दरभंगा / पटना : आज 30 अप्रैल है 2025 साल का। आज से 59 वर्ष 11 महीने पूर्व क्या हुआ था जो इतिहास बना। आज़ादी के बाद बिहार के चौथे लाट साहब (राज्यपाल) के रूप में डॉ. जाकिर हुसैन आये थे। उनके पूर्व जयराम दास दौलत राम, माधव श्रीहरी अन्ने, आर.आर. दिवाकर राज्यपाल बन चुके थे। प्रदेश में तत्कालीन राजाओं और जमींदारों की सम्पत्तियों पर तत्कालीन नेताओं की नजर लग गई थी। वह नजर दरभंगा राज और राज की सम्पत्तियों पर भी टिक गयी थी। महाराजाधिराज डॉ. कामेश्वर सिंह की सैकड़ों अमूल्य सम्पत्तियों, भवनों में एक भवन था लक्ष्मीश्वर-विलास, जिसपर तत्कालीन व्यवस्था के लोगों की नजर लग गयी थी ‘आधिपत्य’ जमाने हेतु।
उसी दौरान बिहार सरकार, खासकर शिक्षा विभाग की ओर से महाराजाधिराज को एक पत्र प्रेषित किया गया था। जिस लिफ़ाफ़े में महाराजाधिराज को पत्र-प्रेषित किया गया था, अथवा पत्र में सावधान किया गया था, उसमें “श्व” के स्थान पर “स्व” लिखा था। यह महाराजाधिराज को अच्छा नहीं लगा। इसलिए तत्कालीन शिक्षा मंत्री के जवाबी पत्र में उन्होंने बहुत ही “शालीनता” के साथ लिखे: “मेरे नाम का शुद्ध विवरण ‘कामेश्वर सिंह’ है न कि ‘कामेस्वर सिंह।” इसका अर्थ यह हुआ कि उस ज़माने में भी बिहार में शिक्षा और शैक्षिक स्थिति बहुत बेहतर नहीं थी। खैर।
दिनांक 30-03-1960 को बिहार के तत्कालीन शिक्षा मंत्री के नाम लिखे गए पत्र में महाराजाधिराज ने लिखा कि दरभंगा नगर में अवस्थित ‘लक्ष्मीश्वर – विलास’ नामक अपना प्रसाद उसके आस-पास की सम्बद्ध भूमि के साथ ‘संस्कृत विश्वविद्यालय’ के लिए दान स्वीकार किया है बशर्ते कि वह विश्वविद्यालय दरभंगे में स्थापित और अवस्थित किया जाय और चूँकि बिहार विधान सभा द्वारा दरभंगे में इस तरह के एक विश्वविद्यालय को स्थापित करने के लिए एक अधिनियम पारित किया जा चुका है, जिसको बिहार के राज्यपाल की स्वीकृति भी प्राप्त हो चुकी है और चूँकि बिहार राज्यपाल ने दरभंगे में इस प्रकार का एक विश्वविद्यालय अगले सत्र से स्थापित करने का प्रस्ताव किया है और चूँकि सम्बद्ध भूमि के साथ अपने उपर्युक्त भवन को दरभंगे में “संस्कृत विश्वविद्यालय के उपयोग के लिए” दान देने को इच्छुक हैं, और चूंकि दान-ग्रहीता उपर्युक्त दान को स्वीकार करने को इच्छुक हैं और चुंकि एक उचित दान पात्र लिख देना आवश्यक है, अतः यह दान-पात्र प्रमाणित करता है कि :
दरभंगा नगर में अवस्थित लक्ष्मी-वर-विलास-प्रसाद” नामक भवन, उससे सम्बद्ध भूमि जिसका सम्पूर्ण विवरण परिशिष्ट ‘ए’ में दिया गया है तथा भूमि के नक़्शे में जिसे लाल और पीले रंगों में पृथक कर दिया गया है और जिसे ‘बी’ से चिन्हित किया गया है और जो इस दान पत्र का अंग है, उसे कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय अधिनियम, 1960 के उपबंधों के अनुसार स्थापित संस्कृत विश्वविद्यालय के उपयोग के लिए डाटा इसके दान ग्रहीता को हस्तान्तरित और पत्यर्पित करते हैं।दान ग्रहीता इस दान को स्वीकार करते हैं और कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय अधिनियम, 1960 के अनुसार स्थापित संस्कृत विश्वविद्यालय के लिए दान-पत्र के द्वारा प्रदत भवन और भूमि का उपयोग करने को सहमत होते हैं।
