समस्तीपुर (बिहार का मिथिला क्षेत्र ) : ऑटो के इंतज़ार में समस्तीपुर रेलवे स्टेशन के बाहर अचानक ‘चला मुरारी हीरो बनने’ सिनेमा याद आ गया। भारत में 21-माह का आपातकाल (25 जून, 1975 – 21 मार्च, 1977) समाप्त होने के आठ महीने बाद देश के सिनेमा घरों में असरानी, बिंदिया गोस्वामी, अशोक कुमार, प्रेमनाथ अभिनीत एक फिल्म आई थी। नाम था “चला मुरारी हीरो बनने।” इस फिल्म का निर्माण तो सुरिंदर कुमार शर्मा किये थे, लेकिन निर्देशन स्वयं असरानी ही किये थे। वह सिनेमा महबूब स्टूडियो का बेहतरीन निर्माण था। देश के सिनेमा घरों में यह 11 नवम्बर, 1977 को प्रदर्शित हुआ था। “चला मुरारी हीरो बनने” सिनेमा भले कॉमेडी सिनेमा रहा हो, लेकिन आम भारतीय युवकों के अभिनेता बनने के सपने को बखूबी चित्रण कर पर्दे पर उतारा था। काफी संघर्ष के बाद मुरारी मुंबई फिल्म जगत में अभिनेता भी बनता है। आगे समय चक्र चलता है।
समस्तीपुर रेलवे स्टेशन के बाहर ‘चला मुरारी हीरो बनने’ फिल्म का याद आना ‘यूँ ही इत्तिफाक नहीं था,’ बल्कि नब्बे के दशक के अंत में घटी एक घटना का कारण भी था। उस कालखंड में समस्तीपुर के ताजपुर मोहल्ले के एक युवक को भी सिनेमा जगत में अभिनेता बनने की इच्छा जागृत हुई थी। इच्छा का जागृत होना प्रदेश में उपलब्ध खेल-कूद की सुविधाओं और अवसरों के प्रति पटना सचिवालय में कुर्सी तोड़ने वाले तत्कालीन राजनीतिक भाग्य विधाताओं के अलावे उनके चमचों, चाटुकारों के रूप में पदस्थापित सीपा-सलाहकारों, अधिकारियों के कारण भी था। खेल की दुनिया में बिहार का सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र त्राहिमाम के युग से गुजर रहा था।
प्रदेश सरकार के दस्तावेजों पर खेलकूद भले प्राथमिकता वाले श्रेणी में स्थान बनाये रखे था, लेकिन व्यावहारिक जीवन में राजनीतिक महकमों में अशिक्षित, अनपढ़ों, खेल के प्रति अव्यावहारिक अभिरुचि रखने वालों का वर्चस्व होने के कारण खेल का महत्व गंगा, बागमती, गंडक, बूढ़ी गंडक, कोसी, पुनपुन, महानंदा, घाघरा, कमला, सोन, फल्गु, करमनासा, बलान आदि नदियों की धाराओं में बह गया था।

संजीव सूर्यवंशी अपनी पत्नी श्रीमती आरती सिंह, माँ श्रीमती उषा सिंह और छोटे पुत्र आशीर्वाद के साथ
उधर केंद्र -साथ बिहार सरकार के कोषागार से खेल के नाम पर करोड़ों, अरबों, खरबों रुपयों का आवंटन हो रहा था, लेकिन पटना के मोइनुलहक स्टेडियम सहित अविभाजित बिहार के सभी राज्यों के खेल के मैंदानों में जमीन बंजर हो गई थी। मैदानों में खिलाड़ियों के पैर के निशान दूर-दूर तक कहीं नहीं दीखते थे, अलबत्ता प्रदेश के अपराधियों से बने राजनेताओं या फिर राजनेता का आपराधिक स्वरुप खेल के मैदान को बाँझ बना रहा था। शायद बहुत कम लोगों को याद होगा ‘खेल के प्रति उसी बांझपन रवैय्ये के कारण दिल्ली के एक अख़बार के मुख्य पृष्ठ पर कहानियां भी प्रकाशित हुई थी ‘सारे कोष डकार गए सरकारी …” और “अब मोइनकहक़ स्टेडियम में थिरकेंगी अभिनेत्रियों की घुंघरू।”
