​राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सर्वोच्च न्यायालय से सलाह लेने की जरूरत क्यों पड़ी? कहते हैं: ‘​देर से असंतोष बढ़ता है, काम जल्द निबटाइए-देश को आगे बढ़ाइए​’

यह तस्वीर 5 सितम्बर 2015 की है जब प्रधानमंत्री तीन दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध सम्मेलन के समापन समारोह में भाग लेने के लिए बोध गया ​आये थे । ​उन दिनों बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद ​थे जो बाद में देश के राष्ट्रपति पर पर आसीन हुए।

​नई दिल्ली : क्या देश में राज्यपालों की नियुक्ति के लिए भारत के संविधान में एक और संशोधन की आवश्यकता है? समय की जरुरत को माने तो ‘हां’ – भले अपवाद के तौर पर ही सही। सैद्धांतिक रूप से राज्यों के राज्यपाल प्रदेशों में भले राष्ट्रपति का प्रतिनिधित्व करें, व्यावहारिक रूप से केंद्र सरकार की इच्छाओं के विरुद्ध नहीं जा सकते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो गैर-केंद्रीय सत्ता के राजनीतिक पार्टियों वाली प्रदेश की सरकारों के साथ, मुख्यमंत्रियों के साथ छत्तीस का आंकड़ा नहीं होता।

​दर्जनों दृष्टांतों में सबसे बड़ा दृष्टान्त 13 मई 2025 को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा राज्य विधेयकों को मंजूरी देने के संबंध में 14 प्रश्नों पर सुप्रीम कोर्ट से सलाह ​मांगने की है । तमिलनाडु के राज्यपाल मामले पर हाल ही में आए फैसले के विभिन्न पहलुओं को संबोधित किया गया है, जहां सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करने के राज्यपाल के फैसले को खारिज कर दिया था। उसने माना कि विधेयकों पर राष्ट्रपति द्वारा उठाए गए सभी परिणामी कदम निरर्थक थे।

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत अपने अंतर्निहित अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए इन विधेयकों को राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किए जाने की तिथि पर स्वीकृत घोषित कर दिया, यह देखते हुए कि उन्हें बहुत लंबे समय तक लंबित रखा गया था। मजे की बात यह है कि संदर्भ में सावधानीपूर्वक फैसले का कोई उल्लेख नहीं किया गया है, जैसे कि इस विषय पर कानून के बारे में राष्ट्रपति के ‘संदेह’ स्वतंत्र रूप से उत्पन्न हुए हों।

लोक सभा में प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी सोशल मीडिया पर एक पोस्ट में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के पोस्ट को शेयर करते हुए आरोप लगाया है कि मोदी सरकार राज्यों की आवाज़ को दबाने और निर्वाचित राज्य सरकारों को परेशान करने के लिए राज्यपालों का इस्तेमाल कर रही है।”

राहुल गाँधी

भारत के संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट को सौंपे गए इस ज्ञापन में, राष्ट्रपति ने कुछ सवाल पूछे हैं। इन नोट में यह सवाल भी शामिल है कि “क्या राज्य विधानमंडल से पारित विधेयक राज्यपाल की स्वीकृति के बिना लागू किया जा सकता है?” यह भी पूछा गया है कि क्या राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए राज्य विधानमंडल में पारित विधेयकों को मंजूरी देने के लिए समय-सीमा निर्धारित करना संभव है?

आठ अप्रैल को तमिलनाडु सरकार की एक याचिका पर फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि राज्यपाल विधेयकों को लंबे समय तक रोक कर नहीं रख सकते है। सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए तमिलनाडु सरकार के विधेयकों को अपनी स्वीकृति दी थी, जिसमें कहा गया कि राज्यपाल का तमिलनाडु सरकार द्वारा पारित विश्वविद्यालयों से संबंधित विधेयकों को अपनी स्वीकृति न देना ‘अवैध’ है। सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यपाल द्वारा विधेयकों को स्वीकृति देने के लिए समय-सीमा भी निर्धारित की थी। इस फैसले के साथ ही विधेयकों पर फैसला लेने के लिए समय-सीमा राष्ट्रपति के लिए भी निर्धारित की थी।

