‘अजीब दास्तां है ये, कहाँ शुरू कहाँ ख़तम’ : जब लता मंगेशकर ‘इतिहास रच’ रहीं थी, नरेंद्र मोदी जी इतिहास रचने हेतु ‘सज्ज’ हो रहे थे, साल था सन 1960

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी मुंबई में प्रथम लता दीनानाथ मंगेशकर पुरस्कार समारोह में

मुंबई: जिस दिन स्वर कोकिला लता मंगेशकर “अजीव दास्ताँ है ये, कहाँ शुरू कहाँ ख़तम, ये मंजिले हैं कौन सी, न तू समझ सके न हम” गीत गा कर भारतीय संगीत की दुनिया में इतिहास रचना प्रारम्भ की थीं, भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी महज दस वर्ष के थे और गुजरात की आयु कुछ सप्ताह की ही थी। यानी महाराष्ट्र से गुजरात कुछ सप्ताह पूर्व ही अलग हुआ था, एक स्वतंत्र राज्य के रूप में अपना अस्तित्व प्राप्त किया था । तभी तो विगत दिनों वाणी परंपरा के पुनीत आयोजन के अवसर पर जब नरेंद्र मोदी कहे कि वे उस आयोजन में अपने आप को बहुत उपयुक्‍त अनुभव नहीं कर रहे हैं, सत्य अपने पराकाष्ठा पर था । उनका कहना था कि संगीत जैसे गहन विषय का जानकार तो वे बिल्कुल नहीं हैं, लेकिन सांस्कृतिक बोध से वे ये महसूस करते हैं कि कि संगीत एक साधना भी है, और भावना भी है। जो अव्यक्त को व्यक्त कर दे – वो शब्द है। जो व्यक्त में ऊर्जा का, चेतना का संचार कर दे – वो नाद है। और जो चेतन में भाव और भावना भर दे, उसे सृष्टि और संवेदना की पराकाष्ठा तक पहुंचा दे – वो संगीत है। 

नरेंद्र मोदी का यह कहना बहुत स्वाभाविक था। जिस व्यक्ति के नाम पर यह पुरस्कार दिया जाने वाला था वह अपने जीवन के लगभग तीस वसंत को देखकर संगीत की दुनिया में इतिहास रचना प्रारम्भ कर दी थी। साठ के दशक में जब लता मंगेशकर संगीत के माध्यम से भारत में अनेकता में एकता का नारा बुलंद कर रही थी, नरेंद्र मोदी महज दस वर्ष के थे और महाराष्ट्र से गुजरात को अलग होने का पहला माह भी पूरा नहीं हुआ था। पहली मई, श्रमिक दिवस के दिन ही तो महाराष्ट्र से अलग होकर गुजरात बना था और लता मंगेशकर ‘महाराष्ट्र’ को हो गई और मोदी जी गुजरात के दस वर्षीय बालक।

साल था सं 1960 और उन दिनों दिल अपना और प्रीत पराई फिल्म (1960) में लता जी के बेमिशाल गीत ‘अजीब दास्तां है ये, कहाँ शुरू कहाँ ख़तम, ये मंजिलें हैं कौन सी, न तू समझ सके न हम’;  तेरे घर के सामने फिल्म (1963) में ‘तेरे घर के सामने एक घर बनाऊंगा …तेरे घर के सामने; “देखो रूठा न करो मेरी जान मेरी जान निकल जाती है’; संगम (1964) फिल्म में ‘हर दिल जो प्यार करेगा वो गाना गायेगा”, गाईड फिल्म में ‘आज फिर जीने की तमन्ना है’, ‘पिता तोसे नैना लागे रे’, गीत गा कर न केवल भारतीय फिल्म जगत में इतिहास रच रही थी, वहीँ नरेंद्र मोदी जी उन गीतों को गुनगुनाकर क्रमशः बड़े हो रहे थे भारत के राजनीतिक मानचित्र पर एक इतिहास रचने के लिए। 

तभी तो नरेंद्र मोदी कहते हैं कि “आप निःस्पृह बैठे हों, लेकिन संगीत का एक स्वर आपकी आँखों से आँसू की धारा बहा सकता है, ये सामर्थ्‍य होता है। लेकिन संगीत का स्वर आपको वैराग्य का बोध करा सकता है। संगीत से आप में वीर रस भरता है। संगीत मातृत्व और ममता की अनुभूति करवा सकता है। संगीत आपको राष्ट्रभक्ति और कर्तव्यबोध के शिखर पर पहुंचा सकता है। हम सब सौभाग्यशाली हैं कि हमने संगीत की इस सामर्थ्य को, इस शक्ति को लता दीदी के रूप में साक्षात् देखा है। हमें अपनी आँखों से उनके दर्शन करने का सौभाग्य मिला है और मंगेशकर परिवार, पीढ़ी दर पीढ़ी इस यज्ञ में अपनी आहूति देता रहा है और मेरे लिए तो ये अनुभव और भी कहीं बढ़कर रहा है।”

