीबाग पहुंचने के बाद भी उन्होनें कहा कि इसे प्रकाशित करा ही देना चाहिए। तब मैंने उसे प्रकाशनार्थ भेज दिया। उसके सम्बन्ध में बहुत प्रचार किया गया कि यह वक्तव्य कदम कुआँ के ब्रेन ट्रस्ट लोगों ने सप्ताहों बैठ कर सब कागज़ात निकाल कर ड्राफ्ट किया है। मैं और श्री एल. एन. झा को ही यह पता था यह कैसे और कहाँ ड्राफ्ट हुआ था। कृष्ण बल्लभ बाबू की स्मरण शक्ति क्या थी यह तो इसका सिर्फ एक छोटा सा उदाहरण था। 

बिहार में सर्वप्रथम ज़मींदारी उन्मूलन का कानून बनाया गया वे इसके जनक थे। उसके चलते बिहार के ज़मींदारों से, बड़े-बड़े लोगों से और ख़ास कर रामगढ के राजा कामाख्या नारायण सिंह ने जन्म भर उनकी राजनैतिक शत्रुता और मुकदमे लगे रहे, चूँकि कृष्ण बल्लभ बाबू ही राजस्व और जंगल विभाग के मंत्री बराबर रहे। मुझे याद है लैंड सीलिंग बिल को पेश करते हुए उन्होने कहा था कि ज़मींदारों और बड़े-बड़े भूपतियों का जो रवैया है पता नहीं यह कानून कब लागू होगा। लेकिन मैं तो कम से कम रास्ता प्रशस्त कर रहा हूँ कि आगे शीघ्रताशीघ्र ही इसे लागू करने के लिए कानून बनाने में समय खर्च न हो। इस कानून का भी बड़ा विरोध हुआ और मुकदमे में कई दिनों तक लटका रहा। विनोबा भावे के भूदान आंदोलन को बढ़ने सहयोग करने ज़मीन माँगने में भी कृष्ण बल्लभ बाबू आगे रहे। सबसे बड़ी बात यह हुई कि 1954 में देश में सबसे पहले कृष्ण बल्लभ बाबू के द्वारा ही बिहार भूदान एक्ट बनाया गया। कहा जा सकता है कि ज़मीन संबंधी सारे प्रगतिशील कदम बिहार में उन्हीं के द्वारा उठाये गए।  

1967 का चुनाव सारे उत्तर भारत विशेष कर बिहार के लिए बहुत ही मील का पत्थर साबित हुआ। इस साल आम चुनाव के पूर्व से ही आम मतभेद, अराजपत्रित कर्मचारियों एवं छात्रों के बीच विरोधी दलों द्वारा उन्हें तरह-तरह की मांगों को सरकार द्वारा स्वीकृत करवाने के मुद्दों पर आक्रामक और हिंसक रास्ते पर ले जाकर भयंकर आंदोलन करवाने के चलते कांग्रेस की बड़ी क्षति हुई। कृष्ण बल्लभ बाबू पटना शहर से ही उम्मीदवार बने और उनका विरोध महामाया प्रसाद सिन्हा ने किया। पटना में हिंसक आंदोलन पर बहुत लाचार होकर पुलिस और मजिस्ट्रेट को आगज़नी से शहर को बचाने तथा आत्मरक्षार्थ गोली चलानी पड़ी। खादी भवन जैसी संस्था में भी लोगों ने आग लगायी। 

मैं स्वयं भी दक्षिण पटना से उम्मीदवार था। उक्त घटनाओं के चलते हमलोगों के चुनाव पर बुरा असर पड़ा। कृष्ण बल्लभ बाबू को हम लोगों ने बहुत समझाया बुझाया लेकिन वे अपने हर चुनाव भाषण में पटना में मतदाताओं को कहते रहे कि मेरे रहते जिस तरह की हिंसक घटनाएं घाटी हैं उसे बर्दाश्त नहीं कर सकता हूँ और किसी प्रकार की जांच करवाने को तैयार नहीं हूँ। हाँ आप चाहें तो मुझे वोट न दें और जिसे चाहे गद्दी पर बिठा दें। 

सम्पादकों के साथ बैठक। चित्र में आर्यावर्त अखबार के तत्कालीन संपादक श्रीकांत ठाकुर ‘विद्यालंकार’ भी है