यह तस्वीर 5 सितम्बर 2015 की है जब प्रधानमंत्री तीन दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध सम्मेलन के समापन समारोह में भाग लेने के लिए बोध​ गया ​आये थे । ​उन दिनों बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद ​थे जो बाद में देश के राष्ट्रपति पर पर आसीन हुए।

ज्ञातव्य हो कि केरल के पूर्व राज्यपाल (अब बिहार के राज्यपाल हैं) आरिफ मोहम्मद खान अपने कार्यकाल के दौरान आठ विधेयकों को दो वर्षों से रोके थे । बिलों को रोकने की वजहें कभी साफ-साफ नहीं बताया । बाद में केरल सरकार इस मामले को लेकर सर्वोच्च न्यायालय पहुंची । हालांकि अकेले आरिफ ही नहीं हैं, बल्कि तीन और भी राज्यपालों का नाम भी चर्चा में रहा जिनके खिलाफ मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुँच था । पंजाब के राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित और तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि के खिलाफ तमिलनाडु सरकार ने अदालत में याचिका दायर की थी । विपक्ष का सीधा आरोप था भी, और है भी, कि केंद्र सरकार विपक्षी शासित राज्यों के खिलाफ राज्यपालों का इस्तेमाल एक औजार के रूप में कर रही है। केरल सरकार ने अपनी याचिका में कहा था कि “राज्यपाल का मौजूदा आचरण कानून के शासन और लोकतांत्रिक व्यवस्था सहित हमारे संविधान के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है।

इनके अलावा झारखंड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, बिहार के राज्यपालों के बारे में भी चर्चाएं खुलेआम हुयी थी। महाराष्ट्र के पूर्व राज्यपाल भगत सिंह कोशयारी इतना बदनाम हुए कि अदालत को तीखी टिप्पणियां तक करना पड़ीं। पंजाब सरकार ने भी विधेयकों की मंजूरी रोकने के लिए राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया। हालांकि, इसके बाद, पंजाब माल और सेवा कर (संशोधन) विधेयक, 2023 और भारतीय स्टाम्प (पंजाब संशोधन) विधेयक, 2023 सहित दो विधेयकों पर अपनी सहमति दे दी। लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि इतने दिनों से विधेयकों को रोककर क्यों बैठे थे।

​देश के एक राज्य का राज्यपाल निवास

दिल्ली में उपराज्यपाल वीके सक्सेना और आम आदमी पार्टी सरकार का विवाद भी दिल्ली की सडकों पर यात्रा-तत्र सर्वत्र दिखा । कई बार अदालतों ने भी हस्तक्षेप किया है, लेकिन अभी तक कोई समाधान नहीं निकल पाया है। इसी तरह तेलंगाना भी राज्यपाल विवाद से अछूता नहीं रहा है। किसी भी राज्य में राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद को लेकर इस तरह के विवाद बेहद दुर्भाग्यपूर्ण हैं।

बहरहाल, भारतीय संविधान का प्रारूप 1948 के अनुच्छेद 131 के अनुसार, किसी राज्य के राज्यपाल का चुनाव उन सभी व्यक्तियों के प्रत्यक्ष मत द्वारा किया जाएगा, जिन्हें राज्य की विधान सभा के लिए आम चुनाव में मतदान का अधिकार है। और फिर वैकल्पिक रूप में यह भी कहा गया है कि ‘किसी राज्य के राज्यपाल को राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मोहर सहित अधिपत्र द्वारा चार अभ्यर्थियों के पैनल में से नियुक्त करेगा, जो उस राज्य की विधान सभा के सदस्यों द्वारा, या जहां राज्य में विधान परिषद है, वहां उस राज्य की विधान सभा और विधान परिषद के सभी सदस्यों द्वारा संयुक्त अधिवेशन में समवेत होकर आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा निर्वाचित किए जाएंगे और ऐसे चुनाव में मतदान गुप्त होगा।’

