श्रीमती द्वितीया दाई का जाना मिथिला समाज के लिए दुखद है 😢 आपको नमन 🙏

आपको अन्तःमन से नमन श्रीमती द्वितीया दाई जी

पटना : महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की अपनी सगी बहन श्रीमती लक्ष्मी बौआसिन-श्री ओझा मुकुंद झा के एकमात्र पुत्र श्री कन्हैया जी-श्रीमती कृष्णलता बौआसिन की पुत्री श्रीमती द्वितीया दाई कल अंतिम सांस ले ली। वे विगत कुछ दिनों से बीमार थीं। चिकित्सकों के अनुसार, उनके शरीर के कई अंग कार्य करना बंद कर दिया था। 78-वर्षीय श्रीमती द्वितीया दाई के पार्थिव शरीर का पटना के दीघा घाट पर गंगा की अविरल धाराओं को साक्षी मानकर अंतिम संस्कार किया गया। वे अपने पीछे अपने पति कृष्णानंद झा, दो पुत्र समीर झा और सुमित झा के अलावे भरा-पूरा परिवार छोड़कर गयीं। 

श्रीमती द्वितीया दाई का जाना पटना स्थित मिथिला समाज ही नहीं, बल्कि मिथिलांचल के शिक्षित, विद्वान-विदुषियों के परिवारों के लिए कष्टदायक है। श्रीमती द्वितीया दाई को मैं निजी तौर पर अपने जीवन के प्रारंभिक वर्षों से जानता हूँ। करीब चार वर्ष पहले श्रीमती द्वितीया दाई जब आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम वेबसाइट के बारे में सुनी, वेबसाइट पर प्रकाशित शब्दों को पढ़ीं थी, तो एक दिन अचानक फोन कर पूछीं कि क्या इस वेबसाइट का निर्माण आप किये हैं? इसे आप चला रहे हैं? कुछ पल मैं निशब्द रहा, फिर लम्बी सांस लेते कहा ‘जी’। 

मेरे मुख से ‘स्वीकारात्मक’ शब्द सुनकर श्रीमती द्वितीया दाई कुछ पल के लिए शांत हो गयीं, फिर कहती हैं: “आपको महाराजाधिराज ही नहीं, दरभंगा राज के सभी सम्मानित आत्माओं का आशीर्वाद है। दरभंगा राज ही नहीं, बल्कि मिथिला भूमि पर शायद एकमात्र आप ही हुए जो इस गरिमा को पुनःजीवित किये। अपने पिता महाराजा रामेश्वर सिंह के सम्मानार्थ उनके पुत्र महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह जिन दो अख़बारों को इंडियन नेशन (1930) और आर्यावर्त (1940) स्थापित कर प्रदेश के लोगों की आवाज के साथ, रोजी-रोटी का भी बंदोबस्त किए, आप अख़बारों के नाम को जीवित कर उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दिए हैं। मैं बीच-बीच में अस्वस्थ हो जाती हूँ और श्री कृष्णानंद जी (पति) भी अस्वस्थ रहते हैं, तथापि मैं जरूर चाहूंगी की आपके इस अदम्य साहस और कार्य में हम भागीदारी अर्पित कर सकें।” मैं उनकी बातों को अन्तःमन से सुन रहा था। 

श्रीमती द्वितीय दाई कहती हैं ‘वेबसाइट पर पिछले कुछ दिनों से दरभंगा राज से सम्बंधित एक श्रृंखला प्रकाशित हो रहा है। मैं उसे बहुत ही तन्मयता से पढ़ती हूँ। पढ़ने के क्रम में मैं यह महसूस की कि इसको लिखने वाला कोई दक्ष व्यक्ति ही होगा । जिस नाम से यह प्रकाशित होता है उस नाम को मैं नहीं जानती थी। मैं तो आपको आपके घर के नाम से जानती हूँ। लेकिन दरभंगा से ही जब एक व्यक्ति इस बात को स्पष्ट किये कि आप ही लेखक हैं, मेरी आँखों के सामने आपके पिताजी और आपकी माँ दोनों सामने दिखने लगे। उनका संस्कार दिखने लगा। सम्बन्ध में आप बड़े हैं, मैं आपको आशीर्वाद नहीं दे सकती, लेकिन उम्र में मैं बड़ी हूँ, अतः मेरा आशीष और शुभकामना है आपको। आप जब भी पटना आएं, घर जरूर आएं।” 