प्रदेश के खिलाड़ी मैदानों से लेकर प्रदेश के सचिवालय तक नाक रगड़ते दीखते थे खेल के क्षेत्र में अवसरों की तलाश को लेकर । तत्कालीन अख़बारों में खेल के प्रति, खिलाड़ियों के प्रति सरकार और व्यवस्था की रवैय्ये को सम्पादकीय से लेकर खेल के पन्नों तक रंगा जा रहा था। लेकिन तत्कालीन व्यवस्था के लोगों के, यहाँ तक कि प्रदेश के मुख्यमंत्री, मंत्री, खेल मंत्री, नेता, अधिकारी, पदाधिकारियों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगते थे।
उधर, अंतर्राष्ट्रीय खेल के मैदानों में अंतर्राष्ट्रीय मुद्राओं की तुलना में भारतीय मुद्राओं के गिरते, लुढ़कते चरित्र के अनुसार खेल और खिलाड़ी भी प्रभावित हो रहे थे। वैसे आज भी स्थिति में बहुत सुधार नहीं हुआ है, सरकारी स्तर पर अपेक्षा रखना भी मूर्खता का पराकाष्ठा होगा। तथापि खेल की दुनिया में निजी क्षेत्रों के आगमन से खेल की परिभाषा में सकारात्मक परिवर्तन अवश्य आया है। इसी हादसे का शिकार हुए थे बाबू संजीव सूर्यवंशी ताजपुर, समस्तीपुर वाले।
अस्सी के दशक के मध्य आते-आते, एक तरफ जहां प्रुडेंशियल कप जीतने के बाद – यानी भारत और वेस्ट इंडीज के बीच 25 जून, 1983 को कपिल देव की अगुवाई में भारत विश्व के पटल पर अपना नाम हस्ताक्षरित कर दिया था – वहीँ बिहार में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के अंतिम कालखंड और उसके बाद, प्रदेश की राजनीतिक गलियारे में रामसुंदर दास, जगन्नाथ मिश्र, चंद्रशेखर सिंह, बिंदेश्वरी दुबे, भागवत झा आज़ाद, सत्येंद्र नारायण सिंह मुख्यमंत्री कार्यालय में रखी कुर्सी पर गिद्ध की तरह टकटकी निगाह लगाए आ-जा रहे थे। यह कालखंड 1980-1990 का था और वैसी परिस्थिति में प्रदेश में खेल-कूद को कौन पूछता? खेलकूद को प्रदेश की राजनीति और नेताओं, अधिकारियों की रुग्ण सोच खेलकूद को अपाहिज बना दिया था। आज भी स्थिति बहुत बेहतर नहीं है, बशर्ते मुद्राओं का प्रवाह बाढ़ जैसी नहीं हो।
आकाशवाणी पटना से संध्या साढ़े सात बजे अनंत कुमार द्वारा उद्घोषित समाचार के अंत में दो-मिनट खेल समाचारों को मिलना, प्रदेश में उपलब्ध खेलों की अहमियत को बताता था।
कपिल देव की अगुवाई में प्रुडेंशियल कप में भारत की जीत ताजपुर के उस युवक के ह्रदय में क्रिकेट के प्रति, कपिल देव और उनके साथियों के प्रति सम्मान उत्कर्ष पर था। वहीँ प्रदेश में उपलब्ध साधनों और अवसरों के कारण सारे सपने बनारस के मणिकर्णिका घाट में अस्थि कलशों के अम्बार जैसा हो गया था। सपने टूट गए थे, टूट रहे थे, बिखर रहे थे ताजपुर की सड़कों, मैदानों से लेकर पटना के मोइनुलहक स्टेडियम के रास्ते दिल्ली के नेशनल स्टेडियम तक। मन में जीत की अभिलाषा होने के बाद भी एक कसक, एक टिस ह्रदय के एक कोने में अपना स्थान बना लिया था। बम्बई महानगरी से अभिनेता बनने, विश्व के पटल पर क्रिकेट की दुनिया में ताजपुर का नाम लिखने की चकनाचूर अभिलाषाओं के साथ वह युवक संजीव सूर्यवंशी कल के बम्बई से ताजपुर वापस आ रहा था।