दाता को नरगौना स्थित अपने आवासीय प्रसाद में आने जाने के मार्ग के उपयोग को अधिकार रहेगा जो मार्ग लक्ष्मीश्वर विलास-प्रसाद के सटे पूर्व से निकलता है और जिसे “बी” चिन्हित नक़्शे में पीले रामनग से पृथक दिखया गया है और उनके यातायात के अधिकार का उपयोग दाता और उनके कार्यकर्त्ता नरगौना प्रसाद में जाने-आने में कर सकते हैं। लक्ष्मीश्वर विलास प्रसाद के सटे पश्चिम में अवस्थित तलाबन के सटे दक्षिण में पश्चिम से पूर्व की ओर जाने वाली सड़क, जिसे पृथक कृत तथा बी चिन्हित नक़्शे में हरे रंग में दिखलाया गया है, विश्वविद्यालय में आने जाने वाले लोगों के उपयोग में आयेगी, किन्तु सामान्य जनता या अन्य कार्य के लिए खुली नहीं रहेगी। लक्ष्मीश्वर विलास प्रासाद के सटे पूर्व से जाने वाली सड़क पर, जहाँ दान में दी गयी भूमि का अंत होता है, दाता एक फाटक बनवा सकते हैं। जिनके प्रमाण के रूप में यह दान पात्र लिख दिया है और दान ग्रहीता ने दान स्वीकार करने के प्रमाण में अपना हस्ताक्षर कर दिया है।

बहरहाल, सन 1960 के 30 मार्च को महाराजाधिराज द्वारा पटना में स्थापित दि इण्डियन नेशन समाचार पत्र में “लक्ष्मी-वर-विलास-प्रसाद” को दान-स्वरुप देने के उपलक्ष्य में वहां उपस्थित महामानवों के सम्मुख, सर कामेश्वर सिंह अश्रुपूरित आखों से जो भाषण दिए थे, उस भाषण के शब्द कुछ ऐसे थे :
डॉ जाकिर हुसैन साहब, बिहार केसरी, महिलाओं और सज्जनों !
“जिस वस्तुओं को किसी ने अपने बाल्यकाल से ही न केवल प्यार किया हो बल्कि समादर भी किया हो, उससे अलग होना सामान्यतः दुःखद होता है, किन्तु राज्यपाल जी ने और मुख्यमंत्री महोदय ने जो संस्कृत विश्वविद्यालय का केंद्र बनाने के लिए उसे ग्रहण करने की कृपा कर, स्वयं यहां पधारने का कष्ट किया है, इससे मुझे प्रसन्नता है।
डॉ जाकिर हुसैन साहब, मैं आपका अत्यंत कृतज्ञ हूँ, जो स्वयं आपने कृपापूर्वक आज के अपरान्ह में यहाँ पधारने का कष्ट किया। मैं अपने मुख्यमंत्री महोदय का भी आभारी हूँ, जिन्होंने न केवल मेरे अनुरोध को स्वीकार ही किया, बल्कि मिथिला में संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना में गहरी दिलचस्पी ली। यदि हमारे शिक्षा मंत्री महोदय का उनके पदभार ग्रहण करने के समय से ही लगातार समर्थन और सहयोग नहीं प्राप्त होता, तो शायद यह स्वप्न साकार नहीं हो पाता। संस्कृत की विद्वता के सम्मान में आज से चार सौ वर्ष पहले हमारे पूर्वज महामहोपाध्याय महाराज महेश ठाकुर को बादशाह अकबर ने तिरहुत का राज्य दिया था। इसलिए यह बिलकुल उचित है कि हमारा संस्कृत पुस्तकालय, जिसको हमारे पूर्वजों ने वंश परंपरा से विगत शताब्दी में संघटित किया है, वह संस्कृत विश्वविद्यालय के पुस्तकालय का केंद्र बने।

यह भी उचित है कि लक्ष्मीश्वर विलास प्रसाद जो कि केवल हमलोगों का घर ही नहीं था, बल्कि वह स्थान था, जहाँ अनेक वर्षों तक राज के अनेक प्रकार के उत्सव होते रहे, वह संस्कृत विश्वविद्यालय का स्थान बने। मुझे पूर्ण विश्वास है कि संस्कृत विश्वविद्यालय केवल जीवित ही नहीं रहेगा बल्कि इस प्राचीन भूमि में जो कुछ भी उत्तम तत्व है, उसको प्रोत्साहित करेगा और उसका उद्धार करेगा। इसी विश्वास के साथ मैं आपके हाथों में वह बहुमूल्य खजाना सौंप रहा हूँ, जो मैंने पैतृक संपत्ति के रूप में पाया है, और विश्वास करता हूँ कि आपके छत्र-छाया में संस्कृत शिक्षा की श्री-वृद्धि होगी। संस्कृत सदा मर रहे।”