उन दिनों राष्ट्रिय कांग्रेस के अध्यक्ष कामराज नादर थे उन्होनें पटना आगमन पर उन्हें समझाया कि यहां जो गोलीकांड हुआ है उसी कि न्यायिक जांच करवा दी जाए। श्री नादर ने जब यह प्रस्ताव कृष्ण बल्लभ बाबू के समक्ष रखा तब बिना किसी प्रकार की बात किये उन्होंने अपना त्याग पत्र बिहार कांग्रेस पार्टी नेतृत्व एवं मुख्यमंत्री पद से उनके हाथ में दे दिया क्योंकि जांच का आदेश देकर वे प्रशासन को नाजायज़ ढंग से हतोत्साहित नहीं करना चाहते थे। हारने के बावजूद उनके ऊपर जरा सी भी उदासी नहीं आई। इससे स्पष्ट है कि वे कितने सख्त प्रशासक थे और प्रजातंत्र में उनका कितना विश्वास था। जिस कारगर ढंग से मजबूती से स्वयं जाकर जमशेदपुर, रांची आदि जगहों पर उन्होंने मुसलमानों पर हुए दंगों को दबाया वह अद्वितीय था। 

इसी प्रकार की एक और घटना घटी। भारत के गृह मंत्री और उप-प्रधानमंत्री सरदार पटेल ने बेतिया राज के साठी की जमीन को लेकर श्री कृष्ण सिंह को देहरादून में सफाई देने के लिए बुला भेजा। श्री बाबू बहुत ही मर्माहत हुए। कृष्ण बल्लभ बाबू ने उन्हें जाने से रोक स्वयं सरदार पटेल से मिले सुश्री मणि देवी पटेल और सरदार पटेल के सचिव श्री शंकर के समक्ष ही सरदार पटेल ने कृष्ण बल्लभ बाबू को और कुछ कहने से पहले ही कहा कि कृष्ण बल्लभ साठी की ज़मीन वापस करनी होगी। कृष्ण बलभ बाबू ने जवाब दिया “साठी कि ज़मीन कभी वापस नहीं होगी।“ सरदार गुस्से से गुर्राते हुए बोले “क्यों?” कृष्ण बल्लभ बाबू का जवाब था आप केवल केंद्र सरकार के उपप्रधान मंत्री ही नहीं अपितु सारे देश के और कांग्रेसजनों की इज़्ज़त के संरक्षक भी हैं। बिना सुने आपके द्वारा फाँसी की सजा नहीं होनी चाहिए। सरदार ने शांतिपूर्वक जब सारे कागज़ात देखे और कृष्ण बल्लभ बाबू ने बिहार सरकार के निर्णय पर जो सफाई दी उससे सरदार पटेल पूर्णरूपेण संतुष्ट हुए। उलटे जिन लोगों ने चार्ज लगाया था उन्हीं के ऊपर सरदार पटेल ने अपनी नाराज़गी जाहिर किया। सरदार पटेल के आग्रह पर उनकी राय के अनुसार साठी ज़मीन के बारे में कानून बना। लेकिन जैसा कृष्ण बल्लभ बाबू ने कहा था वह कानून कोर्ट द्वारा रद कर दिया गया। उक्त घटना से उनके सख्त प्रशासक और नीडर राजनेता होने का प्रमाण साबित होता है। 

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जब-जब बिहार को विपत्ति का सामना करना पड़ा कृष्ण बल्लभ बाबू ने आगे बढ़ कर कुशल नेतृत्व प्रदान किया। बाढ़ से उत्पन्न परिस्थिति, भयंकर भूकंप या फिर 1966-67 के भयंकर अकाल की परिस्थिति में कृष्ण बल्लभ बाबू ने श्री जय प्रकाश नारायण की अध्यक्षता में सक्षम लोगों के साथ एक केंद्रीय सहायता समिति बना कर चारो ओर से स्वयंसेवी संस्थाओं और सरकारों से सहायता लेकर बिहार की जनता को भीषण दुर्भिक्ष से बचाया। जब वे मंत्री नहीं थे तब बिहार निर्माता कोष समिति बनाकर राशि संग्रह कर राजेंद्र बाबू, श्री बाबू और अनुग्रह बाबू की याद में जनता की सेवा हेतु संस्थाओं को जन्म दिया। 