उधर संजीव के पिता उमेश प्रसाद सिंह और माँ उषा सिंह अपने बच्चे के हताश मन पर मरहम-पट्टी लगाने के लिए भरसक प्रयास कर रहे थे। अब तक साल 2003 आ गया था। अपने सपने को अपनी आत्मा के एक कोने में ‘मृत’ ‘नहीं’, बल्कि ‘विश्रामावस्था’ में रखकर युवक संजीव सूर्यवंशी विवाह के लिए सज्ज हो रहे थे। माता-पिता चाहते थे कि उसकी जीवन संगनी के आने से शायद समय में कुछ बदलाव हो जाए और इसी उद्देश्य से समस्तीपुर जिले के कल्याणपुर ब्लॉक के प्रहारा गाँव से सुश्री आरती सिंह संजीव सूर्यवंशी का हाथ पकड़ने, परिवार को, आने वाली पीढ़ियों के जीवन निर्माण के लिए सज्ज हो गयी थी।
अपनी नैहर से संजीव सूर्यवंशी के साथ विवाहोपरांत ससुराल ताजपुर आते समय मन में सैकड़ों सपने सजायी, दुल्हन का श्रृंगार किये सुश्री से श्रीमती बनी आरती आ रही थीं। अपने पति और परिवार के लिए एक मजबूत हिस्सा बनने के लिए स्वयं जो सज्ज कर रही थी। लेकिन उस समय शायद सोची नहीं थीं की आने वाले वर्षों में उन्हें तीन पुत्ररत्न होगा और बीच वाला संतान उन्हें अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर रातो रात लेकर चला जायेगा। आज भले श्री उमेश प्रसाद सिंह अपने पौत्र के सम्मान को देखने हेतु सांस नहीं ले रहे हैं, लेकिन अपनी अर्धांगिनी (वैभव की दादी) और घर के सभी सदस्यों के नेत्रों से बाल बच्चों को आशीष अवश्य दे रहे होंगे। इसी को कहते हैं – राजपुताना। राजपूत अपना प्रण, अपनी प्रतिज्ञा नहीं भूलता। संजीव सूर्यवंशी उसी राजपूतों में एक हैं।
बहरहाल, शायद बहुत काम लोग जानते होंगे कि भारत-चीन युद्ध के बाद 1962-1963 के दौरान ‘परशुराम की प्रतिज्ञा’ खंडकाव्य लिखे थे राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर द्वारा। उस दौरान पटना विश्वविद्यालय के कुलपति थे जॉर्ज जैकोब (14 मार्च, 1962 से 13 मार्च, 1965) जो विश्वविद्यालय के स्थापना काल के बाद 14वें कुलपति थे। जैकोब की अगुवाई में सैकड़ों शिक्षक, हज़ारों छात्र-छात्राएं पटना विश्वविद्यालय के व्हीलर सीनेट हॉल के बाहर दिनकर की प्रतीक्षा कर रहे थे।
उस क्षण का चश्मदीद गवाह रहे राम वचन राय कहते हैं: ‘उस भीड़ में भी दिनकर ने मुझे इशारा कर अंदर प्रवेश करने के लिए कहा। मैं महज एक छात्र था। लेकिन मन में अनेकानेक सपने पाल रहा था। कुछ अपने लिए, कुछ समाज के लिए, कुछ प्रदेश के लिए, कुछ देश के लिए और सबसे अधिक हिंदी साहित्य के लिए । मुझे बहुत सम्मान के साथ व्हीलर सीनेट हॉल में लगी हजारों कुर्सियों में सबसे आगे वाली कतार पर बैठने को कहा गया। फिर मंच पर लोगों का अपने-अपने तरह से छात्रों, छात्राओं, समाज के लोगों को राष्ट्र के प्रति उनके कर्तव्यों का बोध कराया गया। अब तक मैं अनभिज्ञ था – आखिर आज यहां क्या हो रहा है ? दिनकर जी क्या कहने वाले हैं?”