चार वर्ष बाद आज, मैं नहीं जानता था कि जिन अख़बारों के नाम पर यह वेबसाइट है, जिन अख़बारों की स्थापना, निर्माण, पालन-पोषण में श्रीमती द्वितीया दाई के परिवार और परिजनों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिए थे, उन्हीं अख़बारों के नाम को पुनर्जीवित करने वाला इस वेबसाइट पर उनकी मृत्योपरांत मैं मृत्युलेख लिखूंगा।  भारत रत्न शहनाई उस्ताद बिस्मिल्लाह खान इनकी शादी में शहनाई से मंगल गान गाये थे, ये सभी शब्द आपको समर्पित है श्रीमती द्वितीया दाई जी। आपका मेरे जीवन के प्रारंभिक वर्षों में बहुत उपकार है। मैं शब्दों से आपको श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। 

चार वर्ष पूर्व श्रीमती द्वितीय दाई  से उनके जीवन काल में उन लोगों की पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भ्रमण-सम्मेलन के बारे में पूछा था । उसने यह भी पूछा था कि उन्होंने महाराजाधिराज के जीवन काल में मिथिला को, दरभंगा को, उनके राजपाट को बहुत करीब से देखी हैं, चश्मदीद गवाह हैं; फिर ऐसा क्या और क्यों हुआ कि आज दरभंगा राज का यह हश्र हुआ ? उनसे दरभंगा राज के तत्कालीन व्यवस्था के अधीन महिलाओं की शिक्षा-दीक्षा के बारे में भी पूछा था । यह भी पूछा था कि अगर महाराजा संतानहीन नहीं होते तो क्या दरभंगा राज की स्थिति जो आज है, वैसी ही होती? उनसे यह भी पूछा कि राजा बहादुर विश्वेश्वर सिंह के तीन-तीन बेटे हुए, सम्बन्ध में भाई-बहन थे आप सभी, फिर ऐसा क्या हुआ कि महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद दरभंगा राज बहुत तेजी के साथ पतन की ओर अग्रसर हो गया ? कल तक मिथिला ही नहीं, बिहार ही नहीं, भारत ही नहीं बल्कि विश्व-पटल पर अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखने वाले दरभंगा राज को आज की पीढ़ियां नहीं पहचान रहीं हैं? 

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आपको अन्तःमन से नमन श्रीमती द्वितीया दाई जी

मेरी बातों को श्रीमती द्वितीया दाई बहुत ही एकाग्रचित होकर साथ सुन रही थी। फिर लम्बी उच्छ्वास लेते अपनी अश्रुपूरित आँखों से दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हुए कहती है: “अगर महाराज साहेब आज जीवित होते तो शायद दरभंगा राज की यह स्थिति नहीं होती ….. और फिर कुछ क्षण के लिए शांत हो गयीं।” उनके अनुसार अपने बाल्यकाल में, अपने भाइयों, सगे-सम्बन्धियों के साथ उन्होंने जो दरभंगा राज की गरिमा, प्रतिष्ठा को देखी थी। महाराजाधिराज का पारिवारिक और सामाजिक प्रतिबद्धता, समाज के लोगों के लिए बहुत कुछ करने की उत्कंठा ताकि सबों के चेहरों पर मुस्कान रहे, यह भी महसूस की थी। महाराज का अपने प्रदेश के लिए जो आर्थिक सुदृढ़ता वाली दृश्टिकोण थी, उनमें जो दानशीलता की भावना थी; आज के समय में लोग सोच नहीं सकते हैं। अपनी आँचल से अपनी आखों के निचले हिस्से को पोछती फिर कहती हैं : “आज हम यह नहीं कह सकते कि जो स्थिति आज से सत्तर-अस्सी साल पहले थी दरभंगा राज की, वह स्थिति आज भी होती अगर महाराजाधिराज जीवित भी होते। वजह यह है कि तत्कालीन समाज की, लोगों की, व्यवस्था की, व्यवस्था में लगे अधिकारियों की, विद्वानों की, विदुषियों की, यानी समाज के सभी तबके के लोगों की जो सोच थी; जो समर्पण महाराजा के प्रति था, वही आज भी रहता। ऐसा कभी नहीं हो सकता है। समय और वातावरण में परिवर्तन के साथ लोगों की सोच में, उनके व्यवहार में भी परिवर्तन आना स्वाभाविक है।