कहते हैं कि 30 मई और 31 मई 1949 को को ड्राफ्ट आर्टिकल 131 (आर्टिकल 155) पर बहस हुई। इस ड्राफ्ट आर्टिकल के दो संस्करण थे – एक में राज्यपाल के चुनाव की प्रक्रिया बताई गई थी और दूसरे में नियुक्ति की प्रक्रिया बताई गई थी। बहस इस बात पर केंद्रित थी कि राज्यपाल को चुनाव के माध्यम से चुना जाना चाहिए या नियुक्ति के द्वारा। चुनाव के पक्ष में कुछ सदस्यों ने बताया कि विधानसभा ने दो साल पहले एक प्रस्ताव पारित किया था जिसमें कहा गया था कि राज्यपाल का चुनाव चुनाव के माध्यम से किया जाएगा। एक सदस्य ने तर्क दिए कि नियुक्त राज्यपाल किसी भी राज्य से हो सकता है, और इसलिए वह एक अक्षम प्रशासक होगा क्योंकि उसे लोगों या भाषा का कोई ज्ञान नहीं होगा।

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कई सदस्यों ने नियुक्ति की प्रणाली का समर्थन किया, लेकिन मसौदा अनुच्छेद में निर्धारित प्रक्रिया को अस्वीकार कर दिया। एक सदस्य ने तर्क दिया कि प्रांतीय स्वायत्तता और सफल राज्य कैबिनेट सरकारें केवल ‘काफी निष्पक्ष संवैधानिक प्रमुख के अस्तित्व’ से ही सुनिश्चित की जा सकती हैं। उन्होंने मसौदा अनुच्छेद में उम्मीदवारों के पैनल से नियुक्ति की प्रणाली का भी विरोध किया क्योंकि यह सौहार्दपूर्ण संबंधों के लिए अनुकूल नहीं था। इसमें किसी पार्टी के भीतर गुटबाजी को बढ़ावा मिलेगा।

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मसौदा समिति के एक सदस्य ने भी सहमति जताई और कहा कि नियुक्ति अधिक उपयुक्त थी क्योंकि राज्यपाल का कार्य ‘संवैधानिक प्रमुख, एक बुद्धिमान परामर्शदाता और मंत्रालय का सलाहकार होना था जो मुश्किलों में तेल डाल सकता है’। प्रधानमंत्री ने इन तर्कों से सहमति जताई और कहा कि नियुक्ति यह सुनिश्चित करेगी कि राज्यपाल राज्य की राजनीति से अलग रहे और निष्पक्ष और निष्पक्ष रूप से काम करने में सक्षम हो। एक अन्य सदस्य ने तर्क दिया कि नियुक्ति करने की शक्ति राष्ट्रपति में निहित होनी चाहिए।

एक सदस्य ने मसौदा अनुच्छेद को पूरी तरह से बदलने का प्रस्ताव रखा, जिसमें कहा गया कि ‘राज्य के राज्यपाल को राष्ट्रपति द्वारा अपने हस्ताक्षर और मुहर के तहत वारंट द्वारा नियुक्त किया जाएगा ।’ उन्होंने तर्क दिया कि मसौदा अनुच्छेद की भाषा विधानमंडल को बहुत अधिक छूट देती है और राष्ट्रपति की पसंद को प्रतिबंधित करती है। उनके अनुसार, संशोधन की प्रक्रिया को सरल बना दिया है और राष्ट्रपति को राज्यपाल नियुक्त करने का अप्रतिबंधित अधिकार दिया है। इसे मसौदा समिति के सदस्यों सहित विधानसभा का लोकप्रिय समर्थन प्राप्त हुआ। विधानसभा ने राज्यपाल को नियुक्ति द्वारा चुनने के पक्ष में मतदान किया और प्रस्तावित एकमात्र संशोधन को स्वीकार कर लिया। संशोधित मसौदा अनुच्छेद 31 मई 1949 को अपनाया गया।

यह भी कहा जाता है कि संविधान निर्माण के दौरान, संविधान सभा ने गवर्नर की नियुक्ति की चार वैकल्पिक योजनाओं पर विचार किया – वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव; विधानमंडल द्वारा चुनाव; प्रांतीय विधानमंडल द्वारा प्रस्तुत नामों के पैनल में से राष्ट्रपति द्वारा नामांकन; और राष्ट्रपति द्वारा विवेकाधीन नियुक्ति।