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मोदी जी आगे कहते हैं: “अभी कुछ सुर्खियां हरीश जी ने बता दी, लेकिन मैं सोच रहा था कि दीदी से मेरा नाता कब से कितना पुराना है। दूर जाते-जाते याद आ रहा था कि शायद चार साढ़े चार दशक हुए होंगे, सुधीर फड़के जी ने मुझे परिचय करवाया था। और तब से लेकर के आज तक इस परिवार के साथ अपार स्‍नेह, अनगिनत घटनाएं मेरे जीवन का हिस्‍सा बन गईं। मेरे लिए लता दीदी सुर साम्राज्ञी के साथ-साथ और जिसको कहते हुए मुझे गर्व अनुभव होता है, वो मेरी बड़ी बहन थीं। पीढ़ियों को प्रेम और भावना का उपहार देने वाली लता दीदी उन्‍होंने तो मुझे हमेशा उनकी तरफ से एक बड़ी बहन जैसा अपार प्रेम मिला है, मैं समझता हूं इससे बड़ा जीवन सौभाग्य क्या हो सकता है।”

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी मुंबई में प्रथम लता दीनानाथ मंगेशकर पुरस्कार समारोह में

“शायद बहुत दशकों के बाद ये पहला राखी का त्‍यौहार जब आएगा, दीदी नहीं होंगी। सामान्य तौर पर, किसी सम्मान समारोह में जाने का, और जब अभी हरीश जी भी बता रहे थे, कोई सम्मान ग्रहण करना, अब मैं थोड़ा उन विषयों में दूर ही रहा हूं, मैं अपने आप को समायोजित नहीं कर पाता हूं। लेकिन, पुरस्कार जब लता दीदी जैसी बड़ी बहन के नाम से हो, तो ये मेरे लिए उनके अपनत्व और मंगेशकर परिवार का मुझ पर जो हक है, उसके कारण मेरा यहां आना एक प्रकार से मेरा दायित्‍व बन जाता है। और ये उस प्‍यार का प्रतीक है और जब आदिनाथ जी का संदेश आया, मैंने मेरे क्या कार्यक्रम है, मैं कितना व्यस्त हूं, कुछ पूछा नहीं, मैंने कहा भईया पहले हां कर दो। मना करना मेरे लिए मुमकिन ही नहीं है जी! मैं इस पुरस्कार को सभी देशवासियों के लिए समर्पित करता हूँ। जिस तरह लता दीदी जन-जन की थीं, उसी तरह उनके नाम से मुझे दिया गया ये पुरस्कार भी जन-जन का है।”

नरेंद्र मोदी आगे कहते हैं: “लता दीदी से अक्सर मेरी बातचीत होती रहती थी। वो खुद से भी अपने संदेश और आशीर्वाद भेजती रहती थीं। उनकी एक बात शायद हम सबको काम आ सकती है जिसे मैं भूल नहीं सकता, मैं उनका बहुत आदर करता था, लेकिन वो क्‍या कहती थीं, वो हमेशा कहती थीं- “मनुष्य अपनी उम्र से नहीं, अपने कार्य से बड़ा होता है। जो देश के लिए जितना करे, वो उतना ही बड़ा है”। सफलता के शिखर पर ऐसी सोच से व्यक्ति की महानता, उसका हमें अहसास होता है। लता दीदी उम्र से भी बड़ी थीं, और कर्म से भी बड़ी थीं।”

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लता दीदी सरलता की प्रतिमूर्ति थीं। लता दीदी ने संगीत में वो स्थान हासिल किया कि लोग उन्हें माँ सरस्वती का प्रतिरूप मानते थे। उनकी आवाज़ ने करीब 80 सालों तक संगीत जगत पर अपनी छाप छोड़ी थी। ग्रामोफोन से शुरू करें, तो ग्रामोफोन से कैसेट, फिर सीडी, फिर डीवीडी, और फिर पेनड्राइव, ऑनलाइन म्यूजिक और एप्स तक, संगीत और दुनिया की कितनी बड़ी यात्रा लता जी के साथ-साथ तय हुई है। सिनेमा की 4-5 पीढ़ियों को उन्होंने अपनी आवाज़ दी। भारत रत्न जैसा सर्वोच्च सम्मान उन्हें देश ने दिया और देश गौरवान्वित हुआ। पूरा विश्व उन्हें सुर साम्राज्ञी मानता था। लेकिन वो खुद को सुरों की साम्राज्ञी नहीं, बल्कि साधिका मानती थीं। और ये हमने कितने ही लोगों से सुना है कि वो जब भी किसी गाने की रिकॉर्डिंग के लिए जाती थीं, तो चप्पलें बाहर उतार देती थीं। संगीत की साधना और ईश्वर की साधना उनके लिए एक ही था।

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी मुंबई में प्रथम लता दीनानाथ मंगेशकर पुरस्कार समारोह में