श्रीमती द्वितीया दाई फिर कहीं : “मैं जन्म से लेकर महाराजाधिराज की मृत्यु तक उन्हें देखी हूँ। उनका स्नेह, उनका प्यार, उनका सम्मान हम सबों को मिला। महाराजा साहेब का अपने छोटे भाई, यानी राजा बहादुर साहेब के लिए, बहन के लिए प्रेम, स्नेह पराकाष्ठा पर था। जब भी दरभंगा में होते थे, खाली समय होता था, वे कभी भी अपने भाई को, अपनी बहन को अपनी आखों से ओझल नहीं होने देते थे। कई बार महाराज साहेब अपनी इकलौती बहन के सामने बहुत ही विनम्रता के साथ खड़े होकर, स्नेह के साथ अन्तःमन से कहते थे “अगर तुम बेटा होती तो दरभंगा की राजा (रानी) तुम्हीं होती……यह बोलते-बोलते उनका कंठ अवरुद्ध हो जाता था। उनकी आँखें नम हो जाती थी। फिर .. हे महादेव !! कहते चुप हो जाते थे।” बचपन में या युवती होने तक भी ‘राजा’ महाराजा’ शब्द से, इस शब्द का सामाजिक सम्मान और प्रतिष्ठा से बहुत परिचित नहीं थी, लेकिन आज जब महाराजा साहेब की बातें याद आती है तो वे ‘साक्षात्’ खड़े दीखते हैं। कभी अपने सम्पूर्ण राजशाही पोशाकों में तो कभी महज धोती और सिलाई वाला कुर्ता में, गोल गला, दूध से भी अधिक सफ़ेद। उन्हें अपनी माता से बहुत प्यार था।

वे आगे कही थी कि “महाराजा साहेब की दानशीलता कौन नहीं जानता। कितनी किताबें लिखी जा चुकी है महाराजाधिराज पर। देश विदेश के लोग, विद्वान, लेखक उनपर शोध किये, पुस्तकें लिखे। महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह की मृत्यु के बाद मिथिला की भूमि पर विगत छः दशक अथवा उसके पूर्व दानवीर कर्ण जैसा मनुष्य कभी पैदा नहीं लिया। वर्तमान स्थिति को देखकर यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि अगर महाराजाधिराज जीवित होते तो भी दरभंगा राज का पतन “ऐसे” नहीं हुआ होता। देश आज़ाद हो गया था। परिस्थिति और परिवेश बदल गयी थी । लोग और उनकी सोच बदल रहे थे। समय बदल रहा था। लेकिन दरभंगा राज की जो आज स्थिति है, आज उसकी गरिमा की जो स्थिति है, दरभंगा राज के प्रति लोगों की जो सोच बन गयी है; ऐसी स्थिति कदापि नहीं होती। हां, उतार-चढ़ाव जीवन और प्रकृति का नियम है और हम-आप कोई भी प्रकृति के नियमों के विरुद्ध नहीं जा सकते। लेकिन आज जो स्थिति देखती हूँ, मन भर जाता है। किसे दोषी कहा जाये, किसे निर्दोष करार किया जाय यह कहना अत्यंत कठिन है। जो देखी थी, आज सपना लग रहा है। आज भी तरह-तरह की तस्वीरें मानस-पटल पर विचरण करती हैं। कभी स्मरण कर अपने आप हंसी आ जाती है, कभी आखें भर आती है…….”

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श्रीमती द्वितीया दाई जब सात-आठ साल की थी, तब तक अपने माता-पिता के साथ दरभंगा में ही रहती थी। उनके जैसा दरभंगा राज किला के अंदर अनेक बच्चे थे। महाराज साहेब की नजर में लगभग सभी बच्चे समान थे। कहा जाता है कि महाराजा साहेब से पहले भी, यानी महाराजा रामेश्वर सिंह और उनके बड़े भाई महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह का भारतीय समाजों में योगदान, उनकी दानशीलता, उनकी मानवीयता और शैक्षिक विकास के लिए किये गए उपाय “स्वर्णाक्षरों” में उल्लिखित है। लेकिन सबसे बड़ी बिडम्बना यह है कि चार-दीवारी के अंदर रहने वाली महिलाएं, बच्चियां शिक्षा के लिए तरस गई। इस बात को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है कि उन दिनों मिथिला में ‘पर्दा-प्रथा’, या फिर ‘महिलाओं में शिक्षा बोध या शिक्षा की आवश्यता को उतना तबज्जो नहीं दिया गया। परिणाम यह हुआ कि शिक्षा के अभाव में उनकी सोच विकसित नहीं हो पाई। शिक्षा के विषय पर श्रीमती द्वितीया बौआसीन की भी वही स्थिति दिखी, जो दरभंगा के लाल किले के अंदर रहने वाली महिलाओं, बच्चियों की उन दिनों स्थिति थी। “सभी सुख-सुविधाएँ थी, बस शिक्षा का माहौल नहीं था, महिलाओं के लिए…… आज सोच कर मन दुखी हो जाता है।”