कृष्ण बल्लभ बाबू ने यो तो सारे बिहार की सेवा आजीवन की, जिसके लिए वे बराबर याद किये ही जायेंगें- छोटानागपुर जहां आदिवासी, हरिजन एवं पिछड़े जातियों का ही बाहुल्य है वहां के मूल निवासी सबसे गरीब लेकिन जहां ज़मीन के नीचे अतः खनिज पदार्थ भरा पड़ा है और उससे सारा देश लाभान्वित हो रहा है, कृष्ण बल्लभ बाबू आजीवन इन गरीबों की सेवा करते रहे। भिन्न-भिन्न संस्थाओं के माध्यम से सेवा तो करते ही थे, उनके मुख्यमंत्रित्व काल में बिहार सरकार छोटानागपुर में कुछ महीने बैठा करती थे। लेकिन उनके मुख्यमंत्री पद से हट जाने के बाद से आज तक छोटानागपुर की हालात बाद से बदतर होती जा रही है। आज छोटानागपुर को बाध्य होकर अलग राज्य बनाने पर विचार हो रहा है। 

कृष्ण बल्लभ बाबू समाज सेवा और कांग्रेस के लिए सरदार पटेल, किदवई, इन्द्रभानु गुप्त जैसे लोगों की श्रेणी में आते हैं जो करोड़ों रुपये पार्टी फण्ड के लिए इकठ्ठा करते रहे लेकिन इसका उपयोग कभी भी अपने या अपने परिवार के लिए नहीं किया। जब कभी सौ दो सौ रुपये उनकी पत्नी घर खर्च के लिए उनसे मांगती थी -लाखों रुपये पारी फण्ड के होने के बावजूद उन्होनें नहीं दिया। कभी-कभी तो हमलोग भी उनके घर के निजी खर्च के लिए पैसे देते थे और पैसे आने पर वे उसे अवश्य लौट दिया करते थे। अपने राजनैतिक और सामाजिक जीवन के नज़दीकी लोगों से वे सख्त हिसाब लिया करते थे। श्री दीनानाथ पांडेय के गोलीकांड में मृत्यु के बाद मुख्यमंत्री श्री बाबू के कहने पर मुझे छात्रों के बीच कार्य करने के लिए कुछ पैसे दिए गए। सभी खर्चे की विधिवत रसीद मैंने दी लेकिन मात्र इक्कीस रुपये का मैंने अन्यान्य खर्च हुए उस पर कृष्ण बल्लभ बाबू ने बड़ी कड़ाई से मुझसे हिसाब लिया। उनकी प्रतिदिन की आदत थी कि वे रात्रि में दिन भर का हिसाब रजिस्टर में दर्ज करने के बाद जांच कर अपना दस्तखत कर दिया करते थे।

श्री कृष्ण बल्लभ सहाय और अन्य गणमान्य लोग – साल: 1963

जब ज़मींदारी प्रथा उन्मूलन और जंगल कटाई को लेकर राजा रामगढ और कृष्ण बल्लभ बाबू में भयंकर मुक़दमेबाज़ी हुई तब बिहार मंत्रिमंडल ने बार-बार स्वीकृति प्रस्ताव लाने के बजाय खर्च करने के लिए उन्हें इजाज़त दे दी। उनके निजी सचिव श्री राणा जो उनके जेल के समय के सहयोगी थे मुकदमा के खर्चे का हिसाब रखते थे। कुछ महीने का हिसाब उन्होंने नहीं दिया। मुक़दमे के ही सिलसिले में श्री लाल नारायण सिंह, श्री बजरंग सहाय श्री कृष्ण बल्लभ बाबू के साथ ट्रैन से दिल्ली जा रहे थे। रास्ते में उन्होंने अपने निजी सचिव श्री राणा से पूछा कि हिसाब आप क्यों नहीं दे देते हैं? श्री लाल नारायण सिंह और श्री बजरंग सहाय के कहने पर उन्होंने श्री राणा से लौटकर रांची में हिसाब देने की बात मान ली। संयोगवश एक विशेष घटना घटी। उस दिन रांची में मैं शत्रुघ्न बाबू एवं कामता बाबू (प्रसिद्ध कवि एवं साहित्यकार कामता प्रसाद सिंह काम जो डॉ. शंकर दयाल शर्मा, भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री एवं राज्यपाल के पिता थे) मौजूद थे। हिसाब माँगने पर श्री राणा ने कृष्ण बल्लभ बाबू को कहा “मैंने आपको धोखा दिया है और ट्रेज़री से रुपये निकाल कर निजी मद में खर्च कर दिया है।“ जब हमलोगों को मालूम पड़ा तब श्री राणा को सबसे पहले पकड़ा गया। श्रीबाबू ने मुख्य सचिव श्री एल.पी.सिंह को बुला कर इस सम्बन्ध में राय ली। श्री एल.पी.सिंह ने सही राय दी कि जितनी राशि राणा ने ट्रेज़री से नाजायज़ ढंग से निकाली है उतनी राशि पहले जमा कर दी जाए अन्यथा विरोधी लोग बवाल पैदा करेंगें। कृष्ण बल्लभ बाबू के कुछ समर्थकों ने रुपये लेकर जमा किया एवं राणा से उतना क़र्ज़ के रूप में हैण्ड नोट लिखवा लिया ताकि पीछे धोखा न दे। बात यहीं दब गयी। पटना ट्रेज़री कोषागार का लगातार चार दिनों तक तात्कालिक ज़िलाधिकारी ने रात दिन परिश्रम कर एक-एक कागज़ का मुआयना किया। लेकिन श्री राणा द्वारा निकाली गयी राशि का कोई सुराग नहीं मिला। 