बहरहाल, पहला सुझाव संविधान सभा के विचारार्थ मसौदा संविधान में शामिल किया गया था। हालांकि, संविधान निर्माताओं ने तर्क दिया कि, यदि राज्यपाल सीधे निर्वाचित होता है, तो वह राजनीतिक महत्वाकांक्षा से ऊपर नहीं हो सकता है, और वह कुछ स्थितियों में वास्तविक शक्ति का दावा कर सकता है। राज्यपाल के लोकप्रिय प्रतिनिधित्व के दावे के कारण, मुख्यमंत्री के साथ टकराव आम बात होगी। संविधान सभा ने विधानमंडल द्वारा चुनाव के दूसरे विचार को अस्वीकार कर दिया।

इस स्थिति में यह बताया गया कि वह स्थानीय प्रमुख पार्टी के हाथों में एक शक्तिहीन साधन होगा और इस तरह की नियुक्ति से राज्यपाल की स्वतंत्रता ख़तरे में पड़ जाएगी। राष्ट्रपति द्वारा विधायिका या मंत्रिमंडल द्वारा प्रस्तुत चार व्यक्तियों की सूची में से राज्यपाल को चुनने का सुझाव भी अस्वीकार कर दिया गया। ऐसा माना गया कि ऐसी स्थिति में मतभेद और गुटबाजी उभरेगी, जिससे बहुमत-समेकित पार्टी की स्थिति खराब होगी। और इन मौजूदा प्रथाओं के पक्ष और विपक्ष पर विचार करते समय, हमारे संविधान निर्माताओं ने कनाडाई मॉडल को चुना।

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अनुच्छेद 155 के अनुसार, राष्ट्रपति को राज्यपाल के नामांकन पर पूर्ण और अप्रतिबंधित नियंत्रण दिया गया था। आलोचकों के अनुसार केंद्र ऐसे व्यापक अधिकार का दुरुपयोग कर सकता है। हालांकि, इसे नियंत्रित रखने के लिए कुछ नियम हैं: ऐसा माना जाता है कि यदि कोई निवासी किसी अन्य राज्य का निवासी है तो उसके उस राज्य के राजनीतिक मामलों में शामिल होने की संभावना कम होगी, और इसलिए वह अधिक ईमानदारी और निष्पक्षता से व्यवहार करेगा। इससे इतने बड़े और विविध समुदाय के बीच विद्यमान एकजुटता और एकजुटता की उच्च भावनाओं को भी बढ़ावा मिलेगा।

1956 में भारत की संसद में राज्य पुनर्गठन अधिनियम पारित किया गया था, जिसके तहत 14 राज्य और 5 केंद्र शासित प्रदेशों की स्थापना की गई थी। संशोधन की घोषणा के कारण महाराष्ट्र राज्य के लोगों ने व्यापक दंगे किए और लगभग अस्सी लोग मारे गए। इसके कारण बॉम्बे राज्य का विभाजन गुजरात और महाराष्ट्र में हो गया, जिसके बाद बॉम्बे एक अलग राज्य बन गया, जिसे बाद में निरंतर विरोध और सार्वजनिक आक्रोश के कारण महाराष्ट्र का हिस्सा बना दिया गया। मई 1960 में बॉम्बे को महाराष्ट्र की राजधानी और अहमदाबाद को गुजरात की राजधानी घोषित किया गया। 1956 के राज्य पुनर्गठन अधिनियम के भाग II के रूप में, सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को संविधान की चौथी अनुसूची के पूर्ण संशोधन में शामिल किया गया था, जिसमें राज्य परिषद की सीटें मौजूदा राज्यों को आवंटित की गई थीं।

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भारत के राष्ट्रपति ने 7वें संविधान संशोधन अधिनियम के अनुच्छेद 258 ए के तहत संशोधन नीतियों के तहत केंद्र शासित प्रदेशों का नेतृत्व राज्य के राज्यपालों को सौंप दिया। हालांकि, राज्यपाल इस अनुच्छेद के तहत केंद्र सरकार को केंद्र शासित प्रदेशों का नेतृत्व या कार्य नहीं सौंप सकते। नेतृत्व के इस हस्तांतरण मुद्दे को बाद में राष्ट्रपति कानून का उपयोग करते हुए अनुच्छेद 258 ए में संशोधित किया गया।