“तभी मंच से तत्कालीन कुलपति जॉर्ज जैकोब की घोषणा हुई कि भारत-चीन युद्ध में भारत की करारी हार पर रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित “परशुराम की प्रतिज्ञा” का पहला पाठ आज दिनकर स्वयं करेंगे। आज एक इतिहास लिखा जा रहा है और हम सभी भाग्यशाली हैं कि आज इस इतिहास का साक्षी हैं।’
विगत अप्रैल 2025 को दिनकर की ‘परशुराम की प्रतिज्ञा’ का तरह श्री उमेश प्रसाद सिंह के बड़े पुत्र और वैभव सूर्यवंशी के पिता संजीव सूर्यवंशी भी अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट की दुनिया में अपने 14-वर्षीय संतान द्वारा लिखित इतिहास का पाठ कर रहे थे। विश्व खेल जगत के लोग प्रत्यक्षदर्शी हैं। शायद आने वाले कई वर्षों में इस इतिहास के पन्ने को पलटने, लिखने वाला कोई नहीं हो। इसी को कहते हैं प्रतिज्ञा चाहे परशुराम का हो या संजीव सूर्यवंशी का।
बहरहाल, नितेश तिवारी के निर्देशन में उन्हीं की लिखित और आमिर खान के निर्देशन में भारत के सिनेमा गृहों में एक फिल्म आयी थी, नाम था ‘दंगल।’ इस फिल्म में आमिर खान के अलावे साक्षी तंवर, फातिमा सना शेख, जायरा वसीम, सान्या मल्होत्रा और सुहानी भटनागर मुख्य भूमिका में थे। इस सिनेमा की कहानी महावीर सिंह फोगाट की निजी कहानी पर आधारित थी। फोगाट अपनी जिंदगी में एक पहलवान हैं। लेकिन अच्छी नौकरी के लिए कुश्ती छोड़ दिए थे। इसका परिणाम यह हुआ था कि उनका देश के लिए स्वर्ण पदक जीतने का उनका सपना भी अधूरा रह गया। उनके मन में एक इच्छा अनवरत रही कि उनका अधूरा सपना उसका बेटा पूरा करेगा। लेकिन उसके घर लगातार चार बेटियों के होने से वह निराश हो गए। समयांतराल जब उनकी बेटियां – गीता फोगाट और बबीता फोगाट – लड़कों को पीट कर आती है तो उन्हें अपनी बेटियों में भविष्य का पहलवान दिखता है। और अंततः महावीर सिंह फोगाट अपनी बेटियों के माध्यम से अपना अरमान पूरा करते हैं।

इसी तरह, साल 2007 में एक फिल्म आयी – चक दे इंडिया। भारतीय हॉकी की तत्कालीन स्थिति के मद्देनजर यश चोपड़ा की यह फिल्म थी। शाहरुख़ खान मुख्य भूमिका में थे जिनका मुख्य उद्येश्य था अपने ऊपर लगे ‘कलंक’ को मिटाना और भारत को विश्व महिला क्रिकेट में उत्कर्ष पर ले जाना, जिताना था । चक दे इण्डिया सिनेमा में हॉकी के क्षेत्र में वह सभी बातें दिखाई गयी जो भारतीय हॉकी संघ में प्रचलित थी। आज भी हो सकता है जिसके कारण वह अब रसातल मे जा रही है। यह फिल्म सिर्फ़ एक खेल की ही कहानी नही है, यह एक कोच और उसकी टीम की उम्मीदों, जज्बातो, हिम्मत, साहस और सपनो की कहानी है।
विगत एक वर्ष पहले एक और फिल्म बनी- घूमर – यह फिल्म असंभव को संभव कर दिखाने वाली एक प्रेरणादायी कहानी है, जो मुश्किल से मुश्किल हालात में भी हार न मानने की सीख देती है। शबाना आजमी, अभिषेक बच्चन, सैयामी खेर और अंगद बेदी अभिनीत यह फिल्म भारतीय खिलाडियों के लिए एक प्रेरणादायक है। एक हाथ न होने पर भी ओलिंपिक में गोल्ड मेडल जीतने का कारनामा करने वाले शूटर कैरोली टकाक्स की असल जिंदगी से प्रेरित इस फिल्म ने सपनों को संवारने का एक अदम्य सहस का परिचय दिया।
विगत कई वर्षों से मुंबई के फ़िल्मी दुनिया में दर्जनों फिल्म बनी जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से एक खिलाड़ी का खेल के प्रति समर्पण को उजागर कियया है चाहे चक दे इण्डिया हो, दंगल हो, मारी कॉम हो, भाग मिल्खा भाग हो, एमएस धोनी – दी अनटोल्ड स्टोरी हो या फिर 83 हो।