शिक्षा के क्षेत्र में दरभंगा राज का योगदान अतुलनीय है। दरभंगा नरेशों ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, कलकत्ता विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा मेडिकल कॉलेज एवं हॉस्पिटल, ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और कई संस्थानों को काफी दान दिया। महाराजा रामेश्वर सिंह बहादुर पंडित मदनमोहन मालवीय के बहुत बड़े समर्थक थे और उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को 5,000,000 रुपये कोष के लिए दिए थे। महाराजा रामेश्वर सिंह ने पटना स्थित दरभंगा हाउस (नवलखा पैलेस) पटना विश्वविद्यालय को दे दिया था। सन् 1920 में उन्होंने पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल के लिए 500,000 रुपये देने वाले सबसे बड़े दानदाता थे। उन्होंने आनन्द बाग पैलेस और उससे लगे अन्य महल कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय को दे दिए। कलकत्ता विश्वविद्यालय के ग्रंथालय के लिए भी उन्होंने काफी धन दिया। ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय को राज दरभंगा से 70,935 किताबें मिलीं।स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में काफी योगदान किया। परन्तु आज की पीढ़ी को इस बात की पीड़ा है कि महाराजाधिराज के साथ साथ, उनके भाई राजकुमार विशेश्वर सिंह भी, अपने जीवन-काल में कभी दरभंगा राज के चहारदीवारी के अंदर रहने वाले अपने सम्बन्धियों को, लोगों को, बच्चों को, महिलाओं को समाज की मुख्यधारा में जुड़ने, जीवन में व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने, शिक्षित होने के अवसर से वंचित रहे।

कई दशक पहले – श्रीमती द्वितीया दाई और उनके पति श्री कृष्णानंद झा

श्रीमती द्वितीया दाई कही थीं कि “सं 1950 के दशक के उत्तरार्ध, महाराजाधिराज के कहने पर माँ-बाबूजी के साथ सभी इलाहाबाद आ गए। इलाहाबाद अपने आप में शिक्षा के लिए विख्यात उन दिनों भी था, आज भी है। लेकिन इलाहाबाद आने पर भी दरभंगा राज से जुड़ी महिलाओं के लिए शिक्षा के मामले में कोई बदलाब नहीं आया। तत्कालीन समाज के प्रचलित नियम समाज के सभी तबके के लोगों को जकड़े था। महिला शिक्षा देश के अन्य भागों अंकुरित और पुष्पित भी हो रहा था; परन्तु हम बच्चियों को शिक्षित होने, शिक्षित करने के बारे में कोई सोच नहीं रहा था। समय बीत रहा था और हम बच्चियां बड़ी हो रही थी – बिना शिक्षा के, महिलाएं अशिक्षित की अशिक्षित रह गयीं।“जब तक महाराजाधिराज जीवित थे, छुट्टी के दिनों में भाई-बहन अपने माता-पिता के साथ वहीँ जाते थे, जहाँ महाराज साहेब जाते थे, रहते थे । लेकिन उनकी मृत्यु के साथ ही जैसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड बिखर गया। समस्त आशाएं टूट गयी। ऐसा लगा जैसे संबंधों की कड़ी भी टूट गयी हो। हां, महाराजा साहेब की मृत्यु के बाद भी कई वर्षों तक बड़ी महारानी थीं। उनके साथ हम लोगों का सम्बन्ध जो महाराजा साहेब के समय था, वह महाराजा साहेब के जाने के बाद भी रहा। मझली महारानी बहुत अल्प आयु में ही मृत्यु को प्राप्त की और जो छोटी महारानी कामसुंदरी जी अभी जीवित हैं, उनसे हम लोगों का बहुत घनिष्ट लगाव न पहले था, और न महाराज की मृत्यु के बाद। महाराजा साहेब की मृत्यु के बाद जैसे दरभंगा राज की बुनियाद ही समाप्त हो गई।