इसके अलावा, राज्यों के राज्यपालों को भारत की केंद्र सरकार के साथ चर्चा करके राज्य को सौंपे गए अधिकारियों को कार्य या कोई जिम्मेदारी सौंपने की शक्ति दी गई। जब तक राज्य के कानूनों का पालन किया जा रहा था, भारत के राज्यपाल ने कर्तव्यों के इस हस्तांतरण की अनुमति दी। एक अन्य अनुच्छेद 258A यह प्रावधान करने के लिए जोड़ा गया कि किसी राज्य का राज्यपाल भारत सरकार की सहमति से केंद्र सरकार या उसके अधिकारियों के साथ राज्य के किसी भी पद को साझा कर सके।

वैसे संविधान स्वीकार करने के बाद से, भारतीय संविधान में अब तक 106 संशोधन किए जा चुके हैं। पहला संशोधन 1951 में किया गया था और नवीनतम संशोधन 2023 में हुआ।कहते हैं कि संशोधन भारतीय संविधान को समय के साथ बदलने और सुधारने की एक प्रक्रिया है जो अनुच्छेद 368 के तहत निर्धारित है। सबसे महत्वपूर्ण संशोधन 1976 में 42 वां के रूप में जाना जाता है जिसमें राष्ट्रपति, संसद और न्यायपालिका की शक्तियों को प्रभावित किया था। 44 वां संशोधन आपातकाल के दौरान हुआ था। साल 1992 में पंचायती राज को संवैधानिक मान्यता देने के लिए 73 वां संशोधन किया गया था और फिर 2002 में 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के लिए 86 वां संशोधन किया गया। संविधान के संशोधन के क्रम में सत्तारूढ़ पार्टी कटी है कि यह संशोधन संविधान को गतिशिक और लचीला बनाने के लिए किया जाता है जो समय के साथ देश की जरूरतों के अनुरूप बदलता रहता है।

नरेंद्र मोदी जब साल 2014 में प्रधानमंत्री बने, तब से अब तक (2014 से 2025 तक) भी ​सात बार संविधान में संशोधन किये गए हैं। साल 2015 में 99 वां संशोधन हुआ जिसके तहत राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना की गयी, जो न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम प्रणाली की जगह लेने वाला था।हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने बाद में इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया। एक साल बाद साल 2016 में वस्तु एवं सेवा कर लागू किया जो देश में कर प्रणाली में एक महत्वपूर्ण बदलाव था। यह 101 वां संशोधन के रूप में जाना गया। दो साल बाद 2018 में 102 वां संशोधन किया गया जिससे राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया गया। उसके अगले वर्ष 103 वां संशोधन के तहत आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को शिक्षा और नौकरी में 10% आरक्षण की अनुमति दी गयी।

विगत पांच वर्षों में भी तीन संशोधन किये गए। 2020 में 104 वां संशोधन के लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में एससी और एसटी के लिए सीटों की समाप्ति की समय सीमा 70 से बढ़ाकर 80 साल कर दी। फिर 2023 में 106 वां संशोधन के तहत लोकसभा, राज्य विधान सभाओं और दिल्ली विधान सभा में महिलाओं के लिए एक-तिहाई आरक्षण की व्यवस्था की गयी, जो महिला आरक्षण अधिनियम के नाम से भी जाना जाता है।

आज जब इन तमाम परिदृश्यों को देखते भारत के राज्यों में पदस्थापित राज्यपालों को देखता तो सोचता हूँ कि देश के 28 राज्यों और आठ केंद्र शासित प्रदेशों का प्रथम नागरिक, वास्तविक तौर पर उस राज्य का नागरिक होता ही नहीं है। दिल्ली के कनॉट प्लेस से भारत के संसद को मिलाने वाली सड़क संसद मार्ग पर राजनेताओं का कहना है यही परंपरा है। नेतागण कहते हैं कि ‘राज्यपाल प्रदेश में राष्ट्रपति की भूमिका अदा करते हैं और हमेशा केंद्र सरकार के निर्देशों का अक्षरशः अनुपालन करते हैं। राज्यपाल का दूसरे प्रदेश का नागरिक होना कोई कानूनी बाध्यता नहीं हैं, एक परंपरा है। इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि केंद्र सरकार अपनी राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति राजपाल के द्वारा करा सकती है। क्योंकि औसतन राज्यपालों को अपनी कुर्सी पर जमे रहने के लिए केंद्र सरकार के आदेश को मानना ही होगा।