इन बातों का जिक्र यहाँ इसलिए कर रहा हूँ कि बिहार के सचिवालय से कोई 120 किलोमीटर दूर समस्तीपुर के ताजपुर इलाके में रहने वाले सूर्यवंशी परिवार को पिछले दो साल पहले तक कोई नहीं जानता था। यहाँ तक कि प्रदेश के राजनीतिक गलियारे में कुर्सी में चिपके दर्जनों नहीं, सैकड़ों नहीं, बल्कि हज़ारों-हज़ार शुतुरमुर्ग जैसा स्वेत-वस्त्रघारी राजनेता, महामहिम, मुख्यमंत्री, उप-मुख्यमंत्री, खेल मंत्री कोई भी नहीं जानते-पहचानते थे। लेकिन ऐसा क्या हुआ कि बिहार ही नहीं, भारत में रहने वाले 10 और 19 साल के करोड़ों बच्चों में ताजपुर ठाकुरबाड़ी की गली का यह बच्चा अचानक क्षितिज पर
सूर्य जैसा चमक उठा। रातो-रात उसे जितनी शोहरत मिली, शायद भारत के इतिहास में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी नहीं मिला होगा – सच यही है, आप स्वीकार करें अथवा नहीं।
और इसका एक मात्र कारण था ‘एक पिता का जिद’, ‘एक पिता का अपनी असफलता को पुत्र की सफलता में बदलना, और बहुत सी बातें जो माता-पिता और संतान के बीच मानसिक, प्राकृतिक, मनोवैज्ञानिक संबंधों के समीकरण को निर्धारित करता था।
मनोवैज्ञानिकों, शिक्षाविदों का मानना है कि भारत में औसतन 100 में 99.9 फीसदी पिता, चाहे किसी भी समाज के हों, किसी भी परिवेश के हों, कोई भी कार्य करते हों, शिक्षित हों, अशिक्षित हों, दरिद्र हों, धनाढ्य हों, अपने संतानों की बात नहीं सुनते। आम तौर पर माँ, न केवल माँ की भूमिका निभाती है, बल्कि सैकड़े 90 फीसदी परिवारों में वह पिता का भी स्थान लेती है ताकि परिवार में तारतम्य बना रहे।
भारत में 10 से 19 वर्ष के किशोर और किशोरियां की जनसंख्या पूरी जनसंख्या का पांचवा हिस्सा है। ये सभी युवक-युवतियां अपने-अपने उम्र के साथ सैकड़ों सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक और जैविक परिवर्तनों से होकर गुज़रते हैं। उनके अनुभवों, उनके लिए उपलब्ध संसाधन और सहयोग, उनके व्यवहार, क्षमता और स्वास्थ्य पर आजीवन प्रभाव डालते हैं। यह कालखंड मानव विकास का एक अनूठा चरण होता है और अच्छे स्वास्थ्य की नींव रखने का एक महत्वपूर्ण समय भी।
संजीव सूर्यवंशी और उनके द्वितीय पुत्र वैभव सूर्यवंशी की कथा भी कुछ ऐसी ही है – पिता-पुत्र संवाद। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वैभव चंद्रवंशी का उदय होना उसके माता-पिता द्वारा, घर में दादी, चाचा द्वारा, मोहल्ले के हम-उम्रों या बड़े-बुजुर्गों द्वारा उसकी बातों को सुनना, वह क्या कहता है, वह चाहता है, उस दिशा में ले जाना – जीवंत दृष्टान्त है।

अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि भारत में कितने ऐसे माता-पिता हैं जो बच्चों की बात सुनते हैं? वैसे सार्वभौमिक अभिभावकीय देखभाल के कारण ही माता-पिता स्वाभाविक रूप से अपने बच्चों की देखभाल करते हैं। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि यह गलत धारणा है कि बड़े लोग जीवन को बच्चों से बेहतर जानते हैं । इस बात में कोई दो राय नहीं है कि अधिकतर अधिक उम्र के लोग बच्चों की तुलना में बेहतर जानते हैं, लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हम बच्चों की बात नहीं सुनें। वैज्ञानिकों का कहना है माता-पिता को उसकी असफलता का भय होता है। माता-पिता न तो साहसी बनने के लिए तैयार होते हैं और न ही अपने बच्चों को ऐसा करने देते हैं। दृष्टान्त: मान लें कि सचिन तेंदुलकर को अगर मजबूर किया जाता या उन्होंने क्रिकेट खेलने के बजाय पढ़ाई और कमाई का रास्ता चुना होता तो वे कहाँ पहुँचते! शायद नहीं।