इस भाषण को पढ़ने के बाद कोई भी व्यक्ति, जिसके ह्रदय में अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान होगा, उनके द्वारा अर्जित सम्पत्तियों, संरक्षित धरोहरों के प्रति आदर होगा, जरूर अश्रुपूरित होगा। परन्तु, यह भाषण उन लोगों के लिए कतई नहीं है, चाहे महाराजाधिराज की पीढ़ियां ही क्यों न हों। क्योंकि अगर उनमें अपने पूर्वजों की सम्पत्तियों के प्रति, उनके सम्मान के प्रति ‘सम्मान’ होता तो शायद दरभंगा राज की आज जो स्थिति हैं, नहीं होता।

अपनी मृत्यु से 52-दिन पहले दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह अपने कलकत्ता निवास से 9 अगस्त, 1962 को बिहार के तत्कालीन शिक्षा मंत्री श्री सत्येंद्र नारायण सिंह को एक पत्र लिखे थे । पत्र में महाराजाधिराज सत्येंद्र नारायण सिंह से अनुरोध किये थे कि इस पत्र की कृपया अपने पत्रांक 1945, दिनांक 11 जुलाई, 1962 का निर्देश करें।
महाराजाधिराज लिखते हैं: “यह बात अपने कानों तक पहुंची है कि कुछ ऐसे कॉलेजों को जो संस्कृतेतर विषयों के अध्यापन कराते हैं और राज्य में कार्य करने वाले क्षेत्रीय विश्वविद्यालय के अधिकार क्षेत्र में उचित रूप से हैं, संस्कृत विश्वविद्यालय के अधिकार क्षेत्र में लाकर इसके रूप में परिवर्तन करने की चेष्टा की जा रही है। मेरी समझ से संस्कृत विश्वविद्यालय का मुख्य उद्देश्य, पाली और प्राकृत के साथ संस्कृत का विशिष्ट ज्ञान देना होना चाहिए जिससे की प्राचीन विद्वता की रक्षा हो और यथा-संभावदयातन बनाया जा सकते। इस विश्वविद्यालय की विशिष्ट स्वरूप में रक्षा अवश्य ही होनी चाहिए। मैंने इस विश्वविद्यालय के लिए जो दान दिया है वह इसलिए दिया कि मेरे पूज्य पिताजी की इक्षा को इससे पूर्ति होती थी। “यदि इस विश्वविद्यालय को क्षेत्रीय सामान्य विश्वविद्यालय का रूप दिया जाएगा तो मैं समझूंगा कि मेरा दिया हुआ दान बर्बाद हो गया। ”
आगे लिखते हैं: यदि सरकार मिथिला में एक क्षेत्रीय विश्वविद्यालय स्थापित करे तो मैं इसका स्वागत करूँगा किन्तु उसे संस्कृत विश्वविद्यालय के साथ किसी भी रूप में मिलाना नहीं चाहिए जो कि एक निश्चित उद्देश्य और निश्चित विचार से स्थापित किया गया है। वह विश्वविद्यालय इससे सर्वथा पृथक रहना चाहिए। इतना ही नहीं, सम्भवतः जिस लिफ़ाफ़े में महाराजाधिराज को पत्र-प्रेषित किया गया था, अथवा पत्र में सावधान किया गया था, उसमें “श्व” के स्थान पर “स्व” लिखा था।
यह महाराजाधिराज को अच्छा नहीं लगा। इसलिए शिक्षा मंत्री के जवाबी पत्र में उन्होंने बहुत ही “शालीनता” के साथ लिखे: “मेरे नाम का शुद्ध विवरण ‘कामेश्वर सिंह’ है न कि ‘कामेस्वर सिंह।” मेरे पास भेजे गए विधेयक के प्रारूप पर मुझे सामान्यतः कोई टिप्पणी नहीं करनी है। किन्तु यदि इसमें कोई परिवर्तन हुआ तो स्थिति भिन्न हो जाएंगी –
भवदीय, कामेश्वर सिंह।