वरिष्ठ पत्रकार पंकज वोहरा

वरिष्ठ पत्रकार पंकज वोहरा कहते हैं की “बेशक। समय की जरूरत के हिसाब से बदलाव करना पड़ता है। हालांकि यह अपवाद के तौर पर ही होना चाहिए और ऐसे मामलों में कोई सख्त नियम नहीं हो सकता। एक समय में, किसी खास राज्य के निवासी या मतदाता ही उस प्रांत से राज्यसभा में हो सकते थे। समय के साथ राजनेताओं ने अपने हिसाब से बदलाव किए। इसके बावजूद राज्यसभा को काउंसिल ऑफ स्टेट्स कहा जाता है।”

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ज्ञातव्य हो कि सर्वोच्च न्यायालय ने संवैधानिक तंत्र की विफलता के उदाहरणों को चार श्रेणियों में वर्गीकृत किया: राजनीतिक संकट.आंतरिक तोड़फोड़, शारीरिक टूटन, संघ कार्यकारिणी के संवैधानिक निर्देशों का अनुपालन न करना। ज्ञातव्य हो कि एसआर बोम्मई मामले (1994) में , सरकारिया आयोग की सिफारिशों के बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने रेखांकित किया कि संवैधानिक तंत्र के टूटने से राज्य में शासन चलाने में मात्र कठिनाई नहीं, बल्कि लगभग असंभवता का संकेत मिलता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यद्यपि इस तरह की विफलता के संबंध में राष्ट्रपति की व्यक्तिपरक सन्तुष्टि न्यायिक जांच से परे है, फिर भी जिस सामग्री पर ऐसी संतुष्टि आधारित है, उसका विश्लेषण निश्चित रूप से राज्यपाल की रिपोर्ट सहित न्यायपालिका द्वारा किया जा सकता है। न्यायालय ने अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में मनमाने ढंग से राष्ट्रपति शासन लागू किये जाने के बाद निलंबित की गई सरकारों को बहाल कर दिया।

नबाम रेबिया मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 2016 में फैसला सुनाया था कि राज्यपाल के विवेकाधिकार का प्रयोग अनुच्छेद 163 के तहत सीमित है और उनके द्वारा किया जाने वाला कार्य मनमाना या काल्पनिक नहीं होना चाहिए। यह तर्क से प्रेरित, सद्भावना से प्रेरित और सावधानी से किया जाने वाला निर्णय होना चाहिए। प्रशासनिक सुधार आयोग (1968) ने सिफारिश की थी कि राष्ट्रपति शासन के संबंध में राज्यपाल की रिपोर्ट वस्तुनिष्ठ होनी चाहिए तथा राज्यपाल को इस संबंध में स्वयं निर्णय लेना चाहिए। राजमन्नार समिति (1971) ने भारत के संविधान से अनुच्छेद 356 और 357 को हटाने की सिफारिश की थी । अनुच्छेद 356 के तहत केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी की मनमानी कार्रवाई के खिलाफ सुरक्षा के लिए आवश्यक प्रावधानों को संविधान में शामिल किया जाना चाहिए। राजमन्नार समिति ने इस बात पर जोर दिया कि राज्य के राज्यपाल को स्वयं को केंद्र का एजेंट नहीं समझना चाहिए, बल्कि राज्य के संवैधानिक प्रमुख के रूप में अपनी भूमिका निभानी चाहिए।