यह कहना मुश्किल है कि कितने माता-पिता अपने बच्चों की बात सुनते हैं, क्योंकि यह काफी व्यक्तिगत है और माता-पिता के दृष्टिकोण, बच्चे की उम्र और विकास स्तर और कई अन्य कारकों पर निर्भर करता है। लेकिन बच्चों की बात सुनना माता-पिता के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह बच्चों को सुरक्षित, सम्मानित और समझदार महसूस कराता है। यह भी ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि “बात सुनना” का अर्थ केवल बच्चों के शब्दों को सुनना नहीं है, बल्कि उनकी भावनाओं और दृष्टिकोण को भी समझने से है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि ‘माता-पिता को बच्चों की बात सुनने के लिए धैर्य, सहानुभूति और समय की आवश्यकता होती है। कुछ माता-पिता के लिए, बच्चों की बात सुनना मुश्किल हो सकता है, खासकर जब बच्चे कुछ ऐसा कह रहे हों जिससे माता-पिता असहमत हों या जो माता-पिता की राय से अलग हो। बच्चों की बात सुनना माता-पिता के लिए एक महत्वपूर्ण कौशल है, जो बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण के लिए महत्वपूर्ण है। यह माता-पिता और बच्चों के बीच संबंध को मजबूत करने में भी मदद करता है।’
इसी तरह, बच्चों से बात करना बेहद जरुरी है। अपने बच्चे से बात करने के लिए समय का चुनाव अवश्य करें। यह सुनिश्चित करें कि यह एक दैनिक अभ्यास हो ताकि यह आपके रिश्ते के लिए लगभग दूसरा स्वभाव बन जाए। अगर आपका बच्चा किसी काम के बीच में आपके पास आता है, तो आप जो कर रहे हैं उसे रोक दें, उनकी तरफ मुड़ें, उसकी बात सुनें । अपने हाथ में मौजूद किसी भी डिवाइस को नीचे रखना, उसके तरफ मुड़ना भी आपके बच्चे को यह दर्शाता है कि आप अपने पूरे ध्यान से उनके साथ जुड़ने के लिए सज्ज हैं।

जब आपका बच्चा आपसे बात करता है, तो चिंतनशील भाषा का उपयोग करना सुनिश्चित करें, जो कि आप जो देखते हैं उसे स्पष्ट करने के लिए अस्थायी कथनों का उपयोग है, यह दिखाने का एक तरीका है कि आप सक्रिय रूप से उनकी बात सुन रहे हैं। जब आपका बच्चा मदद के लिए आपके पास आए तो उसकी आलोचना न करें। कभी-कभी बच्चे गलतियाँ करते हैं और गलत निर्णय लेते हैं, लेकिन जब माता-पिता बातचीत की शुरुआत में ही आलोचना करते हैं, तो इससे आपका बच्चा मदद के लिए आपके पास आने से पहले दो बार सोचेगा। पूरी कहानी सुनना और फिर सभी तथ्य साझा करने के बाद अपनी प्रतिक्रिया देना सबसे अच्छा है।
वैसे आज के परिवेश में कुछ माता-पिता के लिए बच्चे को व्याख्यान देना एक आदत बन सकती है, क्योंकि बच्चों को यह बताने की स्वाभाविक इच्छा होती है कि उन्होंने कहाँ गलती की या भविष्य में वे क्या बेहतर कर सकते हैं। हालाँकि व्याख्यान कभी-कभी उपयोगी होते हैं, लेकिन यह भी महत्वपूर्ण है कि आप अपने बच्चे को यह समय दें कि वह पहले अपने विचार व्यक्त कर सके, इससे पहले कि उसे यह बताया जाए कि उसने क्या गलत किया है, भले ही आप उसके लिए अच्छा ही क्यों न कह रहे हों।
मनोवैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि अपने बच्चे की बात सुनना सबसे अच्छी चीजों में से एक है जो आप एक अभिभावक के रूप में उनके शारीरिक और मानसिक विकास में मदद करने के लिए कर सकते हैं। अगर उनके माता-पिता सक्रिय श्रोता नहीं हैं तो बच्चों को कई नकारात्मक प्रभावों का सामना करना पड़ सकता है। जब बच्चों को एहसास होता है कि उनकी बात सुनी जा रही है, तो वे अपने माता-पिता द्वारा प्राथमिकता महसूस करना शुरू कर देंगे। यह भावना उनके स्वस्थ आत्म-सम्मान को बढ़ाती है और उनके आत्म-सम्मान को बढ़ाती है।
वैभव सूर्यवंशी का इस उत्कर्ष पर पहुंचा माता-पिता, परिवार के अन्य सदस्यों, सगे-सम्बन्धियों, समाज के लोगों की सोच (सकारात्मक भी हो सकता है और नकारात्मक भी) के कारण तो है ही, पिता का ज़िद और मंजिल पर पहुँचने की ताकत को मजबूत बनाया।
क्रमशः