आदिशंकर के अद्वैत के सिद्धांत को हम लोग सुनने समझने की कोशिश करें तो कभी-कभी उलझन में भी पड़ जाते हैं। लेकिन मैं जब आदिशंकर के अद्वैत के सिद्धांत की तरफ सोचने की कोशिश करता हूं तो अगर उसको सरल शब्दों में मुझे कहना है उस अद्वैत के सिद्धांत को ईश्वर का उच्चारण भी स्वर के बिना अधूरा है। ईश्वर में स्वर सम्माहित है। जहां स्वर है, वहीं पूर्णता है। संगीत हमारे हृदय पर, हमारे अंतर्मन पर असर डालता है। अगर उसका उद्गम लता जी जैसा पवित्र हो, तो वो पवित्रता और भाव भी उस संगीत में घुल जाते हैं। उनके व्यक्तित्व का ये हिस्सा हम सबके लिए, और ख़ासकर युवा पीढ़ी के लिए एक प्रेरणा है।

नरेंद्र मोदी का कहना था कि लता जी की सशरीर यात्रा एक ऐसे समय में पूरी हुई, जब हमारा देश अपनी आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। उन्होंने आज़ादी के पहले से भारत को आवाज़ दी, और इन 75 सालों की देश की यात्रा उनके सुरों से जुड़ी रही। इस पुरस्कार से लताजी के पिताजी दीनानाथ मंगेशकर जी का नाम भी जुड़ा है। मंगेशकर परिवार का देश के लिए जो योगदान रहा है, उसके लिए हम सभी देशवासी उनके ऋणी हैं। संगीत के साथ-साथ राष्ट्रभक्ति की जो चेतना लता दीदी के भीतर थी, उसका स्रोत उनके पिताजी ही थे। आज़ादी की लड़ाई के दौरान शिमला में ब्रिटिश वायसराय के कार्यक्रम में दीनानाथ जी ने वीर सावरकर का लिखा गीत गया था। ब्रिटिश वायसराय के सामने, ये दीनानाथ जी ही कर सकते हैं और संगीत में ही कर सकते हैं। और उसकी थीम पर प्रदर्शन भी किया था और वीर सावरकर जी ने ये गीत अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती देते हुये लिखा था। ये साहस, ये देशभक्ति, दीनानाथ जी ने अपने परिवार को विरासत में दी थी। 

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लता जी ने संभवत: कहीं एक बार बताया था कि पहले वो समाजसेवा के ही क्षेत्र में जाना चाहती थीं। लता जी ने संगीत को अपनी आराधना बनाया, लेकिन राष्ट्र प्रेम और राष्ट्रसेवा उनके गीतों के जरिए भी प्रेरणा पाती गई। छत्रपति शिवाजी महाराज पर वीर सावरकर जी का लिखा गीत- ‘हिन्दू नरसिंहा’ हो, या समर्थ गुरु रामदास जी के पद हों! लता जी ने शिवकल्याण राजा की रिकॉर्डिंग के जरिए उन्हें अमर कर दिया है। “ऐ मेरे वतन के लोगों” और “जय हिंद की सेना” ये भाव पंक्‍तियां हैं, जो देश के जन-जन की जुबां पर अमर कर गईं हैं। उनके जीवन से जुड़े ऐसे कितने ही पक्ष हैं! लता दीदी और उनके परिवार के योगदान को भी अमृत महोत्सव में हम जन-जन तक लेकर जाएँ, ये हमारा कर्तव्य है।

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी मुंबई में प्रथम लता दीनानाथ मंगेशकर पुरस्कार समारोह में

आज देश ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ रहा है। लता जी ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ की मधुर प्रस्तुति की तरह थीं। उन्होंने देश की 30 से ज्यादा भाषाओं में हजारों गीत गाये। हिन्दी हो मराठी, संस्कृत हो या दूसरी भारतीय भाषाएँ, लता जी का स्वर वैसा ही हर भाषा में घुला हुआ है। वो हर राज्य, हर क्षेत्र में लोगों के मन में समाई हुई हैं। भारतीयता के साथ संगीत कैसे अमर हो सकता है, ये उन्होंने जी करके दिखाया है। उन्होंने भगवद्गीता का भी सस्वर पाठ किया, और तुलसी, मीरा, संत ज्ञानेश्वर और नरसी मेहता के गीतों को भी समाज के मन-मस्तिष्क में घोला। रामचरित मानस की चौपाइयों से लेकर बापू के प्रिय भजन ‘वैष्णवजन तो तेरे कहिए’, तक सब कुछ लताजी की आवाज़ से पुनर्जीवित हो गए। उन्होंने तिरुपति देवस्थानम के लिए गीतों और मंत्रो का एक सेट रिकॉर्ड किया था, जो आज भी हर सुबह वहाँ बजता है। यानी, संस्कृति से लेकर आस्था तक, पूरब से लेकर पश्चिम तक, उत्तर से दक्षिण तक, लता जी के सुरों ने पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने का काम किया है। दुनिया में भी, वो हमारे भारत की सांस्कृतिक राजदूत थीं। वैसा ही उनका व्यक्तिगत जीवन भी था।

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