सरकारिया आयोग (1988) ने सिफारिश की थी कि अनुच्छेद 356 का प्रयोग अत्यंत दुर्लभ मामलों में किया जाना चाहिए, जब राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता को पुनः स्थापित करना अपरिहार्य हो जाए। आयोग ने सिफारिश की कि अनुच्छेद 356 के तहत कार्रवाई करने से पहले राज्य सरकार को चेतावनी जारी की जानी चाहिए कि वह संविधान के अनुसार काम नहीं कर रही है। फिर, न्यायमूर्ति वी. चेल्लिया आयोग (2002) ने सिफारिश की थी कि अनुच्छेद 356 का प्रयोग संयम से किया जाना चाहिए तथा अनुच्छेद 256, 257 और 355 के तहत सभी कार्रवाइयों के समाप्त हो जाने के बाद इसे अंतिम उपाय के रूप में ही प्रयोग किया जाना चाहिए । “पंछी आयोग” ने सिफारिश की थी कि इन अनुच्छेदों 355 और 356 में संशोधन किया जाना चाहिए। इसने केंद्र द्वारा इनके दुरुपयोग को रोकने की कोशिश करके राज्यों के हितों की रक्षा करने की कोशिश की।

​वरिष्ठ पत्रकार और अधिवक्ता बिराजा महापात्रा

प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया के पूर्व विधि संवाददाता और वर्तमान में अधिवक्ता बिराजा महापात्रा कहते हैं कि ‘राज्यपाल की नियुक्ति भारत के संविधान के अनुच्छेद 155 के तहत भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। कानूनी तौर पर गृह राज्य से राज्यपाल नियुक्त करने में कोई बाधा नहीं है। लेकिन राज्यपाल सिर्फ राज्य का औपचारिक मुखिया नहीं होता। वह केंद्र के एजेंट के तौर पर भी काम करता है। राज्यपाल से यह अपेक्षा की जाती है कि वह राज्यपाल के तौर पर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए निष्पक्षता और तटस्थता बनाए रखे। बी.जी. खेर, के.एन. काटजू और पी. सुब्बारायण की संविधान सभा की एक उप समिति ने सुझाव दिया था कि राज्यपाल को मुख्यमंत्री की तरह ही एक निर्वाचित प्रतिनिधि होना चाहिए। लेकिन संविधान सभा मुख्यमंत्री और राज्यपाल की शक्तियों के बीच टकराव की आशंका के कारण इससे सहमत नहीं थी।’

महापात्रा के अनुसार, अगर आपको 1994 का एस.आर. बोम्मई मामला याद हो, तो सुप्रीम कोर्ट ने लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकारों को तोड़ने के लिए राज्यपाल की संस्था का इस्तेमाल किया। राज्यपाल के पद के दुरुपयोग के आरोप मणिपुर, गोवा (2017), मेघालय, कर्नाटक (2018) और हाल ही में तमिलनाडु से जुड़े कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट में आए हैं। हालांकि राज्यपाल की दुर्भावनापूर्ण कार्रवाई सुप्रीम कोर्ट द्वारा न्यायिक जांच के दायरे में आती है, लेकिन ऐसा शायद ही कभी होता है। शायद हाल ही में तमिलनाडु का मामला इसका अपवाद है। इसलिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि राज्यपाल राज्य से है या नहीं। महत्वपूर्ण बात यह है कि राज्यपाल को निष्पक्ष रोल मॉडल होना चाहिए और अपने संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन करते समय तटस्थता बनाए रखनी चाहिए।’

ज्ञातव्य हो कि स्वतंत्रता के बाद पहली भारतीय राज्य राज्यपाल सरोजिनी नायडू थीं, जिन्होंने 1947 से 1949 तक उत्तर प्रदेश की राज्यपाल के रूप में कार्य किया। उनकी नियुक्ति से पहले, उत्तर प्रदेश को संयुक्त प्रांत के रूप में जाना जाता था। इसी तरह कर्नाटक में जयचामराजेंद्र वाडियार, केरल में बुर्गुला रामकृष्ण राव, मध्य प्रदेश में डॉ. पट्टाभि सीतारमैया, महाराष्ट्र में राजा सर महाराज सिंह नियुक्त हुए थे। राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के आधार पर, 1 नवंबर 1956 ई. से राजप्रमुख की संस्था को 7वें संविधान संशोधन द्वारा समाप्त कर दिया गया था। श्री गुरुमुख निहाल सिंह को 25 अक्टूबर 1956 ई. को राजस्थान के पहले राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया गया था।

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