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महाराजा साहब को कोई संतान नहीं था। राजा बहादुर के तीन बेटे थे – राजकुमार जीवेश्वर सिंह, फिर थे राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह और सबसे छोटे थे राजकुमार शुभेश्वर सिंह। महाराजाधिराज की मृत्यु के समय सिर्फ राजकुमार जीवेश्वर सिंह का ही विवाह हुआ था और उनकी पत्नी थी श्रीमती राजकिशोरी जी। शेष दो भाई – राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह नाबालिग थे। राजकुमार जीवेश्वर सिंह अपनी प्रथम पत्नी श्रीमती राजकिशोरी जी के रहते हुए भी, दूसरी शादी भी किए। कुमार जीवेश्वर सिंह के प्रथम पत्नी से दो बेटियां – कात्यायनी देवी और दिब्यायनी देवी हुई और दूसरी पत्नी से पांच बेटियां – नेत्रायणी देवी, चेतना, द्रौपदी, अनीता, सुनीता – हुई । राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह, जो राजा बहादुर विशेश्वर सिंह के मझले बेटे थे, को तीन बेटे हुए – कुमार रत्नेश्वर सिंह, कुमार रश्मेश्वर सिंह और कुमार राजनेश्वर सिंह। इसमें कुमार रश्मेश्वर सिंह की अकाल मृत्यु हो गई थी। जबकि राजबहादुर के सबसे छोटे पुत्र राजकुमार शुभेश्वर सिंह के दो पुत्र हुए – राजेश्वर सिंह और कपिलेश्वर सिंह। कुमार शुभेश्वर सिंह और उनकी पत्नी दोनों वर्षों पहले मृत्यु को प्राप्त किये। आज राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह और उनकी पत्नी दोनों जीवित हैं। ईश्वर उन्हें स्वस्थ और दीर्घायु रखें।

श्रीमती द्वितीया दाई के अनुसार, “राजा बहादुर के तीनों बेटों में बड़े (राजकुमार जीवेश्वर सिंह) और मझले (राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह) को सभी दृष्टिकोण से राज के क्रियाकलापों से कोई विशेष लगाव नहीं था, प्रारम्भ से ही। फिर बदलती परिस्थियाँ भी कुछ उत्तरदायी रहीं। जो सबसे छोटे थे वे “अधिक सक्रीय” रहे। आज भी उनके बच्चे अधिक सक्रिय हैं। प्रारंभिक दिनों में भी महाराजा साहेब के इर्द-गिर्द बाबा (दिवंगत ओझा मुकुंद झा) तो थे अवश्य लेकिन अधिक सक्रिय श्री गिरीन्द्र मोहन मिश्र और न्यायमूर्ति लक्ष्मी कांत झा रहे।” ज्ञातव्य हो कि महाराजा की मृत्यु के बाद ‘वसीयत’ (5 जुलाई, 1961) और फिर “प्रोबेट” के बाद न्यायमूर्ति लक्ष्मी कान्त झा ‘सोल एस्क्यूटर” (निर्णय: कलकत्ता उच्च न्यायालय दिनांक 26 सितम्बर, 1963) बने। उसी ‘वसीयत’ में महाराजा ने तीन ट्रस्टियों – पंडित लक्ष्मी कांत झा, गिरीन्द्र मोहन मिश्र और श्री ओझा मुकुंद झा – का नाम लिखा था जिन्हे दरभंगा राज रेसिडुअरी एस्टेट के देख-रेख का जबाबदेही सौंपा था।

महाराजा यह भी लिख कर गए थे कि “एस्क्यूटर” अपना कार्य निष्पादित करने के बाद ट्रस्ट का समस्त कार्य ट्रस्टियों को सुपुर्द कर देंगे। सं 1963 के बाद सं 1978 तक न्यायमूर्ति लक्ष्मीकांत झा के समय काल में क्या हुआ, क्या नहीं हुआ यह तो “दरभंगा राज की वर्तमान स्थिति ही गवाह” है। लक्ष्मी कांत झा की मृत्यु 3 मार्च, 1978 को हो गयी। फिर कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा दो अवकाश प्राप्त न्यायाधीशों – न्यायमूर्ति एस ए मसूद और न्यायमूर्ति शिशिर कुमार मुखर्जी – की नियुक्ति हुई दरभंडा राज के प्रशासक के रूप में। फिर ‘एसेट्स और लायबिलिटी’ का ‘इन्वेंटरी’ बना और फिर कागजात तत्कालीन ट्रस्टियों – श्री द्वारकानाथ झा, श्री मदन मोहन मिश्र और कामनाथ झा – को 26 मई, 1979 को सुपुर्द किया गया।

आपको अन्तःमन से नमन श्रीमती द्वितीया दाई जी। हमारे तरफ से, मेरे माता-पिता के तरफ से, भाई-बहनों के तरफ से, परिजनों के तरफ से, आर्यावर्तइण्डियननेशन कॉम के तरफ से, उन सभी लोगों के तरफ से जो आपको जानते थे, पहचानते थे – नमन और श्रद्धांजलि स्वीकार करें। 

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