1967 में महामाया सरकार पांच व्यक्तियों पर मेरे समेत पांच जांच कमीशन बैठाई। सी.बी.आई. के डी.आई.जी. इंचार्ज थे। कमीशन के फैसले के बाद डी.आई.जी. ने मुझसे कहा लगभग सारे देश में विशेष कर राजनीतिज्ञों पर मैं जांच करता रहा हूँ लेकिन कृष्णा बल्लभ सहाय जैसा ईमानदार व्यक्ति बिरले मिला क्योंकि इस व्यक्ति के पास करोड़ों रुपये का लिखित हिसाब 1946 से अब तक मिला। इसके अतिरिक्त भी पार्टी फंड का पैसा उन्होंने अपने और अपने परिवार के किसी कार्य में नहीं लगाया। बाकी लोगों के हिसाब का तो पता नहीं चलता है कि राजनीतिज्ञ कैसे खर्च करते हैं।  कृष्ण बल्लभ बाबू अपने जीवन में राजनीती में रहने वाले गरीब कार्यकर्ताओं, जो लोग मर जाते उनकी विधवा या उनके आश्रितों के लिए एक अभिभावक के रूप में हमेशा मदद किया करते थे। 

श्री बाबू की मृत्यु के बाद हम सब लोगों ने पंडित विनोदानंद झा को मुख्यमंत्री बनाने में बहुत ही मेहनत की। लेकिन पंडित झा ने बिलकुल सौ प्रतिशत झूठा षड्यंत्र रच कर पूरे कागज़ का पोथी बनाकर प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के हाथ में दे दिया कि मैं उन्हें मछली में विष दे कर मारने का षड्यंत्र रचा हूँ। मुझ समेत 36 लोगों को मुजरिम बना दिया गया। पंडित नेहरू ने आई.बी. इंटेलिजेंस के तात्कालिक निदेशक श्री मल्लिक द्वारा जांच करवाई। डी.आई.जी. श्री शुक्ल जांच अधिकारी बनाये गए। चार दिनों तक मुझसे पूछताछ की गयी। प्रधानमंत्री जी को भी मैंने सारी बातें बताई। श्री मल्लिक की ही रिपोर्ट पर पंडित विनोदानंद झा को पंडित नेहरू ने मुख्यमंत्री पद से हटाया और बाद में श्री कृष्ण बल्लभ बाबू मुख्यमंत्री बने। जब मुझ पर पंडित विनोदानंद झा ने षड्यंत्र का मुकदमा किया, तब मैंने एक बार कृष्ण बल्लभ बाबू की आँखों में आंसू गिरते हुए देखा था। मैंने उनसे कहा कि यदि वे मेरी वजह से विनोदानंद झा के सामने झुके, तब मैं अपना प्राण त्याग दूंगा। मैंने कहा कि ईश्वर पर मुझे पूरा भरोसा है और विनोदानंद झा स्वयं मुख्यमंत्री पद से हटाये जायेगे और हुआ भी वही। श्री मल्लिक ने जांच कर एक पत्र पंडित नेहरू को दिया कि पंडित विनोदानंद झा जैसे व्यक्ति को एक दिन भी मुख्यमंत्री पद पर रखना खतरनाक है। तात्कालिक गृह मंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री और श्री सत्येंद्र बाबू स्वयं इन बातों से वाकिफ थे।”

अख़बार का कतरन बिहार के लौह पुरुष श्री कृष्ण बल्लभ सहाय के पौत्र राजेश सहाय के ब्लॉग के सौजन्य से – राजेश सहाय संभवतः बिहार के किसी भी राजनेता के वंशज होंगे जिन्होंने अपने पूर्वज का दस्तावेजों को इस कदर सहेज कर रखें हैं। आपको मौका मिले तो अवश्य भ्रमण करें

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